हम अपने चेहरे पर न जाने कितने मुखौटे लगाए रहते हैं। जब एक मुखौटे से हमारा काम नहीं चलता तो दूसरा मुखौटा लगा लेते हैं। हम मुखौटे पर मखौटे लगाते रहते हैं और अनावश्यक रूप से मुखौटों का भार झेलते रहते हैं। इस तरह ताउम्र हमारी जिंदगी मुखौटों का भार झेलते हुए निकल जाती है। हम सोचते हैं कि मुखौटा लगाकर हमारी असलियत लोगों के सामने नहीं आएगी लेकिन देर-सबेर हमारी असलियत सामने आ ही जाती है।

मुखौटे लगाकर हम लगातार स्वयं को तो धोखा देते ही हैं, दूसरों को भी धोखा देने की कोशिश करते हैं। इस तरह हमें मुखौटों के सहारे जीवन जीने की आदत पड़ जाती है। यही कारण है कि हमें सहजता से जीवन जीने का अभ्यास ही नहीं हो पाता है और असहजता ही हमारी नियति बन जाती है।

भौतिकता के इस युग में मुखौटे लगाकर जीने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। यही कारण है हमारे जीवन से शांति गायब है। अपने वास्तविक स्वरूप को छिपाकर हमें शांति प्राप्त नहीं हो सकती। मुखौटे लगाने का अर्थ ही यह है कि हम अपने वास्तविक जीवन से दूर भाग रहे हैं। मुखौटे का असली काम हमारे वास्तविक चरित्र पर पर्दा डालना है। वास्तविक चरित्र को छिपा कर हम सहज कैसे रह सकते है?

विचारणीय प्रश्न यह है कि हम मुखौटे क्यों लगाते हैं? ऐसी क्या जरूरत पड़ जाती है कि मुखौटे के बिना जीवन जीना मुश्किल लगने लगता है? दरअसल हम अपना कोई व्यवहार छिपाने या फिर स्वयं को किसी मुद्दे पर एक कदम आगे दिखाने के लिए मुखौटा लगाते हैं। अपना व्यवहार छिपा कर या फिर स्वयं को एक कदम आगे दिखाकर हम अपनी प्रतिष्ठा में इजाफा करना चाहते हैं।

एक बार इस तरह के व्यवहार से हमारी प्रतिष्ठा में इजाफा हो जाता है तो हमें इसी मार्ग पर चलने में मजा आने लगता है। इस तरह हमारा वास्तविक व्यक्तित्व छिपता चला जाता है और इसी तरह के व्यवहार के माध्यम से हम अपने जीवन की नैया पार लगाना चाहते हैं। आज अधिकांश लोग मुखौटे लगाए हुए हैं। इसीलिए समाज में खोखला आदर्शवाद बढ़ता जा रहा है या यूं कहें कि खोखले आदर्शवाद के कारण ही हमारे चेहरों पर मुखौटे बढ़ते जा रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब हम इस रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो एक मुखौटे से काम नहीं चलता है। हमें एक मुखौटे के ऊपर कई मुखौटे लगाने पड़ते हैं। इस तरह मुखौटों के इस संसार में हम स्वयं को ही पहचानना बंद कर देते हैं।

हम स्वयं को पहचान नहीं पाते हैं, इसलिए हमारा रवैया यथार्थपूर्ण नहीं होता है। अगर हम लगातार आत्ममंथन करते रहें तो हमें अपने चेहरे पर मुखौटा लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हम इसीलिए मुखौटा लगाते हैं क्योंकि अपने अंतर में झांकने की कोशिश ही नहीं करते हैं, बल्कि लगातार इस प्रक्रिया से दूर भागते रहते हैं। अपने अंतर में झांकने के लिए त्याग की जरूरत पड़ती है, जबकि किसी भी कीमत पर हम त्याग नहीं करना चाहते हैं। मुखौटा लगातार हम सतही तौर पर अच्छा बनने की कोशिश करते हैं। अच्छा बनने की यह नौटंकी हमें कभी भी अच्छा नहीं बनने देती, बल्कि और बुरा बना देती है।

मुखौटा लगाने की शुरुआत ही अनावश्यक रूप से अच्छा बनने की इच्छा से होती है। हम जबरदस्ती वो बनना चाहते हैं जो हम वास्तव में होते नहीं हैं। अगर हमारे अंदर कुछ अवगुण हैं तो इच्छाशक्ति से उन्हें गुणों में तब्दील किया जा सकता है। लेकिन अगर हमारे अंदर अपने अवगुणों को खत्म करने की इच्छाशक्ति ही न हो और हम सिर्फ ऊपर से अच्छा दिखना चाहें तो इसके परिणाम बुरे ही होंगे।

अच्छाई एक आंतरिक तथ्य और प्रक्रिया है जो मुखौटे रूपी बाहरी माध्यम से संचालित नहीं हो सकती। इसलिए अगर हम अंदर से अच्छे नहीं है तो सिर्फ मुखौटे के माध्यम से अच्छे नहीं बन सकते। हमारे मुखौटे और वास्तविक व्यक्तित्व के बीच लगातार संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष हमें न केवल जिद्दी बनाता है, बल्कि ऐसा मूर्ख और चालाक व्यक्ति भी बनाता है जिसकी मूर्खता और चालाकी बार-बार पकड़ी जाती है।

इसलिए हम जितने ज्यादा मुखौटे लगाते हैं, उतने ही परेशान रहते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि मुखौटों के माध्यम से हम अपनी परेशानी दूर करना चाहते हैं लेकिन मुखौटे ही परेशानी बढ़ा देते हैं। इसलिए मुखौटों को त्यागकर ही हम अपनी परेशानी खत्म कर सकते हैं।