मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों से बिपरजाय चक्रवात ने बड़े क्षेत्र और बड़ी मात्रा में संपत्ति का तो विनाश किया, लेकिन जनहानि का कारण नहीं बन पाया। पशुओं की भी बहुत कम मौतें हुईं। इस परिप्रेक्ष्य में तमाम एजेंसियों ने भरोसे की मिसाल पेश की है। गुजरात के सौराष्ट्र तथा कच्छ जिलों को तूफान ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। तूफान आने की खबरों से लोग भयभीत थे, क्योंकि तबाही की आशंका बड़े पैमाने पर जताई जा रही थी। मगर तूफान के पूर्व बरती गई सावधानियों के चलते एक लाख से ज्यादा लोग सुरक्षित स्थलों पर पहुंचा दिए गए थे।

कुदरत के कोप से मुकाबला करने की जो तैयारी और जीवटता इस बार देखी गई, इससे पहले कम ही देखने में आई है। अन्यथा इसी गुजरात ने सातवें दशक में अत्यंत विनाशकारी तूफान का सामना किया था। उस समुद्री तूफान से भरूच तथा सूरत जैसे बड़े शहर लाशों से पट गए थे। हजारों मवेशी भी मारे गए थे। उसी कालखंड में अविभाजित आंध्र प्रदेश ने इतने बड़े चक्रवात से सामना किया कि दो लाख से ज्यादा लोगों को प्राण गंवाने पड़े थे।

1998 को गुजरात में आए समुद्री तूफान में सैकड़ों लोग मारे गए थे

इसी तरह 4 जून, 1998 को गुजरात में आए समुद्री तूफान में सैकड़ों लोग मारे गए थे। मगर इसके बाद भारत तूफान की सटीक भविष्यवाणी और उत्तम आपदा प्रबंधन में सक्षम हो गया। नतीजतन 2019 में गुजरात में ‘क्यार’ चक्रवात आया, तो केवल संपत्ति की हानि हुई, जन और पशु हानि नहीं हुई। इसी तरह 2020 में महाराष्ट्र में निसर्ग और 2021 में गुजरात में आए तौकते तूफान ज्यादा असर नहीं दिखा पाए, क्योंकि दो लाख लोगों को आपदा प्रबंधन दक्षता के चलते सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया था। इसी तरह 2019 में फानी तूफान ओडीशा में बेअसर रहा।

भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अक्सर सही साबित नहीं होते, लेकिन कुछ समय से चक्रवाती तूफानों के सिलसिले में उसकी भविष्यवाणियां सटीक बैठ रही हैं। इस बार हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्यूटर और डापलर रडार जैसे श्रेष्ठतम तकनीकी माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र और उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में सफल रहे। तूफान की तीव्रता, तेज हवाओं और आंधी की गति और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए।

इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरूरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और उनका सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरूरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य और जिलेवार भविष्यवाणियां की जा सकें।

अगर ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा। साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा, कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्ता और दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्र तटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर हैं। लिहाजा, समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना होता है।

कुदरत के रहस्यों की जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर को कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के बहुत सारे इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण ये खतरे बढ़ रहे हैं। कहा भी जा रहा है कि क्यार, निसर्ग, तौकते, सुनामी, फेलिन, ठाणे, आइला, आइरिन, नीलम और सैंडी जैसी आपदाएं प्रकृति के बजाय आधुनिक मनुष्य की प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं।

इस बाबत गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आशंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रूप में 2012 में ही आ धमके। इसके दस साल पहले आए सुनामी ने ओडीशा के तटवर्ती इलाकों में जो कहर बरपा था, उसके विनाश के चिह्न अब भी दिखाई दे जाते हैं। इसकी चपेट में आकर करीब दस हजार लोग मारे गए थे।

सुनामी के बाद पर्यावरणविदों ने रेखांकित किया था कि अगर मैंग्रोव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओडीशा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख सत्तर हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। उत्तराखंड में भी पर्यटन विकास के लिए लाखों पेड़ काट दिए और पहाड़ियों की छाती छलनी कर दी गई, जिसके दुष्परिणाम हम उत्तराखंड में निरंतर आ रही त्रासदियों में देख रहे हैं।

दरअसल, जंगल प्राणि जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाश को अगर नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो यह तय है कि आपदाओं को भी रोक पाना मुश्किल होगा। दरअसल, कार्बन फैलाने वाली विकास नीतियों को बढ़ावा देने के कारण धरती के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि बीते 133 सालों में रिकार्ड किए गए तापमान के जो तेरह सबसे गर्म वर्ष रहे हैं, वे 2000 के बाद के ही हैं और आपदाओं की आवृत्ति भी इसी कालखंड में सबसे ज्यादा बढ़ी है। पिछले तीन दशक में गर्म हवाओं का मिजाज उग्र हुआ है। इसने धरती के दस फीसद हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है।

यही वजह है कि अमेरिका में जहां कैटरिना, आइरिन और सैंडी तूफानों ने तबाही मचाई वहीं नीलम, आइला, सुनामी और फेलिन ने भारत और श्रीलंका में हालात बदतर किए। वैश्विक ताप वृद्धि के चलते समुद्री तल खौल रहा है। फ्लोरिडा से कनाडा तक फैली अटलांटिक की 800 किमी चौड़ी पट्टी में समुद्री तल का तापमान औसत से तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा है।

यही उर्जा जब सतह से उठ रही भाप के साथ मिलती है तो समुद्र तल में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव शुरू हो जाता है, जो चक्रवाती बवंडर को विकसित करता है। इस बवंडर के वायुमंडल में विलय होने के साथ ही, वायुमंडल की नमी 7 फीसद बढ़ जाती है, जो तूफानी हवाओं को जन्म देती है। प्राकृतिक तत्त्वों की यही बेमेल रासायनिक क्रिया भारी बारिश का आधार बनती है, जो आंधी का रूप ले लेती है। नतीजतन, तबाही से धरती कांप उठती है और बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं।

तापमान वृद्धि का अनुमान लगाने के आधार पर अंतर-सरकारी पैनल ने भी भारतीय समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने की आशंका जताई है। इस लिहाज से हमारी संस्थाओं की जो समवेत जवाबदेही, इस चक्रवात से सामना करने में दिखाई दी है, उसकी निरंतरता बनी रहनी चाहिए। मौसम विभाग की भविष्यवाणी के बाद बचाव और राहत की तैयारी के लिए महज चार दिन मिले थे।

इन्हीं चार दिनों में केंद्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सक्रिय हो गया। इसकी हिदायतों के मुताबिक थल, जल और वायु सेनाएं जरूरी संसाधनों के साथ प्रभावित क्षेत्रों में तैनात हो गईं। गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान की सरकारों ने भी वक्त के तकाजे के हिसाब से बचाव के सभी संसाधन तटवर्ती क्षेत्र में झोंक दिए। इस संकट की घड़ी में जो साझा दायित्व बोध देखने में आया, वह अगर भविष्य में भी बना रहता है, तो भारत ऐसी अचानक आने वाली आपदाओं से मानव आबादी को सुरक्षित रखने में सफल होगा।