दिल्ली किसी भी अन्य भारतीय महानगर की तुलना में तेज़ी से धंस रही है। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली में जमीन धंसने की दर सबसे ज़्यादा है और उच्च संरचनात्मक जोखिम वाली इमारतों की संख्या सबसे ज़्यादा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि राजधानी में लगभग 17 लाख लोग इससे प्रभावित हो सकते हैं।

नेचर में छपे “डूबते भारतीय महानगरों में इमारतों को नुकसान का जोखिम” शीर्षक वाले अध्ययन के अनुसार, राजधानी में वर्तमान में 2,264 इमारतें ऐसी हैं जिन्हें चल रहे भू-धंसाव के कारण उच्च जोखिम वाली श्रेणी में रखा गया है। 28 अक्टूबर को जर्नल में प्रकाशित निष्कर्षों में बताया गया है कि शहर में प्रति वर्ष अधिकतम 51.0 मिमी भू-धंसाव दर देखी गई है।

रिपोर्ट में जिन 5 भारतीय महानगरों का विश्लेषण किया गया उनमें दिल्ली भू-धंसाव से प्रभावित क्षेत्र (196.27 वर्ग किमी) के मामले में तीसरे स्थान पर है। दिल्ली से ज्यादा भू-धंसाव वाले इलाके मुंबई (262.36 वर्ग किमी) और कोलकाता (222.91 वर्ग किमी) हैं।

दिल्ली-एनसीआर के ये इलाके ज्यादा प्रभावित

दिल्ली-एनसीआर में भूमि धंसाव वाले हॉटस्पॉट की पहचान की गयी है जहां बिजवासन, फरीदाबाद और गाजियाबाद के प्रभावित इलाकों में 28.5 मिमी प्रति वर्ष, 38.2 मिमी प्रति वर्ष और 20.7 मिमी प्रति वर्ष तक की दर से भू-धंसाव हो रहा है। कुछ शहरों जैसे कि दिल्ली के द्वारका के आस-पास के इलाकों में, स्थानीय स्तर पर भू-उभार 15.1 मिमी प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है।

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भविष्य के जोखिम अनुमानों के बारे में लेखक लिखते हैं, “हमारा विश्लेषण बताता है कि 30 वर्षों में, दिल्ली, चेन्नई और मुंबई में अनुमानित 3169, 958 और 255 इमारतों को नुकसान का बहुत बड़ा खतरा होगा। इसके अलावा, 50 सालों में दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु , चेन्नई और कोलकाता में 11,457, 3,477, 112, 8,284 और 199 इमारतों को नुकसान का बहुत बड़ा खतरा होने की उम्मीद है।”

दिल्ली में भूमि धंसाव का मुख्य कारण भूजल निकासी

अध्ययन में भूमि धंसाव को भूजल की कमी, मानसून की परिवर्तनशीलता और जलवायु परिवर्तन से जोड़ा गया है। इसमें लिखा है, “दिल्ली में, भूमि धंसाव का मुख्य कारण व्यापक भूजल निकासी है।” अध्ययन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन और मानवीय क्रियाएं भू-धंसाव की दर को बढ़ा सकती हैं। इसमें लिखा है, “भारत में सतही जल आपूर्ति और भूजल की मांग, पुनःपूर्ति के लिए मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है। हालाँकि, मानसून में देखे गए बदलावों (जिनमें देरी से शुरुआत और जल्दी समाप्ति) और वर्षा में बदलाव ने हाल के दशकों में काफी दबाव डाला है।”

अध्ययन में रेखांकित किया गया है, “मौसम की चरम सीमाएं सीधे तौर पर बुनियादी ढांचे की कमज़ोरियों को प्रभावित करती हैं और जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण ये लगातार और तीव्र होती जा रही हैं, इनका असर भी बढ़ रहा है। इस प्रकार, भूमि अवतलन, जलवायु परिवर्तन और मौसम की चरम सीमाओं का संयुक्त प्रभाव एक जटिल और गंभीर गठजोड़ बनाता है जो संरचनात्मक क्षति के जोखिम को बढ़ा सकता है।”

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