दिल्ली विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद दिल्ली भाजपा को अपने चरमराए संगठन को नए सिरे से खड़ा करने की जरूरत है। विधानसभा चुनाव के बाद अब यह साबित हो गया है कि दिल्ली भाजपा का संगठन सिर्फ खोखली राजनीति करता रहा है। सत्ता तक पहुंचने के भाजपा के सभी प्रयोग नाकाम साबित हुए हैं। हैरानी की बात है कि दिल्ली के चुनावों में इतनी भारी हार के बाद अब तक किसी भी नेता ने अपना इस्तीफा नहीं दिया है। शायद भाजपा के इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है।
विधानसभा चुनाव में हार के बाद वे नेता हार की समीक्षा कर रहे थे, जो दिल्ली के चुनावों की रणनीति से अलग-थलग कर दिए गए थे। हार की समीक्षा के दौरान अमित शाह, निर्मला सीतारमण, राजीव प्रताप रूढ़ी, रविशंकर प्रसाद और अनंत कुमार गायब थे। चुनावी हार की समीक्षा बैठक में प्रमुख रूप से प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा, हर्षवर्धन और विजय गोयल जैसे वे दिल्ली के दिग्गज नेता कर रहे थे, जिन्हें दिल्ली के चुनावी अभियान से अलग कर दिया गया था।
दिल्ली में जनसंघ से लेकर भाजपा तक के इतिहास में इतनी करारी शिकस्त पार्टी की कभी भी नहीं हुई है। जनसंघ के दौरान जब दिल्ली में महानगर परिषद थी। वर्ष 1972 में उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश की स्थापना करवाई थी। पूरे देश में उनकी जय-जयकार हो रही थी।
उसी दौरान दिल्ली महानगर परिषद का चुनाव हुआ था और जनसंघ को 59 में से 5 सीटें मिली थीं। वर्ष 1993 में दिल्ली विधानसभा बनी तो भाजपा को 51 सीटें मिलीं और मदनलाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बनाए गए। उन्होंने दिल्ली में विकास का काम ही शुरू किया था कि उनका नाम भाजपा के अन्य कई नेताओं की तरह हवाला कांड में आ गया। उससे आहत होकर खुराना ने राष्ट्रीय नेताओं के मना करने के बाद भी मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया था। हालांकि अदालत ने उन्हें दोषमुक्त भी कर दिया था, लेकिन पार्टी ने उन्हें फिर से दिल्ली में सक्रिय होने का मौका नहीं दिया।
उनकी जगह दिल्ली में साहिब सिंह वर्मा को दिल्ली का मुख्यमंत्री बना दिया गया। बाद में सुषमा स्वराज दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं और वर्ष 1998 का दिल्ली विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया। उस चुनाव में दिल्ली भाजपा को सिर्फ 14 सीटें हासिल हुईं थीं। उस समय भाजपा के दिग्गज केदारनाथ साहनी दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष थे। पार्टी की हार के बाद वे काफी आहत हुए। इससे पहले कि वे अपना त्यागपत्र देते, उनका कार्यकाल ही समाप्त हो गया था और उन्हें राज्यपाल बनाकर दिल्ली से बाहर भेज दिया गया।
दिल्ली में एक बार फिर से वर्ष 2003 का दिल्ली विधानसभा चुनाव जैसा समय आ गया है। उस समय केंद्र में भाजपा की सरकार थी। दिल्ली की कमान फिर से मदनलाल खुराना को सौंपीं गईं। उस समय दिल्ली में तीन ज्वलंत समस्याएं थीं। एक दिल्ली से उद्योगों को बाहर शिफ्ट किया जा रहा था, दूसरी दिल्ली की अनियमित कालोनियों का मामला था और तीसरी दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे की थी।
खुराना ने दिल्लीवासियों के दिलों में जगह बनाने के लिए दिल्ली के उद्योगों और अनियमित कालोनियों की समस्याओं को लेकर रामलीला मैदान में एक बड़ी रैली की थी। उस समय केंद्र में अनंत कुमार शहरी विकास मंत्री थे। खुराना दिल्ली की इन दोनों समस्याओं को लेकर कई बार अनंत कुमार से मिले। खुराना चाहते थे कि अनंत कुमार इन दोनों समस्याओं को दूर करने के लिए कोई सार्वजनिक बयान दे दें। लेकिन वे ऐसा नहीं करवा पाए। इसी तरह से उस दौरान दिल्ली के आइजी स्टेडियम में हुई भाजपा की एक बड़ी सभा में उस समय के उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य मिल जाने की घोषणा भी कर दी। लेकिन जब वर्ष 2003 का दिल्ली विधानसभा चुनाव हुआ तो भाजपा दिल्लीवासियों के समक्ष इन दोनों मामलों में झूठी साबित हुई और उसे चुनावों में 18 सीटें मिलीं थीं। उस समय खुराना दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष थे और हार के बाद उन्होंने वह पद छोड़ दिया था।
वर्ष 2008 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय दिल्ली भाजपा के हर्षवर्धन अध्यक्ष थे। उस समय भाजपा ने प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला किया। उन चुनावों में भाजपा को दिल्ली विधानसभा चुनावों में 24 सीटें हासिल हुईं। वर्ष 2010 में विजेंद्र गुप्ता को दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष बना दिया गया। विजेंद्र गुप्ता ने दिल्ली भाजपा के संगठन को नए सिरे से खड़ा किया। वह संगठन की दृष्टि से भाजपा का स्वर्णक ाल माना जा सकता है।
दिल्ली भाजपा पूरी तरह से आगामी 2013 के चुनावों के लिए तैयार थी। उसी दौरान भाजपा ने दिल्ली नगर निगमों के चुनाव भी जीते। फिर अचानक से भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं की दिल्ली के मामलों में दखल बढ़ गया और दिल्ली के चुनावों के करीब विजय गोयल को दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया। गोयल ने नए सिरे से दिल्ली भाजपा का संगठन खड़ा किया। उन्हें उम्मीद थी कि आगामी वर्ष 2013 का दिल्ली विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। लेकिन एक बार फिर से भाजपा के केंद्रीय नेताओं की नजर दिल्ली पर गई और हर्षवर्धन के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला किया। भाजपा आलाकमान के उस फैसले से भाजपा का वह संगठन चरमरा गया, जो विजय गोयल ने तैयार किया था। दिल्ली में चुनाव हुए और भाजपा को अकाली दल सहित दिल्ली में 32 सीटें मिलीं और वह सत्ता के करीब पहुंचकर दिल्ली की गद्दी नहीं पा सकी।
अब दिल्ली में आम चुनाव थे। भाजपा संगठन पूरी तरह से उसमें जुट गया और दिल्ली भाजपा की कमान फिर से हर्षवर्धन को सौंप दी गई। लोकसभा चुनावों में भाजपा दिल्ली की सभी सातों सीटों पर विजयी रही। दिल्ली में उपराज्यपाल का शासन था। दिल्ली में भाजपा पर जोड़-तोड़ से सरकार बनाने का दबाव शुरू हो गया। भाजपा के कई नेता समझ गए कि दिल्ली में आम आदमी का प्रभाव बढ़ रहा है और यदि चुनाव होते हैं तो वह जीत नहीं पाएगी। दिल्ली भाजपा में जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई, लेकिन उसके लिए हर्षवर्धन तैयार नहीं थे। एक ओर भाजपा में सरकार बनाने वाले ने अपनी गतिविधियां बढ़ा दीं और दूसरी तरफ सरकार नहीं बनने देने वालों ने भी दबाव की राजनीति शुरू कर दी।
दिल्ली में जोड़-तोड़ से सरकार बनाने वालों की कई बैठकें हुईं।
भाजपा से अलग कई विधायक उसकी सरकार बनाने में साथ देना चाहते थे। वे नेता बदरपुर से विधायक रहे रामवीर सिंह बिधूड़ी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। लेकिन उसके लिए भाजपा का एक वर्ग तैयार नहीं था। फिर दिल्ली में एक समय ऐसा भी आ गया कि कई पूर्व विधायक प्रोफेसर जगदीश मुखी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने की बात होने लगी।
उस समय भाजपा के दिग्गज नेता नितिन गडकरी का उन्हें समर्थन प्राप्त था। दिल्ली के प्रभारी प्रभात झा ने भी मीडिया में सरकार बनाने के बाबत बयान दे दिया। बस उसके बाद भाजपा इस मामले में दो फाड़ हो गई। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस तरह से सरकार बनाने से सार्वजनिक इनकार कर दिया और दिल्ली में भाजपा ने अपनी तैयारियां शुरू करके निगम पार्षद सतीश उपाध्याय को दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़वाने की जिम्मेदारी सौंप दी। उसके बाद का दिल्ली भाजपा का चुनावों में हुए हश्र को दिल्लीवासी जानते ही हैं। अब दिल्ली में वर्ष 2017 के दिल्ली नगर निगम के चुनाव हैं। पार्टी को अभी से उसकी तैयारी शुरू करनी होंगी। दिल्ली में मोबाइल पर मिक्सड काल करके नए कार्यकर्ता बनाने और पन्ना प्रमुखों के प्रयोग करने के बजाए संगठन को नए सिरे से खड़ा कर उसे दिल्ली के आगामी चुनावों के लिए तैयार करना होगा।
नरेंद्र भंडारी