उर्दू शायरी आज जिस मुकाम पर है उसमें उसके फख्र करने के लिए बहुत कुछ है। पर उर्दू शायरी के इस सफरनामे में आज भी निर्विवाद रूप से जो सबसे कीमती है वह है मिर्जा गालिब का नाम और उनकी शायरी। गालिब की शायरी का फलसफाना अंदाज और उसकी बुलंदी न सिर्फ उर्दू बल्कि बाकी भाषा के कवियों के लिए भी रचनात्मक आदर्श है। गालिब की लोकप्रियता का आलम यह है कि वे शायरी से आगे भाषाई कहन और आम बोलचाल के मुहावरे तक में दाखिल हो गए हैं।
गालिब का असल नाम मिर्जा असदउल्ला बैग खान था। उनका जन्म 27 दिसंबर, 1796 को अकबराबाद में हुआ जो कि आज का आगरा है। गालिब के पिता फौज में थे। जब गालिब महज पांच साल के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया। चचा जान की भी जल्द ही मृत्यु हो जाने पर वे ननिहाल आ गए। उनका बचपन ननिहाल ही में बीता और बड़े मजे से बीता।
ननिहाल में उन्हें एक ओर पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी, तो वहीं दूसरी ओर जहीन और जानकार बुजुर्गों की सोहबत का लाभ भी मिला। गालिब ने आगरा में रहते हुए फारसी सीखी। शायरी की उनकी लत भी इन्हीं दिनों शुरू हुई। पर उनके शुरुआती दिनों की शायरी में कोरा देहाकर्षण और प्रेम की औसत समझ थी। एक बार किसी हितैषी ने उनके कुछ शेर मीर तकी मीर को सुनाए तो मीर ने कहा कि अगर इस लड़के को कोई बढ़िया उस्ताद मिल गया और उसने इसको सीधे रास्ते पर डाल दिया तो लाजवाब शायर बन जाएगा वरना महमिल (निरर्थक) बकने लगेगा।
गालिब जब सिर्फ तेरह वर्ष के थे तो पारिवारिक रजामंदी से उनका निकाह लोहारू के नवाब अहमदबख्श खां के छोटे भाई मिर्जा इलाही बख्श खां मारूफ की बेटी उमराव बेगम के साथ करा दिया गया। उस वक्त उमराव ग्यारह साल की थीं। गालिब अपने विवाह के कुछ दिनों बाद से ही अपनी ससुराल दिल्ली आ आए और फिर दिल्ली के ही हो गए। पहले वे मिर्जा नौशा के रूप में जाने जाते थे पर लिखते ‘असद’ तखल्लुस के साथ थे। पर यह किसी और के उपयोग में आने के कारण उन्होंने अपना तखल्लुस ‘गालिब’ रख लिया।
गालिब मन और कहन में अपने समकालीनों से काफी अलग थे। वे अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के दरबारी शायर थे। उनकी आंखों के सामने 1857 के गदर का पूरा दौर गुजरा। जिंदगी से लेकर मुल्क के हालात तक के सारे अनुभव उनकी शायरी को उस मुकाम पर ले गए जिसमें इश्क की गहराई से लेकर रहस्यवाद तक सब एक साथ घुलता चला गया। जब वे अपनी एक गजल में कहते हैं कि ‘हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ्तुगू क्या है’, तो वे कहीं न कहीं उर्दू शायरी की संभावना और उसकी जमीनी ताकत का एलानिया एहसास भी करा रहे होते हैं।
मौजूदा दौर में उर्दू शायरी जिस तरह देश और समाज के हालात और सवालों को लेकर मुखर है, उसकी बड़ी प्रेरणा गालिब हैं। तर्जे सुखन से आगे जिस तरह इंसानी नफसियात को वे गहराई में जाकर समझते थे और बड़ी ही सादगी से अवाम के सामने रख देते थे, उसका लोहा आज भी माना जाता है। ‘हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है’ और ‘रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है’ जैसे मशहूर शेरों के साथ गालिब की सुखनवरी का डंका आज भी उर्दू अदब और शायरी की दुनिया में बजता है।