मौसम के बदलाव के बीच इस साल भारत में कुछ ऐसी खबरें आई, जो प्राकृतिक आपदा के अपवाद को बार-बार के दोहराव में तब्दील कर रही थीं। वैसे इस बात को लेकर चेतावनी पहले ही कई बार दी जा चुकी है कि खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में विकास के नाम पर प्रकृति से होनेवाली अनवरत छेड़छाड़ महंगी पड़ सकती है।
केदारनाथ हादसे ने तो इस चेतावनी को पहले ही खतरे के निशान पर ला दिया था। पर विकास और समृद्धि की लालची समझ के साथ लोगों ने उन इलाकों में भी बड़े और पक्के निर्माण करना जारी रखा, जो बसाव के लिहाज से कभी भी सुरक्षित नहीं माने गए हैं। नतीजतन जो घटनाएं कल तक आपवादिक थीं, अब वे बार-बार देखने में आ रही हैं। हिमाचल और उत्तराखंड से लेकर उत्तर-पूर्व के सूबों तक दस से ज्यादा ऐसी घटनाएं अकेले जुलाई महीने में हुईं। अगर समय रहते हम नहीं चेते और सरकार ने इस दिशा में कोई व्यापक कदम नहीं उठाया तो हालात और बुरे हो सकते हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआइ) के अनुसार देश में 4.2 लाख वर्ग किमी या कुल भूमि के 12.6 फीसद क्षेत्र में चट्टानों के गिरने का खतरा हमेशा बना हुआ है। इसमें बर्फ वाले इलाकों को शामिल नहीं किया गया है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआइडीएम) के 2011 के एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत को हर साल इससे 150-200 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। जाहिर है कि मौजूदा स्थिति में यह आर्थिक नुकसान कहीं ज्यादा बड़ा होगा। एक अनुमान के मुताबिक इस वजह से कई विकासशील देशों में आर्थिक नुकसान सकल राष्ट्रीय उत्पाद का एक से दो फीसद हो सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में चट्टानों के खिसकने से 264 भारतीयों की आकस्मिक मौत हो गई।
इनमें से 65 फीसद से अधिक मौतें हिमालय और पश्चिमी घाट में हुर्इं। इस खतरे को देश की सीमा से बाहर निकलकर देखें-समझें तो खासतौर पर विकासशील देशों की अधोगति समझ में आती है। क्योंकि पत्थर या चट्टान गिरने से होने वाली मौत की 80 फीसद घटनाएं इन्हीं मुल्कों में घटती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि भूस्खलन से अन्य प्राकृतिक आपदाओं के मुकाबले संपत्ति का नुकसान, पानी की आपूर्ति और विस्थापन की स्थिति पर ज्यादा असर पड़ता है। जाहिर है कि स्थानीय अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित होती है।
भूस्खलन, भूकम्प या भारी वर्षा जैसे प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होते हैं। मानसून में खास तौर पर हर साल ऐसी घटनाएं होती हैं। अप्रत्याशित मौसम, जलवायु संकट, भारी और तीव्र वर्षा से देश में भूस्खलन की घटनाएं और बढ़ रही हैं। जलवायु संकट जोखिम को और बढ़ा रहे हैं, खासकर हिमालय और पश्चिमी घाट में।
अमेरिका के शेफील्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में पाया कि 2004-16 की अवधि में इंसानों की वजह से घातक भूस्खलन होने के मामले में भारत सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों में से एक था। अध्ययन में दुनियाभर के 5,031 घातक भूस्खलन का विश्लेषण किया गया, जिसमें भारत की 829 घटनाएं शामिल थीं। इन 829 घटनाओं में 10,900 मौतें हुई थीं, जो दुनिया भर में भूस्खलन से हुई मौत का 18 फीसद था। पहाड़ी इलाकों में इंसानी दखलदांजी से समस्या ज्यादा गंभीर हुई है। सड़कों, इमारतों और रेलवे का निर्माण, खनन और जल विद्युत परियोजनाएं भी पहाड़ी ढलानों को नुकसान पहुंचाती हैं।
दरअसल, निर्माण कार्य की वजह से मिट्टी और वनस्पतियों को हटाया जाता है जिससे प्राकृतिक जल निकासी प्रभावित होती है। यह पहाड़ियों को भूस्खलन के लिए अधिक संवेदनशील बना देती है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 28 फीसद मामलों में निर्माण कार्य की वजह से पत्थर गिरने की घटनाएं होती हैं। पर्यावरण और वन मंत्रालय के पर्यावरण सूचना केंद्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पहाड़ी इलाकों का सड़कों से संपर्क बढ़ने और गाड़ियों की संख्या बढ़ने के कारण भी चट्टानों के गिरने से होने वाली मौतों की संख्या में इजाफा देखा जा रहा है।