दुनिया भर में जलवायु पर मंडराते संकट का दायरा इतना व्यापक और गंभीर है कि विश्व के सभी देश चिंतित हैं और मिल-बैठ कर इसका समाधान निकालना चाहते हैं। इस मकसद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु सम्मेलन होते रहते हैं। मगर इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि दशकों से हर वर्ष आयोजित सम्मेलन में ज्यादातर देशों की हिस्सेदारी के बावजूद अब तक कोई ऐसा खाका सामने नहीं आ सका है, जिसमें जिम्मेदारियों और जवाबदेहियों के मसले पर एक न्यायपूर्ण दृष्टि अपनाई जाए और उस पर सभी देशों की सहमति बने। नतीजतन, जलवायु संकट पर आयोजित सम्मेलनों के बाद अब तक कोई ठोस प्रारूप सामने नहीं आ सका है। इस मसले की गंभीरता को समझने और स्वीकार करने के बावजूद ज्यादातर देशों के बीच मतभेद और अपनी जवाबदेही से दूर भागने की प्रवृत्ति क्यों बनी हुई है!

बाकू में समाधान के रास्ते और जिम्मेदारियों के स्तर पर सहमति नहीं बनी

गौरतलब है कि इस वर्ष अजरबैजान के बाकू में हुए सीओपी-29 में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच समस्याओं की गहराई पर विचार में कोई कमी नहीं देखी गई, मगर समाधान के रास्ते और जिम्मेदारियों के स्तर पर सहमति नहीं बनी। बाकू में विकासशील देशों के लिए नए जलवायु वित्त पैकेज का मसविदा तो पेश किया गया, लेकिन उसमें प्रमुख मुद्दे बरकरार रहे। दरअसल, विकसित देश अब भी इस सवाल का जवाब देने से कतरा रहे हैं कि वे 2025 से विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हर वर्ष कितना वित्तीय सहयोग देने को तैयार हैं। विकासशील देशों ने लगातार इस पक्ष को उठाया है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और जलवायु अनुकूलन के लिए उन्हें कम से कम तेरह खरब अमेरिकी डालर की जरूरत है।

विचित्र यह है कि बाकू में पेश संशोधित मसविदे में विकसित देशों से वित्तीय सहयोग की जरूरत के पहलू को तो स्वीकार किया गया, लेकिन इस पर सहमति के मामले में कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं हुई। यह समझना मुश्किल नहीं है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के उपाय लागू करने के संदर्भ में विकासशील देशों को किन जटिल स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है! इसमें कोई दोराय नहीं कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जलवायु संकट के लिए सबसे बड़े कारकों में से एक है और बिना देरी किए इसका समाधान निकालने के लिए रास्ते तलाशने की जरूरत है। मगर सवाल है कि क्या इसके लिए केवल विकासशील देश जिम्मेदार हैं!

जब भी इस समस्या के दायरे और इसकी जिम्मेदारी लेने की बात उठाई जाती है तो विकसित देशों की ओर से आखिर किन वजहों से कार्बन उत्सर्जन को मुख्य सवाल बनाने की कोशिश होती है? इन्हीं वजहों से गुरुवार को भारत को यह स्पष्ट रूप से कहना पड़ा कि वह विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त से ध्यान हटा कर उत्सर्जन में कमी लाने पर ध्यान केंद्रित करने के विकसित देशों के किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं करेगा।

यह छिपा नहीं है कि विकासशील देशों में अभी विकास किस स्तर की चुनौतियों से गुजर रहा है, जबकि विकसित देशों में संसाधनों और सुविधाओं के उपभोग की स्थिति यह है कि जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर अक्सर वही कठघरे में खड़े पाए जाते हैं। विकसित देशों में जलवायु से जुड़े खतरे को लेकर चिंता है, तो जरूरत इस बात की है कि इस समस्या की जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपने के बजाय वे खुद आगे आकर इसके ठोस हल का रास्ता निकालने में अपनी भूमिका तय करें।