वैश्विक हों या राष्ट्रीय, नियामक संस्थाओं द्वारा बनाए गए दिशा-निर्देशों को लागू करने में अभिभावकों की भूमिका सबसे अहम है। सीमित समय के लिए स्मार्टफोन के इस्तेमाल को लेकर पारिवारिक स्तर पर बना अनुशासन सबसे ज्यादा मददगार हो सकता है। प्रौद्योगिकी के सही और सधे उपयोग का मार्ग अभिभावक ही दिखा सकते हैं। नई पीढ़ी को सामाजिक गतिविधियों की ओर प्रवृत्त करने का काम परिजन ही कर सकते हैं।
तकनीकी उपकरणों के इस्तेमाल की अधिकता ने हर आयु वर्ग के जीवन को असहज बना दिया है। खासकर हर पल मुट्ठी में मौजूद मोबाइल फोन तो बच्चों-बड़ों की जिंदगी में अधिकार जमा कर बैठ गया है। मशीनी सुविधा के चलते आदमी का मन-मस्तिष्क ही उलझनों से भर गया है। ऐसी ही उलझनों के कारण व्यवहार की उग्रता से लेकर वैचारिक अस्थिरता तक बहुत से दुष्प्रभाव नजर आने लगे हैं। जिंदगी में बढ़ते मशीनी दबाव की परिस्थितियों में बालमन पर पड़ रहे प्रभावों का आकलन और बचाव की रणनीति बनाना आवश्यक है।
बच्चों का समय लीलने, बालसुलभ सहजता छीनने और स्वास्थ्य के हर पहलू पर दुष्प्रभाव डालने वाले स्मार्टफोन में खोए रहने की आदत से दुनिया भर में अभिभावक परेशान हैं। सरकारें चिंतित हैं। नई पीढ़ी में असामाजिकता बढ़ाती इस जीवनशैली को लेकर सभी फिक्रमंद हैं। ऐसे में पड़ोसी देश चीन की इंटरनेट निगरानी संस्था द्वारा बच्चों के ज्यादा समय तक स्मार्टफोन इस्तेमाल करने पर पाबंदी लगाने से जुड़े दिशा-निर्देश विचारणीय हैं।
पिछले दिनों चीन के ‘साइबर स्पेस’ नियामक ने इस मसविदे में शामिल दिशा-निर्देश प्रकाशित किए हैं। इन नियमों के अनुसार वहां नाबालिगों को रात दस बजे से सुबह छह बजे तक मोबाइल पर इंटरनेट सेवाओं का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। वहीं सोलह से अठारह वर्ष की आयु के किशोर दिन में केवल दो घंटे इंटरनेट का उपयोग कर सकेंगे।
इस प्रारूप में शामिल निर्देशों के मुताबिक आठ से पंद्रह वर्ष की आयु के बच्चों को दिन में एक घंटे और आठ वर्ष से कम उम्र के बच्चों को केवल चालीस मिनट स्मार्टफोन के साथ बिताने की अनुमति होगी। हालांकि इन नियमों को लागू किए जाने का दिन अभी तय नहीं है, पर स्मार्टफोन के पर्दे में गुम होती नई पीढ़ी को लेकर बढ़ती चिंता के मद्देनजर यह मसौदा बेहद जरूरी है। यही वजह है कि बच्चों द्वारा स्मार्टफोन काम में लेने का समय नियत करने के लिए चीन के ‘साइबर स्पेस’ नियामक द्वारा बनाए इस मसविदे के दिशा-निर्देशों पर आमजन से सुझाव भी मांगे गए हैं।
दरअसल, बच्चों के बड़े होने की प्रक्रिया अपने आप में प्यारी यात्रा है। बच्चे परिवेश के अवलोकन, वस्तुओं के स्पर्श और आसपास की आवाजों से बहुत कुछ सीखते हैं। अपनी अनुभूतियों को बताने-जताने का पाठ पढ़ते हैं। प्रतिक्रिया देना सीखते हैं। ऐसी बातें उनके शारीरिक-मानसिक विकास के लिए आवश्यक भी हैं। देखा जाता है कि छोटे-छोटे बच्चे कहानी कविता भी अब स्मार्टफोन से सुन रहे हैं।
कार्टून चित्रों को देख कर हंसते-मुस्कराते हैं, पर अपने आसपास लोगों को देखकर डर जाते हैं। ऐसे बच्चे बोलना भी देर से सीख रहे हैं। वास्तविक मानवीय अनुभूतियों से दूर हो रहे हैं। तकनीक और मनोरंजन के अर्थ तक न समझने वाले बच्चे पर्दे पर कुछ न कुछ चलते रहने के आदी बन रहे हैं। अभिभावकों द्वारा कुछ देर बहलाने के लिए दिया जाने वाला मोबाइल एक समय के बाद मासूमों को शांत और सहज रखने के लिए लत बन जाता है।
इस आयुवर्ग से थोड़े बड़े बच्चे स्मार्टफोन का खुद इस्तेमाल करना सीख रहे हैं। उनका बहुत ज्यादा समय परदे पर व्यतीत हो रहा है। सामाजिकता और स्नेह-साथ के अर्थ समझने की इस उम्र में उनके व्यवहार में जिद और आक्रामकता घर कर रही है। स्कूली गतिविधियों में उनका मन नहीं लगता। अध्ययन बताते हैं कि मोबाइल फोन से खेलने वाले छह वर्ष की उम्र तक के बच्चों की याददाश्त कमजोर हो जाती है।
खेल-खूद, मित्रता और सामाजिक मेलजोल में कोई रुचि नहीं रहती। आत्मकेंद्रित होते बच्चों में किताबों के बजाय फोन पर ही जानकारियां खोजने की आदत बन रही है। इन व्यवहारगत समस्याओं के अलावा नजर कमजोर होना, मोटापा और हड्डियों से जुड़ी परेशानियां भी बढ़ रही हैं। वहीं किशोर आयुवर्ग में तो स्मार्टफोन के इस्तेमाल की अधिकता आपराधिक घटनाओं तक का कारण बन रही है।
किशोर स्मार्टफोन पर वीडियो बनाने और गेम खेलने में काफी समय लगा रहे हैं। सोशल मीडिया खंगाल रहे हैं। ऐसी सभी बातें विचार और व्यवहार को दिशा देने की उम्र के इस अहम पड़ाव पर दिशाहीनता ला रही हैं। साथ ही साइबर अपराध, धौंस-पट्टी, धोखाधड़ी और अनजान-अपरिचित चेहरों से जुड़े आभासी संबंधों की बदौलत अवसाद और अकेलेपन का भी शिकार बना रही है।
भारत में भी आए दिन स्मार्टफोन तक सिमटे किशोरों और बच्चों से जुड़ी दुर्घटनाओं, अपराधों, शारीरिक व्याधियों, सामाजिक जीवन से संबंधित समस्याओं और कई प्रकार की मानसिक विकृतियों के समाचार आने लगे हैं। राजस्थान के अलवर में ‘फ्री-फायर’ और ‘पब्जी’ जैसे ‘आनलाइन गेम’ खेलने के लती चौदह साल के लड़के का मानसिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया। ‘आनलाइन गेम’ खेलने की उसकी आदत धीरे-धीरे इतनी बढ़ गई कि चौबीस में से दस-बारह घंटे वह केवल गेम ही खेलता था। मोबाइल न देने पर क्रोधित होने और भोजन तक न करने वाले इस बच्चे की आंखें भी खराब हो गई हैं।
बीते साल संसद में पेश किए गए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 37.15 प्रतिशत बच्चों में स्मार्टफोन के उपयोग के कारण एकाग्रता के स्तर में कमी आई है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा मोबाइल फोन और इंटरनेट का बच्चों के शरीर, व्यवहार और मन पर पड़ने वाले असर पर हुए अध्ययन में सामने आया है कि 23.80 प्रतिशत बच्चे सोने से पहले भी स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं।
यह आंकड़ा बढ़ती आयु के साथ बढ़ता जाता है। इसीलिए चीन में ताजा निर्देशों में भी स्मार्टफोन कंपनियों से ऐसी व्यवस्था बनाने को कहा गया है, जिससे बच्चे रात में इंटरनेट का उपयोग न कर सकें। दरअसल, यह आदत अनिद्रा, बेचैनी और मानसिक व्यग्रता जैसी समस्याएं पैदा करने वाली है। इससे बनी घातक मनोस्थिति का ही परिणाम है कि मोबाइल के लिए भाई बहन पर चाकू से हमला करने, खुद को नुकसान पहुंचा लेने या किसी आपराधिक घटना में लिप्त होने की खबरें भी आती रहती हैं।
यही वजह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में पांच साल से कम उम्र के बच्चों का ‘स्क्रीन टाइम’ निर्धारित करते हुए कहा है कि पर्दे के सामने बच्चों का निर्धारित समय से ज्यादा वक्त बिताना शारीरिक और मानसिक विकास पर दुष्प्रभाव डालता है। डब्लूएचओ के दिशानिर्देशों के अनुसार एक साल से कम उम्र के बच्चों के लिए ‘जीरो स्क्रीन टाइम’ निर्धारित किया गया है।
वहीं दो, तीन और चार वर्ष के बच्चों के लिए ‘स्क्रीन टाइम’ एक घंटा निर्धारित किया गया है। इन्हीं दिनों संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में स्मार्टफोन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताई है। यूनेस्को द्वारा ‘ग्लोबल एजुकेशन मानिटरिंग रिपोर्ट-2023’ में स्कूलों में स्मार्टफोन के उपयोग को सीमित करने को कहा गया है। रिपोर्ट में बेल्जियम, स्पेन और ब्रिटेन के स्कूलों में स्मार्टफोन का उपयोग बंद करने से बच्चों का अकादमिक प्रदर्शन सुधरने की बात भी कही गई है।
विचारणीय है कि वैश्विक हों या राष्ट्रीय, नियामक संस्थाओं द्वारा बनाए गए दिशा-निर्देशों को लागू करने में अभिभावकों की भूमिका सबसे अहम है। सीमित समय के लिए स्मार्टफोन के इस्तेमाल को लेकर पारिवारिक स्तर पर बना अनुशासन सबसे ज्यादा मददगार हो सकता है। प्रौद्योगिकी के सही और सधे उपयोग का मार्ग अभिभावक ही दिखा सकते हैं। नई पीढ़ी को सामाजिक गतिविधियों की ओर प्रवृत्त करने का काम परिजन ही कर सकते हैं। अभिभावकों में भी मोबाइल फोन के इस्तेमाल को लेकर आत्मनियमन जरूरी है। स्वयं बच्चों का आदर्श बनना और परवरिश के परंपरागत रंग-ढंग से जुड़े रहना आवश्यक है।