बालमन तकनीक के जाल में बुरी तरह उलझ गया है। खेल, सूचनाएं, अध्ययन से जुड़ी सामग्री, स्कूली गतिविधियों की जानकारियां और मित्रता तक, सब कुछ बच्चे तकनीकी संसाधनों के माध्यम से ले रहे हैं। तकनीक के सीमित क्षेत्र में मासूम मन ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली है। पल-पल अवतरित होती सामग्री बालमन को बहला ही नहीं, भटका भी रही है। हर तरह के रंग लिए इस सामग्री में रमे बच्चों के मन को अब कोई हिदायत बर्दाश्त नहीं। अभिभावकों की सहज सलाह भी स्वीकार नहीं। आखिर कैसे बच्चों का मन तकनीक के तारों में इतना उलझ गया कि वास्तविकता से नाता ही टूट गया? क्यों हंसते-खिलखिलाते बच्चों के खेल भी तकनीकी दुनिया तक सिमट गए? कैसे उनका मन-मस्तिष्क आभासी संसार में इतना डूब गया कि जीवन ही पीछे छूट रहा है?
हाल ही में राजस्थान के कोटा में मां के मोबाइल फोन छीनने से व्यथित सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। मां ने बेटी को केवल इतना कहा कि कुछ पढ़ाई कर लो। फिर उसका मोबाइल छीन लिया। थोड़ी देर बाद बार-बार आवाज लगाने पर भी उत्तर नहीं मिला तो जाकर देखा, बिटिया पंखे से झूलती नजर आई। यह बेहद तकलीफदेह है कि एक अभिभावक और बच्चे की इतनी सहज-सी बातचीत भी जीवन का साथ छोड़ने की वजह बन गई। मां से मिली जरूरी समझाइश को भी बच्ची ने सकारात्मक ढंग से नहीं लिया।
विडंबना है कि बालमन पर अधिकार जमाकर बैठे तकनीकी माध्यमों ने मासूमियत ही नहीं, समझ भी छीन ली है। इनके फेर में फंसे किसी बच्चे द्वारा आत्मघाती कदम उठा लेने का यह पहला मामला नहीं है। कुछ समय पहले पंजाब के जलंधर के एक सत्रह वर्षीय बच्चे को परिवार ने ‘पब-जी गेम’ खेलने से मना किया तो उसने भी ऐसा ही कदम उठा लिया। दो महीने पहले छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में मोबाइल गेम खेलने से रोकने पर नाराज बच्चे ने इंद्रावती नदी में कूदकर अपनी जान दे दी। पिछले महीने मध्यप्रदेश के जबलपुर में मोबाइल पर गेम खेलने से रोकने पर नौवीं की छात्रा ने खुदकुशी कर ली। गौरतलब है कि इन घटनाओं में बच्चे तकनीकी माध्यमों का उपयोग भर नहीं कर रहे। उनका मन-मस्तिष्क इन खेलों को खेलने के व्यसन का शिकार हो चुका है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन आफ डिजीज’ रपट में मोबाइल गेम की लत को एक ‘डिसआर्डर’ माना है। निस्संदेह, यह मन-मस्तिष्क के अस्त-व्यस्त होने की स्थिति ही है कि बड़ों की सलाह-समझाइश मानने के बजाय बच्चे ऐसे खौफनाक कदम उठा ले रहे हैं। चिंताजनक यह भी है कि अभिभावकों के लिए बच्चों को इस मनस्थिति से बाहर निकालना बड़ी समस्या बना गया है। माता-पिता स्वयं भय में रहते हैं। यह डर बालमन की नासमझी के चलते आत्मघाती कदम उठा लेने का ही नहीं, बच्चों के आपराधिक गतिविधियों की ओर प्रवृत्त होने का भी है। आनलाइन गेम में पैसे गंवाने या ठगी का शिकार होने पर बच्चे अपराध करने से भी नहीं चूक रहे।
नई पीढ़ी के लिए सहूलियत बनने के बजाय तकनीक आत्महत्या, अपहरण और हत्या जैसे दर्दनाक वाकयों को अंजाम देने का कारण बन गई है। हमउम्र बच्चों को डराकर पैसे लेने, अपने साथियों को ब्लैकमेल करने, घर में चोरी करने, झूठ बोलने और पढ़ाई में पिछड़ने जैसी कई समस्याएं तो खेल के नाम पर आनलाइन संसार में खोए रहने के कारण ही पैदा हो रही हैं। खासकर मोबाइल पर गेम खेलने की आदत ने बालमन के हर पहलू पर दुष्प्रभाव डाला है। इतना ही नहीं, यह आभासी व्यस्तता बच्चों का स्वास्थ्य खराब कर रही है। एकाग्रता के अलावा बच्चों की बाल सुलभ रचनात्मकता भी खो रही है। खेलकूद का समय भी स्क्रीन में ताकते हुए कट रहा है। ‘गेमिंग’ की वजह से शारीरिक गतिविधियां घटी हैं। छोटे-छोटे बच्चों को मोटापा, आलस और अनिद्रा की समस्याएं घेर रही हैं।
आनलाइन गेम खेलते हुए एकटक मोबाइल स्क्रीन पर देखने के कारण मायोपिया यानी दूर की नजर कमजोर हो रही है। एम्स के चिकित्सकों के अनुसार हमारे यहां 2050 तक चालीस से पैंतालीस फीसद बच्चे मायोपिया का शिकार हो जाएंगे। इसका सबसे बड़ा कारण बच्चों का स्क्रीन समय बढ़ना है। ‘इंटरनेशनल चाइल्ड एडवोकेसी आर्गनाइजेशन’ की एक रपट कहती है कि इंटरनेट पर बहुत ज्यादा समय बिताने वाले बच्चों में सामाजिकता खत्म हो जाती है। अपराध करने और असहज मानवीय अनुभूतियों तक को समझने के बजाय दुस्साहसी कदम उठाने वाले बच्चों के बढ़ते उदाहरण इन्हीं बातों को पुख्ता करते हैं।
दरअसल, कोविड काल में तकनीक ही पढ़ाई जारी रखने का माध्यम बनी थी। सिमटी-सहमी जिंदगी के उस दौर में अभिभावकों के लिए भी बच्चों को मोबाइल उपलब्ध कराना आवश्यक हो गया था। उन दिनों आनलाइन पढ़ाई होने से बच्चों में स्मार्टफोन का चलन तो तेजी से बढ़ा, पर परिस्थितियां सामान्य होने के बाद भी बच्चे इन उपकरणों के आभासी संसार से बाहर नहीं आ पाए। बहुत से बच्चों के लिए मोबाइल जरूरत नहीं, लत बन गया। आज बिना काम के भी बच्चे चार-पांच घंटे मोबाइल देखने में लगा रहे हैं। महानगरों में ही नहीं, गांवों में भी बच्चे इसकी गिरफ्त में हैं। यह स्थिति जाने-अनजाने उन्हें कामुक सामग्री देखने से लेकर आपराधिक प्रवृत्ति अपनाने तक ले जा रही है। नतीजतन, बच्चों की दिनचर्या अब बच्चों-सी नहीं रही। खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने, हंसने-खिलखिलाने वाली मेलजोल से जुड़ी गतिविधियों से दूर आज बच्चों का संसार पूरी तरह बदल गया है।
बच्चों की इस बदलती दुनिया में अभिभावकों का समय रहते चेतना आवश्यक है। बच्चों और बड़ों के बीच नियमित संवाद जरूरी है। घर का माहौल बदलना और माता-पिता का भी स्मार्टफोन की चकाचौंध से दूर रहना सबसे पहला कदम है। मोबाइल फोन की लत के शिकार बच्चों को धीरे-धीरे संयम के साथ सहज जीवन की ओर मोड़ना होता है। देखने में आता है कि छोटे-छोटे बच्चों की जिद पर अभिभावक स्वयं ही फोन थमा देते हैं। इस तरह बच्चे को व्यस्त रखने का तरीका आगे चलकर बड़ी परेशानी बन जाता है। बीते दिनों फ्रांस में स्नायु विज्ञानी, मनोवैज्ञानिक और अन्य विशेषज्ञों की समिति की रपट में सिफारिश की गई कि बच्चों को तेरह वर्ष की उम्र तक स्मार्टफोन का इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए। साथ ही अठारह वर्ष की उम्र तक सोशल मीडिया मंचों के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगानी चाहिए। समझना मुश्किल नहीं कि तकनीक के इस जाल में उलझने से बचाने की बात हो या उलझने के बाद फिर सहज जीवन से जोड़ने का पहलू, दोनों मोर्चों पर माता-पिता का संयमित और समझ भरा बर्ताव बच्चों का जीवन सहेज सकता है। सजग-सुचिंतित प्रयासों के बजाय रोकटोक भर करने का व्यवहार कई बार भयावह हादसों का कारण बन जाता है।
नई पीढ़ी के लिए सहूलियत बनने के बजाय तकनीक आत्महत्या, अपहरण और हत्या जैसे दर्दनाक वाकयों को अंजाम देने का कारण बन गई है। हमउम्र बच्चों को डराकर पैसे लेने, अपने साथियों को ब्लैकमेल करने, घर में चोरी करने, झूठ बोलने और पढ़ाई में पिछड़ने जैसी कई समस्याएं तो खेल के नाम पर आनलाइन संसार में खोए रहने के कारण ही पैदा हो रही हैं। खासकर मोबाइल पर गेम खेलने की आदत ने बालमन के हर पहलू पर दुष्प्रभाव डाला है। इतना ही नहीं, यह आभासी व्यस्तता बच्चों का स्वास्थ्य खराब कर रही है।