शरद पवार की दाद देनी चाहिए। पहले महाराष्ट्र में विकास अघाड़ी सरकार बनवाकर असंभव को संभव किया था और अब अगले लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों की एकता के लिए वही चाणक्य की भूमिका में दिख रहे हैं। यह बात अलग है कि उनकी अपनी पार्टी एनसीपी के भीतर ही सब कुछ सामान्य और सहज नहीं है। भतीजे अजित पवार को मराठा छत्रप ने पिछले दिनों पार्टी में दो कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति कर बेशक झटका दिया था पर अजित पवार अभी भी अपने तेवर दिखाने से चूक नहीं रहे हैं। पिछले दिनों समर्थक विधायकों को लेकर उनके भाजपा में शामिल होने की मुंबई में खूब चर्चा चली थी।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शिंदे सरकार पर कोई संकट नहीं आया तो ये चर्चाएं भी कोरी अटकल बनकर रह गई। इसके बाद ही शरद पवार ने बेटी सुप्रिया सुले और पार्टी सांसद प्रफुल पटेल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। यह भतीजे के लिए परोक्ष संदेश भी था कि बेटी उनके लिए ज्यादा अहमियत रखती है। उसी तरह जैसे बाल ठाकरे ने भतीजे राज की जगह बेटे उद्धव को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

2019 में चाचा को अंधेरे में रखकर भाजपा से मिल गए अजित पवार

अजित पवार की महत्त्वाकांक्षा से कौन वाकिफ नहीं। वे 2019 में चाचा को अंधेरे में रखकर भाजपा से मिल गए थे और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली थी। इस समय वे एनसीपी विधायक दल के नेता हैं और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी। शरद पवार ने जब बेटी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था तो तभी सफाई दे दी थी कि अजित के पास दूसरे दायित्व हैं। लिहाजा उन्हें संगठन में दायित्व नहीं दिया। लेकिन, बुधवार को चाचा की मौजूदगी में ही मुंबई में पार्टी के स्थापना दिवस के एक कार्यक्रम में अजित ने अपना गुबार निकाल दिया। फरमाया कि वे विधायक दल के नेता बनने के खुद कभी इच्छुक नहीं थे। वे तो विधायकों की इच्छा के कारण बन गए थे।

अब कहा जाता है कि मैं सदन के भीतर सरकार के प्रति आक्रामक नहीं दिखता। मैं तो संगठन में काम करने का इच्छुक हूं। जो भी दायित्व मिलेगा उसे जिम्मेवारी से निभाऊंगा। इसका अर्थ यह निकाला जा रहा है कि वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनना चाहते हैं। जिस कुर्सी पर अभी जयंत पाटिल काबिज हैं। फिर तो पाटिल हटेंगे। पाटिल के भी भाजपा में जाने की अटकलें लग रही हैं। इस विवाद में छगन भुजबल भी कूद पड़े हैं। उनकी मांग है कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी ओबीसी नेता को बैठाना चाहिए। वे खुद ओबीसी ठहरे। जबकि पाटिल और अजित पवार दोनों मराठा हैं। अजित पवार की इच्छा पूरी हो, सुप्रिया सुले ने भी यह प्रतिक्रिया देने में देर नहीं लगाई।

सिरमौर महारानी वसुंधरा राजे

वसुंधरा राजे के लिए हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनावी नतीजे शुभ संकेत देने वाले साबित होते दिख रहे हैं। इन दोनों सूबों में भाजपा की हार के बाद ही वसुंधरा की पार्टी में अहमियत बढ़ी है। हालांकि अभी तक आलाकमान ने ऐसी कोई घोषणा तो नहीं की है कि नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी का मुख्यमंत्री पद का चेहरा वे होंगी। पर आलाकमान के रवैये में बदलाव से उन्हें हालात अनुकूल और बदले हुए नजर आने लगे हैं। पहले तो उनके जन्मदिन के समारोह में पार्टी के प्रभारी महासचिव का पहुंचना, फिर उनके विरोधी माने जाने वाले सतीश पुनिया की पार्टी के सूबेदार पद से छुट्टी और पार्टी की प्रचार सामग्री में उनके फोटो की वापसी जैसे पहलू इसके प्रमाण रहे।

प्रधानमंत्री की माउंट आबू की सभा में उनकी मंच पर मौजूदगी और बैठकों में बुलाए जाने से भी यही संदेश गया है। इसका दूसरा पहलू भी है। झुकना वसुंधरा को भी पड़ा है। 2014 में मुख्यमंत्री रहते वे नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह से भी नदारद थीं। अब झारखंड में केंद्र सरकार के नौ साल पूरे होने पर उन्होंने प्रधानमंत्री की तारीफ में खुलकर कसीदे पढ़े। सतीश पुनिया की जगह सूबेदारी के लिए ओम माथुर और गजेंद्र सिंह शेखावत के नामों पर विचार न कर चित्तौड़ के सांसद सीपी जोशी को सूबेदार बनाया जाना भी वसुंधरा की सहमति का ही नतीजा माना जा रहा है।

पटना में 27 दलों की बैठक, ये 2024 नहीं आसान…

पटना में 27 दलों की बैठक को महज फोटो सत्र बताकर भाजपा ने मजाक उड़ाया है। हकीकत यह है कि 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा नेतृत्व अति आत्मविश्वास का शिकार नहीं होना चाहता। इसलिए कोशिश राजग में पहले शामिल रहे दलों को फिर मनाने की चल रही है। शिवसेना के शिंदे गुट के साथ अभी कोई छेड़खानी नहीं करने का कारण भी यही है। चंद्रबाबू नायडू के साथ फिर रिश्ते सुधरे हैं। कोशिश तेलंगाना में द्रमुक के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने की हो रही है। अकाली दल को भी मनाने में जुट गए हैं भाजपा नेता।

जीतनराम मांझी को नीतीश से अलग कर राजग में लाने का कदम भी इसी रणनीति का हिस्सा है। नीतीश के दो और बागी सहयोगी आरसीपी सिंह और उपेंद्र कुशवाह पहले से ही भाजपा की कठपुतली जैसा बर्ताव कर रहे हैं। नीतीश ने धमकी दी थी कि वे अकेले बिहार से भाजपा को 20 लोकसभा सीटों की चपत लगा देंगे। भाजपा ने अपनी तरफ से तो नीतीश को पैगाम भेज ही दिया है कि दूसरे दलों को साथ लाने से पहले वे कम से कम अपना घर तो ठीक रख लें।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)