बढ़ते वैश्विक तापमान की वजह से इस वर्ष भी पूरा देश भीषण गर्मी और लू से झुलस रहा है। लू का समय और उसका प्रसार बढ़ रहा है। धरती के औसत ताप में वृद्धि थम नहीं रही है। बढ़ती गर्मी के प्रकोप से दुनिया भर में हर वर्ष करीब 1.53 लाख लोगों की मौत हो जाती है और यह आंकड़ा दिनोंदिन बढ़ रहा है। इसमें यह भी एक कटु यथार्थ है कि बीस फीसद मौतें अकेले भारत में होती हैं, जो सबसे ज्यादा हैं। भारतीय महिलाओं पर इसका असर बहुत गहरा है। उनके साथ विडंबना यह है कि वे खाना भी पका रही हैं, दूसरी तरफ संसाधन भी जुटा रही हैं। शहरी और शिक्षित महिलाओं की स्थिति विगत कुछ वर्षों में थोड़ी संतोषजनक हुई है, पर जलवायु परिवर्तन के कारण फसल उत्पादन में गिरावट, अनियमित वर्षा, सूखा, और बाढ़ जैसी समस्याएं बढ़ने से ग्रामीण महिलाओं की आजीविका पर गहरा असर पड़ा है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ‘अनजस्ट क्लाइमेट’ रपट एक कड़वी सच्चाई उजागर करती है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों (एलएमआइसी) में हर साल ग्रामीण क्षेत्रों में परिवारों की महिलाओं को पुरुषों की तुलना में काफी अधिक वित्तीय नुकसान उठाना पड़ता है। रपट के मुताबिक यदि औसत तापमान में केवल एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, तो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कुल आय में 34 फीसद अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा। आज जब भारतीय परिप्रेक्ष्य पर ध्यान जाता है, तो उत्तर भारतीय राज्यों मसलन बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि के पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में गांव छोड़ कर दूसरे शहर या राज्य में चले गए हैं और कृषि जैसे मुख्य कार्य की कई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी पहले से ही संसाधन जुटा रही महिलाओं के मत्थे आ पड़ी है। आज जब गांवों से दिहाड़ी मजदूर के रूप में पुरुष पलायन कर चुके हैं, तब फसलों की बुआई, निराई-गुड़ाई, कटाई, फसल को खलिहान तक ले जाना, घास सुखाने, खरपतवार उखाड़ने जैसे शारीरिक काम मुख्य रूप से महिलाएं ही करती हैं।
लू चलने की वजह से मई-जून के महीने में उत्तर भारत के कई राज्यों से लोगों की मौत की खबरें आईं। विडंबना है कि ग्रामीण महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा चुपचाप गर्मी की इस आग में झुलस रहा है। मगर लू के थपेड़ों की वजह से खराब तबियत इन महिलाओं को नियमित कार्य नहीं करने दे रही है और उनके काम के घंटों में कमी हो रही है, जिसकी वजह से आमदनी में गिरावट हो रही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भारत के संबंध में एक अनुमान लगाया है कि 2030 तक गर्मी की वजह से हम अपने कुल काम के घंटों का लगभग छह फीसद खो देंगे। श्रम और रोजगार मंत्रालय की 2023 की वार्षिक रपट बताती है कि आज कृषि क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी 41 फीसद है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रमुख फसलों जैसे धान, गेहूं आदि उगाने में महिलाओं का योगदान 75 फीसद तक है, वहीं बागवानी क्षेत्र में 79 फीसद और फसल कटाई के बाद खेतों को तैयार करने में महिलाओं का योगदान 51 फीसद है। महिलाओं को कृषि के बारीक काम में महारत हासिल है, जैसे धान की रोपनी, खेत की निराई-गुड़ाई, बागवानी आदि।
भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं ही प्राय: पानी लाने का काम करती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण पानी के स्रोत सूख रहे हैं और पानी की कमी बढ़ रही है। इससे महिलाओं को लंबी दूरी से और अधिक जद्दोजहद से पानी का जुगाड़ करना पड़ रहा है, उसमें टैंकर से पानी लेने के लिए लंबी कतार में लगना भी शामिल है। हमारे देश के करीब 51 फीसद बच्चे गरीबी और जलवायु संकट की दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत के करीब 35.2 करोड़ बच्चे वर्ष में एक प्राकृतिक आपदा का सामना जरूर करते हैं। पानी लाने और घर के अन्य कार्यों में अधिक समय लगाने के कारण लड़कियों की शिक्षा पर भी असर पड़ता है। इससे उनकी शिक्षा में रुकावट आती है और वे उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं में विस्थापन के कारण महिलाओं को न केवल नई जगहों पर जाकर बसना पड़ता है, बल्कि उन्हें सामाजिक असुरक्षा और हिंसा का भी सामना करना पड़ रहा है। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान और बाद में सामाजिक रूप से महिलाओं के खिलाफ हालात बनते हैं।
जलवायु परिवर्तन का भारतीय महिलाओं पर गहरा और बहुआयामी प्रभाव पड़ रहा है। बढ़ते तापमान और बदलते मौसमी रुझान के कारण स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं। मसलन, गर्मी के कारण लू लगने, मलेरिया, और डेंगू जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ता है, जो महिलाओं को विशेष रूप से प्रभावित करता है। वायु प्रदूषण के कारण हवा की गुणवत्ता खराब हो गई है। जिसका सीधा प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है, साथ ही रसोई में काम करनेवाली स्त्रियों के स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष असर पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार की ‘पानी के अधिकार’ शीर्षक रपट बताती है कि महिलाओं को रोजाना चार घंटे तक पानी से जुड़े कामों में बिताना पड़ता है; मसलन बर्तन, चौका, कपड़े धोना, साफ-सफाई आदि। इससे उनकी सेहत पर पानी से होने वाली बीमारियों का असर पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकट के समाधान के लिए आवश्यक है कि नीतियों में महिलाओं की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाए और उन्हें नीति निर्माण में शामिल किया जाए। लू और पानी के संकट का महिलाओं पर असर को कम करने के लिए जल-प्रबंधन और जलवायु सामर्थ्य से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में भागीदारी सुनिश्चित की जाए। भारत सरकार कि नल जल योजना सैद्धांतिक रूप से एक जरूरी प्रकल्प है, ताकि साफ पानी घर-घर तक पहुंचे। महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक स्थिरता को सुनिश्चित करना भी उतना ही आवश्यक है, ताकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर के लिए व्यक्तिगत और समाज के स्तर पर महिलाएं खुद को तैयार और अपने समुदायों की सहायता कर सकें।
विडंबना है कि भारत में मौजूदा ‘हीट एक्शन प्लान’ स्थानीय जरूरतों को नजरअंदाज कर बनाया जाता है, जो महिलाओं और बच्चों की जरूरतों को पूर्ण करने में नाकाम रहती है। भारत में गर्मी से होने वाले नुकसान प्राकृतिक आपदा में शामिल नहीं हैं। गर्मी से निपटने के लिए प्रभावी कार्य योजना (हीट एक्शन प्लान) और जल प्रबंधन की रणनीतियां राज्य, शहर और गांव के स्तर पर जरूरी है, जो महिलाओं की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकतीं। समय की जरूरत है कि न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की असमान मार झेलती महिलाओं को नीतिगत सहयोग मिले, बल्कि कार्यान्वयन में उनकी महती सहभागिता सुनिश्चित हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि सृजन और निर्माण करने वाली स्त्रियां अपने परिवार और बच्चों की तरह इस बेहाल धरती को ठीक से सहेज सकती हैं।