अमेरिका में कृषि का स्वरूप व्यावसायिक है, जबकि भारत में अधिकतर लोगों का जीवन निर्वाह खेती और गहन निर्यात पर निर्भर करता है। यह लाखों छोटे भारतीय किसानों की आजीविका बनाम अमेरिकी कृषि व्यवसाय के हितों का सवाल है। भारतीय किसान पिछले चार वर्षों से फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी के लिए और बाजारों तथा उनकी जमीन पर कारपोरेट नियंत्रण के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अमेरिका द्वारा पारस्परिक शुल्क लागू करना हमारी कृषि के लिए एक गंभीर झटका होगा।
भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह सिर्फ व्यापारिक चुनौती नहीं, बल्कि कृषि क्षेत्र की स्थिरता और किसानों की आजीविका पर सीधा प्रहार है। रिसर्च थिंक टैंक, जीटीआरआइ (वैश्विक व्यापार अनुसंधान पहल) के अनुसार भारत अमेरिकी शुल्क से गंभीर रूप से प्रभावित होगा। अमेरिका के साथ कृषि व्यापार में अधिशेष के बावजूद, कृषि, परिधान, आटोमोबाइल, गाड़ियों के पुर्जे, आभूषण और अन्य छोटे तथा मध्यम उद्योगों पर अमेरिका की नई व्यापार नीति से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कृषि व्यापार सिर्फ आठ अरब डालर का है, जिसमें अमेरिका को व्यापार घाटा हो रहा है।
भारत मुख्य रूप से चावल, झींगा, शहद, वनस्पति अर्क, अरंडी का तेल और काली मिर्च निर्यात करता है, जबकि अमेरिका बादाम, अखरोट, पिस्ता, सेब और दाल निर्यात करता है। नए पारस्परिक शुल्क के तहत हमें गेहूं, मक्का, दालें, मांस, दुग्ध उत्पाद और कई अन्य चीजें आयात करनी पड़ेंगी, जो किसानों की आजीविका तथा देश की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है, मगर अमेरिका का 38.29 फीसद शुल्क लागू होने से 600 रुपए कीमत वाला देसी घी 760 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा और यह बढ़ी हुई 160 रुपए कीमत सीधे अमेरिकी कृषि व्यवसायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास जाएगी।
अमेरिका में एक कुंतल गेहूं के उत्पादन की लागत 1700 रुपए है, जबकि भारत सरकार द्वारा एक कुंतल गेहूं का घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 2425 रुपए है। स्पष्ट है, भारतीय किसान लागत में अमेरिकी किसान का मुकाबला नहीं कर सकता। भारत में किसानों के पास औसतन एक हेक्टेयर से कम जमीन है। अगर गेहूं और धान के घरेलू बाजार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिए जाएं तो भारतीय किसान की क्या स्थिति होगी, कहना बहुत मुश्किल है।
व्यापार शुल्क दरअसल, समृद्ध पश्चिमी देशों के पक्ष में मूल्य असंतुलन को दूर करने का हथियार है। व्यापार शुल्क में कोई भी वृद्धि भारतीय निर्यात को अमेरिका में कम प्रतिस्पर्धी बना देगी। डोनाल्ड ट्रंप की पारस्परिक शुल्क नीति से भारतीय कृषि उत्पाद, समुद्री खाद्य और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ अमेरिका में 31 फीसद अधिक महंगे हो जाएंगे। इससे अमेरिकी उपभोक्ता महंगे भारतीय खाद्य पदार्थ के मुकाबले सस्ते वैकल्पिक उत्पादों को वरीयता देंगे। दूसरी तरफ, अमेरिका भारत के साथ अपने 45 अरब डालर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए प्रमुख कृषि निर्यात- गेहूं, कपास, मक्का, सोया और मांस को भारत में निर्यात करने की योजना बना रहा है। अमेरिका का भारत को कृषि सबसिडी कम करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने और आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों, अमेरिकी मक्खन, मांस और दुग्ध उत्पाद के लिए भारतीय बाजार खोलने का सुझाव देना, वैश्विक कृषि में विषमता की अनदेखी करता है।
भारत और अन्य विकासशील देशों को विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ द्वारा कुछ फसलों में रियायत और सबसिडी दी गई थी, ताकि विकासशील देशों में घरेलू किसानों को विकसित देशों द्वारा फसल आयात की ‘डंपिंग’ से बचाया जा सके। मसलन, भारत कपास की प्रति एकड़ फसल के लिए आठ फीसद (8000 रुपए) तक की सबसिडी देता है। यह सिलसिला पिछले तीन दशक से जारी है। मगर ट्रंप की पारस्परिक शुल्क नीति के कारण डब्लूटीओ अप्रसांगिक हो गया है। भारत कपास, दूध, चावल, गन्ना और अन्य कृषि उत्पादों का अव्वल उत्पादक बनकर उभरा है। मगर नए पारस्परिक शुल्कों के कारण हमें कपास, गेहूं, मक्का, डेयरी तथा अन्य उत्पादों को भी अमेरिका से आयात करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। वनस्पति तेल में भी ऐसा ही है।
सन 1990 तक भारत तिलहन में आत्मनिर्भर था, मगर आयात करों में भारी कमी करके हमें अन्य डब्लूटीओ देशों से वनस्पति तेल आयात करने पर मजबूर होना पड़ा। आयातित सस्ते ताड़, सूरजमुखी और अन्य तेलों की ‘डंपिंग’ ने हमारे किसानों के लिए तिलहन की खेती को अलाभकारी बना दिया, और किसानों ने तिलहन की खेती छोड़ दी। इससे वनस्पति तेलों की भारी कमी हो गई और सरकार को वर्तमान में प्रति वर्ष, 16 अरब डालर का नुकसान वनस्पति तेल के आयात के कारण हो रहा है।
डर है कि मक्का, ज्वार और दालों के मामले में भी यही स्थिति हो सकती है, जो हमारे शुष्क भूमि वाले छोटे किसानों की खेती के लिए जीवन रेखा है। भविष्य में यह स्थिति, अमेरिका से सस्ते चावल, कपास, गेहूं और दुग्ध उत्पाद की ‘डंपिंग’ करने से हो सकती है और उक्त उत्पादों में भारतीय किसान अपनी फसल की लागत भी निकालने में सफल नहीं होंगे। वे बर्बादी के कगार पर पहुंचने लगेंगे, क्योंकि भारत में किसान पहले से कर्ज और फसल की वाजिब कीमत न मिलने से आत्महत्या कर रहे हैं।
इसलिए यह मसला लाखों छोटे भारतीय किसानों की आजीविका बनाम अमेरिकी कृषि व्यवसाय के हितों का है। कई हजार बड़े किसानों के साथ अमेरिकी कृषि व्यावसायिक है, जबकि भारत में 85 फीसद छोटे किसान अपनी आजीविका के लिए टिकाऊ खेती करते हैं। अमेरिकी किसानों को सभी फसलों के लिए सरकार द्वारा भारी सबसिडी दी जाती है, जबकि भारतीय किसान को खेती के खर्च पर आठ फीसद से कम सबसिडी मिलती है। इस विषमता को ध्यान में रखते हुए कृषि व्यापार में भारतीय किसान समान भागीदार नहीं हो सकता। इस तरह भारतीय किसानों पर समान पारस्परिक शुल्क नहीं लागू किया जाना चाहिए।
इस परिस्थिति से निपटने के लिए भारत की रणनीति अत्यंत सूझ-बूझ की होनी चाहिए। हमें अमेरिकी ‘डंपिंग’ से भारतीय किसानों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजा देने के साथ कम शुल्क की भी बात करनी चाहिए। अमेरिकी शुल्क के विरुद्ध खड़े होने के लिए यूरोपीय संघ और ब्रिक्स देशों के साथ मोर्चा बनाना, द्विपक्षीय व्यापार की पहल करनी चाहिए तथा विश्व बाजार में भारतीय कृषि को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने, उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि अनुसंधान एवं खाद्य प्रसंस्करण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
यह भी हकीकत है कि कृषि प्रधान देश होने के बावजूद हमारी फसल उत्पादकता दुनिया के अन्य प्रमुख देशों के औसत से काफी पीछे है। ऐसे में अब भारत को न केवल अपने किसानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना होगा, बल्कि एक ऐसी नीति बनानी होगी, जो व्यापारिक उतार-चढ़ाव के बीच भी उसकी स्थिरता सुनिश्चित कर सके।