भारतीय संस्कृति में गुरुजनों और वरिष्ठ नागरिकों का हमेशा से सम्मान किया जाता रहा है। यह व्यक्ति को बचपन से ही घुट्टी में पिला दिया जाता रहा है। मगर जमाने ने अपने तेवर कुछ यों बदले, आधुनिकता का एक नया सैलाब कुछ यों उमड़ा कि वृद्धजन उसमें कहीं पीछे रह गए। जिस प्रकार की आर्थिक मंदहाली खेती से लेकर उद्योगों तक बार-बार दस्तक देने लगती है, उससे यह भी लगता है कि देश के युवा भी असमय बूढ़े हो जाएंगे। अभी ‘गैलप’ द्वारा दुनिया में खुशहाली का एक सर्वेक्षण आया है। उसमें फिनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल देश है। भारत में युवा सबसे ज्यादा दुखी हैं।

खुशहाली और जीवन संतोष के मामले में भारत 126वें स्थान पर

खुशहाली और जीवन संतोष के मामले में भारत दुनिया के 143 देशों में से 126वें स्थान पर है। यहां मध्यम आयुवर्ग के लोग तो फिर भी संतुष्ट हैं, लेकिन न तीस साल से कम उम्र के युवा खुश हैं और न देश के वरिष्ठ नागरिक व्यवस्थित ढंग से जीवन जी पा रहे हैं। बेशक एलएसआइ (एजिंग स्टडी इन इंडिया) का एक सर्वेक्षण कहता हो कि देश में 96 फीसद बुजुर्गों से दुर्व्यवहार नहीं होता और 98 फीसद बुजुर्ग अपने जीवन से संतुष्ट हैं। ऐसा विरोधाभास क्यों? शायद इसलिए कि हमारे देश के बुजुर्गों को अध्यात्म, धर्म और संतोष का सहारा मिल जाता है। यह विडंबना जाहिर है कि भारत के 74 फीसद बुजुर्ग आज शारीरिक रूप से सक्रिय हैं। देश की औसत आयु में भी आठ वर्ष की वृद्धि हो गई है, लेकिन 79 फीसद के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है।

विश्व की आर्थिक शक्ति के रूप में भारत पांचवें स्थान पर आया

देश के बुजुर्गों की बात करें तो कोविड महामारी के बाद जब बंदी हटी तो उम्मीद थी कि उत्पादन और निवेश में वृद्धि होगी। बेकार हो गए लोगों को काम मिलेगा। भुखमरी से लेकर बीमारी तक से छुटकारा मिल जाएगा। जो आंकड़े सामने आ रहे थे वे भी आश्वस्त करते थे कि पिछले दशक में भारत विश्व की आर्थिक शक्ति के रूप में दसवें से पांचवें स्थान तक आ गया। दो-तीन वर्षों में तीसरे स्थान तक पहुंचने को है। मगर शिकायत थी कि देश के वरिष्ठ नागरिकों को वह सब नहीं मिल पा रहा, जो खुशहाल भारत में उन्हें मिलना चाहिए। बीमारियां भी वृद्धों को घेरती हैं। सरकार ने आयुष्मान योजना तो शुरू कर दी, लेकिन उसमें पांच लाख रुपए वार्षिक आय तक की सीमा रेखा ने बहुत से वृद्धों को इस सुविधा से बाहर कर दिया।

मगर अब भाजपा के चुनावी संकल्प पत्र में वृद्धों की भी यथोचित सुध ली गई है। एक मानवीय फैसले में कहा गया है कि अब देश के सत्तर से अधिक आयु के सभी बुजुर्गों का मुफ्त इलाज होगा। यानी, जो भी इस उम्र से ऊपर के बुजुर्ग हैं, जिनकी संख्या औसत आयु बढ़ने के कारण बढ़ रही है, बेइलाज नहीं रहेंगे। चाहे बदलते हुए भौतिक मूल्यों के कारण उनके नाते-रिश्तेदार उनकी परवाह करें या न करें।

वंचितों के लिए आयुष्मान चिकित्सा योजना तो पहले से शुरू है, लेकिन अब इसमें वृद्धजनों की स्पष्ट परवाह उनके संतोष और उनकी खुशी में वृद्धि कर सकती है और वे आने वाले समय में अपने आप को संरक्षित महसूस कर सकते हैं। मगर ऐसा माहौल भारत में बन जाएगा, इसके बारे में प्राचीन संस्कृति की तलाश में जुटे भारत के लिए एक चिंतनीय बात है। अगर विश्व के परिप्रेक्ष्य में भारत के वृद्धों को देखें तो पाते हैं कि चाहे भारत के तीन-चौथाई बुजुर्ग शारीरिक रूप से सक्रिय हैं, जैसा कि ‘एजिंग स्टडी इन इंडिया’ भी बताती है, लेकिन उनके उचित इस्तेमाल के बारे में भारतीय अर्थव्यवस्था में सही दृष्टिकोण नहीं अपनाया जाता। विश्व में तो बहुत से देशों में जब तक वृद्ध शारीरिक रूप से सक्षम, बौद्धिक रूप से चैतन्य हैं, तो उनका इस्तेमाल देश की अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिक मूल्यों की बेहतर स्थापना के लिए किया जाता है।

अमेरिका में इस बार भी जो दो उम्मीदवार राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की दौड़ में हैं, उनकी आयु अस्सी के आसपास हैं। लेकिन भारत में तो अट्ठावन वर्ष की आयु में लोग सेवानिवृत्त किए जाते हैं। देश की बेकारी का समाधान भी इसी में ढूंढ़ा जा रहा है कि सेवानिवृत्ति की इस आयु को और घटा दिया जाए। इस तरह बहुत सारे सक्रिय लोग, जो देश के विकास कार्यों में अपना बौद्धिक और शरीरिक योगदान देकर अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने में मदद कर सकते हैं, उन्हें निष्क्रिय बना कर बिठा दिया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में यूजीसी ने केंद्रीय स्तर पर अध्यापकों की सेवानिवृत्ति की आयु पैंसठ वर्ष तक कर दी, लेकिन पंजाब सहित कई राज्यों में यह नियम लागू नहीं होता। न्यायालयों से सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तो अनेक जांचों आदि में समाहित कर लिया जाता है, मगर सामान्य नौकरियों से मुक्त हुए लोग हाथ पर हाथ धरे बैठने को विवश होते हैं।

समाजचेत्ता कहते हैं कि देश के सही निर्देश में उचित योगदान के लिए अगर वृद्धों की सेवानिवृत्ति की आयु भी बढ़ा दी जाए तो शायद उनके योगदान से एक ओर तो समाज को सही दशा-दिशा मिल जाए और दूसरी ओर सेवानिवृत्त कर्मचारी संघों द्वारा अलग-अलग राज्यों में ‘ओल्ड एज पेंशन’ और नई पेंशन में से चयन के विद्रोही स्वरों को भी कोई मुक्ति का मार्ग मिल जाएगा। अब कहा जा सकता है कि मौजूदा संकल्प पत्र में तो युवा, महिला, किसान, गरीब के साथ वरिष्ठ नागरिकों की यथोचित परवाह करने का वादा किया गया है। बेशक यह वादा पूरा होना चाहिए। युवाओं को रोजगार मिले, अनुदान या अनुकंपा का आसरा नहीं। महिलाओं को आरक्षण के वादे स्थगित या लंबित न हों, किसानों को उनकी मेहनत का मूल्य मिले और गरीब या वंचित अमीरों के साथ भौतिक वस्तुएं प्राप्त करने की दौड़ में इतना न पिछड़ जाए कि देश के दस फीसद समर्थ वर्ग के पास तो नब्बे फीसद संपदा हो जाए और नब्बे फीसद वंचित वर्ग के पास केवल दस फीसद संपदा का सहारा।

पचास फीसद महिलाएं ऐसी हैं, जो भुगतान के बिना अपनी सेवाएं देती हैं, चाहे घर में दें या बाहर। किसानों का एक वर्ग भरपूर मेहनत के बावजूद कृषि की निवल आय में वृद्धि नहीं कर पाता, क्योंकि वे छिपे हुए बेरोजगार हैं, उन्हें कृषि फसलों के विनिर्माण की ओर मोड़ देना चाहिए। लघु और कुटीर उद्योग उनकी आय में योगदान का सहारा दें। इसी प्रकार अगर वृद्धजनों की योग्यता का भी पूरा इस्तेमाल किया जाए तो देश को एक सार्थक रास्ता मिल सकता है। उसका सत्य की पहचान से विचलित होने का डर कम हो जाएगा।

जिस नैतिकता या सामाजिक मूल्यों की स्थापना की घोषणाएं आजकल फिर होने लगी हैं, अगर उसके ध्वजवाहक वे बुजुर्ग रहें, जिन्हें भारतीय आदर्शों का भली-भांति पता है, तो कोई कारण नहीं कि वृद्धों को एक उपेक्षित वर्ग की तरह भारत में जीने का दुर्भाग्य मिले कि उन्हें अपने नाते-रिश्तेदार तो संभालने के लिए तैयार नहीं और वृद्धाश्रमों की स्थापना का भी रिवाज नहीं होगा। अगर यह संकल्प उभरता है, तो युवा वर्ग, महिलाओं, किसानों और वंचितों के साथ उपेक्षित पर योग्य वृद्धों को भी फालतू सामान की तरह निष्कासित नहीं किया जाएगा, बल्कि उन्हें भी उचित उपचार के साथ उनकी सेहत की संभाल करते हुए देश के लिए सक्रिय नागरिक बना दिया जाएगा।