हर साल लाखों भारतीय विद्यार्थी विदेशी विश्वविद्यालयों में दाखिले की होड़ में शामिल होते हैं। इनमें से ज्यादातर का सपना विदेश में पढ़ाई कर वहीं बस जाने का होता है। मगर ये सपने किस अंजाम तक पहुंच रहे हैं, इसके असंख्य उदाहरण अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि मुल्कों से लगातार मिल रहे हैं। कनाडा से ताजा सूचना है कि हमारे सैकड़ों छात्रों ने फर्जी एजंटों के जाल में फंस कर ऐसे विश्वविद्यालयों में दाखिला ले लिया है, जिनकी डिग्री की कोई विशेष मान्यता कनाडा तक में नहीं है।

खुद कनाडा सरकार ने माना है कि बीते कुछ वर्षों में वहां के कई शिक्षण संस्थानों ने पैसा कमाने के इरादे से जरूरत से ज्यादा विदेशी छात्रों को दाखिला दिया है। हालात से निपटने के लिए इस साल की शुरुआत में कनाडा सरकार ने जनवरी से अगले दो साल के लिए विदेशी छात्रों की संख्या में कटौती करने की घोषणा की है।

भारतीय अभिभावक हर वर्ष शिक्षा पर छह से सात अरब डालर खर्च करते हैं

वैसे तो भारत में भी अच्छी शिक्षा लगातार महंगी हो रही है। बहुत सारे लोगों के लिए निजी स्कूल-कालेजों में शिक्षा का खर्च उठाना भारी पड़ने लगा है। मगर इसका एक विरोधाभास यह है कि लोग अपने बच्चों को विदेशी डिग्री के लिए बाहर भेजना पसंद करते हैं। इसके वास्ते समान डिग्री या पाठ्यक्रम के लिए दस गुना ज्यादा खर्च खुशी-खुशी उठाने को तैयार हैं। कुछ वर्ष पहले ‘एसोचैम’ ने टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज के साथ मिलकर एक सर्वेक्षण के आधार पर ‘रीअलाइनिंग स्किलिंग टुवर्ड्स मेक इन इंडिया’ नामक रपट तैयार की थी। उसमें बताया गया था कि भारतीय अभिभावक हर साल अपने बच्चों की शिक्षा पर छह से सात अरब डालर खर्च करते हैं।

आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका में औसतन 15 से 50 हजार डालर वार्षिक खर्च है

एक अध्ययन के मुताबिक आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका जाकर स्नातक स्तर की पढ़ाई में औसतन 15 हजार अमेरिकी डालर से लेकर 50 हजार अमेरिकी डालर का वार्षिक खर्च छात्रों को उठाना पड़ता है। इसके अलावा वहां रहन-सहन के अन्य खर्चे अलग होते हैं, जिसे वहन करने के लिए छात्र कोई न कोई काम करते हैं। इसके मुकाबले भारत में शिक्षा काफी सस्ती है। वर्ष 2013 में एक अंतरराष्ट्रीय बैंक द्वारा कराए गए सर्वेक्षण- ‘द वैल्यू आफ एजुकेशन: स्प्रिंगबोर्ड फार सक्सेस’ के अनुसार ‘अंडरग्रेजुएट कोर्स’ के लिए भारत में बाहर से पढ़ने आए छात्र का फीस और रहने-खाने का वार्षिक औसत खर्च 5643 डालर है, जिसमें से महज 581 डालर फीस के रूप में चुकाए जाते हैं। इसके विपरीत, आस्ट्रेलिया में यह खर्च 42,093 डालर, सिंगापुर में 39,229 डालर, अमेरिका में 36,565 डालर और ब्रिटेन में 35,045 डालर वार्षिक होता है।

‘वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ में टॉप 200 में नहीं है एक भी भारतीय विश्वविद्यालय

पंद्रह देशों में 4500 अभिभावकों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात भी निकलकर सामने आई थी कि भारत में भले सबसे सस्ती उच्च शिक्षा मिल रही हो, लेकिन 62 फीसद भारतीय अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा और सिंगापुर भेजने को अहमियत देते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं, इसका एक जवाब ब्रिटिश कंपनी- ‘क्यूएस’ (क्वैकुरेली साइमंड्स लिमिटेड) द्वारा प्रकाशित ‘वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ में दिया गया। इस ‘रैंकिंग’ में शामिल पहले 200 विश्वविद्यालयों में से एक भी भारतीय नहीं था। आइआइटी मुंबई इस सूची में 222वें स्थान पर थी, जबकि आइआइटी दिल्ली 235वें स्थान पर।

फिर विदेशी शिक्षा के जादू में और भी बहुत कुछ ऐसा है, जो दुनिया भर के छात्रों को अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया की ओर खींच रहा है, जिसके बल पर वहां एक शानदार शिक्षा उद्योग बन गया है। एक उदाहरण अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था से लिया जा सकता है। अमेरिका में कानून और चिकित्सा- दो ऐसे पेशे हैं जिनमें भरपूर कमाई की संभावना होती है। वहां कानून की मुकम्मल पढ़ाई में सात से आठ वर्ष लग जाते हैं और मेडिकल की पढ़ाई कर डाक्टर बनने में ग्यारह वर्ष लगते हैं। इसमें भारतीय मुद्रा के हिसाब से एक से डेढ़ करोड़ रुपए खर्च होता है।

इन दोनों पाठ्यक्रमों के लिए येल, हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड की गणना सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में होती है। मगर इतनी महंगी शिक्षा के बावजूद ऐसा नहीं कि अमेरिकी या ब्रिटिश अभिभावक अपने बच्चे को मेडिकल या एमआइटी से स्नातक कराने के लिए अपना घर-बार या कारोबार दांव पर लगा दें या बैंकों से कठिन शर्तों पर कर्ज लें। अमेरिका में बच्चों की स्कूली शिक्षा की नींव को भी काफी मजबूत बनाया जाता है। प्राइमरी से लेकर हाई स्कूल तक की शिक्षा मुफ्त होती है। हालांकि वहां के सरकारी यानी काउंटी स्कूलों के साथ-साथ वहां भी प्राइवेट स्कूल हैं, जो अपेक्षाकृत महंगे होते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि काउंटी स्कूलों से निकला बच्चा प्राइवेट स्कूल के बच्चे से किसी मामले में उन्नीस साबित हो।

यह भी ध्यान रखना होगा कि विदेशी छात्रों के लिए अमेरिका, सिंगापुर और आस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा का तंत्र एक उद्योग का रूप ले चुका है। चीन और भारत से करीब चार-पांच लाख युवा हर वर्ष वहां उच्च शिक्षा के लिए पहुंचते हैं। दूसरे देशों से भी बड़ी तादाद में छात्र वहां जाते हैं। इससे अकेले अमेरिका को हर वर्ष 25-30 अरब डालर की कमाई हो जाती है। इसके उलट भारत में सरकारी मदद के भरोसे चल रहे आइआइटी, आइआइएम या मेडिकल कालेज ढांचागत सुविधाओं में अपेक्षित सुधार करने की बजाय न्यूनतम सुविधाओं और सामान्य वेतनमान पर न्यूनतम फैकल्टी से काम चलाने को विवश हैं। अपने देश में निजी कालेजों में तो और भी खराब नजारे दिखाई पड़ते हैं, जहां तदर्थ फैकल्टी के बल पर बड़े-बड़े पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

यों देश में फिलहाल करीब चार सौ विश्वविद्यालय और लगभग बीस हजार उच्च शिक्षण संस्थान हैं। इनमें सात लाख से ज्यादा प्राध्यापक कार्यरत हैं। मोटे तौर पर इन शिक्षण संस्थानों में डेढ़ करोड़ से ज्यादा छात्र पढ़ाई करते हैं। पर यह तथ्य हैरान करने वाला है कि इनमें से कोई भी विश्वविद्यालय उस स्तर की शिक्षा क्यों नहीं दे पा रहा है, जिसके बल पर उसे दुनिया के अव्वल सौ विश्वविद्यालयों में शामिल किया जा सके।

अच्छी शिक्षा के इसी अकाल का अंजाम है कि विदेशी विश्वविद्यालयों की उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने के लिए हर साल भारत से डेढ़ से पौने दो लाख छात्र विदेश चले जाते हैं। बेहद कमजोर हो चुके रुपए के मद्देनजर यह और भी जरूरी लगने लगा है कि या तो छात्रों को देशी विश्वविद्यालय ही कायदे की शिक्षा देने का इंतजाम करें, अन्यथा देश में ही विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर खुलें, जिनके जरिए विदेशी डिग्री पाने का सपना थोड़े सस्ते में पूरा हो सके। जब देश में ही विदेशी परिसर मौजूद रहेंगे, तो इससे विदेशी शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च में कटौती से लेकर वे सारे फायदे हो सकेंगे, जिनके लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत लाने की वकालत होती रही है।