कुदरत के जब-तब दिखते विध्वसंक रूप के लिए जिम्मेदार हम ही हैं। बाढ़, बारिश पहले भी होती थी, लेकिन तब तबाही का ऐसा मंजर नहीं था। हमने यह क्यों नहीं सोचा कि जिससे हमारा अस्तित्व है, जिसके कारण हम पृथ्वी पर जीवन की सारी गतिविधियां कर पाते हैं, उसकी भी तो कुछ आवश्यकताएं होंगी। बस, इसी अनदेखी, लापरवाही, चूक या स्वार्थ का खमियाजा आज हम भुगत रहे हैं। प्रकृति हमें सिर्फ देती है, लेती कुछ नहीं। उसके मौन का हमने इतना अनुचित लाभ उठाया और उठाते चले जा रहे हैं कि उचित-अनुचित का ध्यान ही नहीं रहा। हमने कभी चिंता नहीं की कि पहाड़, नदी-नाले, जल-जंगल, धरती-आसमान की भी तो जरूरतें होंगी। हमने ही मजबूर किया तो रुष्ट प्रकृति कुपित होकर स्वयं अपना उपचार कर रही है। यह क्रिया सतत चल रही है।
पहाड़, जंगल, नदियां प्रकृति के आभूषण हैं
मानव ने सभ्यता और कथित विकास का मुखौटा क्या ओढ़ा, अपनी प्रगति की इकाइयां तय कीं, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग स्वार्थ के लिए करना शुरू किया और विकास का छलावा देकर, धरती, नदियों, जंगल, पहाड़ से लेकर आसमान तक के विरूपण का हथकंडा क्या अपनाया, प्रकृति अपना संतुलन खो बैठी। हम भूल बैठे कि जिस तरह हम रोज शृंगार करते हैं, तरोताजा रहने के लिए अनेक गतिविधियां करते हैं, प्रकृति की भी तो वही जरूरत है। पहाड़, जंगल, नदियां इसके आभूषण हैं।
पहाड़, नदियां, जंगल और स्वच्छ आसमान ही संरक्षक हैं
मानव सभ्यता या विकास के नित नए सोपान चढ़ते हुए हम कैसे भूलते चले गए कि पहाड़, नदियां, जंगल और स्वच्छ आसमान ही हमारे जीवन के संरक्षक हैं। इन्हें ही हम समाप्त करने पर तुल गए हैं। भला कुदरत क्यों न कुपित हो? इसी अनदेखी या ज्यादती की कीमत, आज समूची मानवता किसी न किसी रूप में चुका रही है। हमारी बड़ी भूल है कि जिसे हम प्रकृति का विद्रूप समझते हैं, वास्तव में वह उसका तांडव और क्रंदन है।
बीते कुछ वर्षों में उत्तराखंड के दोनों मंडलों में काफी कुछ नया हुआ है। विकास के नाम पर कुमाऊ और गढ़वाल के शहरी और निरा पहाड़ी अंचलों में काफी कुछ निर्माण कार्य हुआ है। चौड़ी सड़कों के लिए कटते जंगल और पहाड़ से बिगड़ते संतुलन को लेकर काफी आवाजें उठीं।
पर्यटन विकास के नाम पर शुरू की गई ढेरों जल और थल परियोजनाओं का असर भी दिखने लगा है। समूचे उत्तराखंड में भूमि, पहाड़, नदी, जंगल की तासीर पर ढेर रपटों और शोधों के बावजूद सरकारी उदासी और अनदेखी से यों लगता है कि इतना कुछ देखने, भोगने और जानने के बाद भी सरकारों के लिए यह बड़ी चिंता का विषय नहीं है।
पश्चिमी घाट पर्वत शृंखला में बसा वायनाड कर्नाटक-तमिलनाडु की सीमा पर है। चाय बागानों वाले इस बेहद लोकप्रिय पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र में लगातार बारिश से इसी जुलाई में दलदल, कीचड़ से नरम हुई मिट्टी इतनी कमजोर हुई कि अपना ही भार नहीं संभाल पाई। नतीजा, जबरदस्त भूस्खलन के रूप में सामने आया। यहां भी पर्यटन की आड़ में व्यवसायीकरण हुआ। बड़ी संख्या में होटल और दूसरे अथाह निर्माण हुए। इसी के चलते प्राकृतिक आपदा आई। जुलाई 2022 में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की लोकसभा में दी जानकारी के अनुसार पिछले सात वर्षों में केरल में देश के सबसे ज्यादा भूस्खलन हुए। 2015 से 2022 के बीच कुल 3,782 भूस्खलनों में से 2,239 यानी लगभग 59.2 फीसद अकेले केरल में हुए।
इस अगस्त की बारिश का देश में कई जगह कीर्तिमान भी बना।
अब भी हर दिन मौसम की चेतावनी डराती है। अबकी बारिश ने कितना और कैसा कहर ढाया, सबने देखा। अनेक शहरों में घरों, दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों तक में पानी भर गया। जगह-जगह नावें भी चलानी पड़ीं। छोटी-छोटी नदियां, नाले जबरदस्त उफन गए। कितने लोग जिंदा बहे और बचाव दल भी कैसी-कैसी मुसीबतों में उलझा, यह भी दिखा। इतना ही नहीं, भारी-भरकम बड़े-बड़े ट्रक, बस जैसे वाहन तक बहने लगे। देश में उत्तर-पश्चिम, पश्चिम और मध्य, पूर्व और पूर्वोत्तर, दक्षिण प्रायद्वीपीय क्षेत्र यानी कोई भी इलाका बारिश की मार से नहीं बचा।
विविधतापूर्ण पर्यावरणीय क्षेत्र वाला भारत, जहां ठंडे-गर्म स्थान हैं, वहां एक बार कुछ अलग सोच भले बने, लेकिन विश्व के कई ठंडे क्षेत्रों की बदली स्थितियां रोंगटे कर देती हैं। ‘लांसेट पब्लिक हेल्थ’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध चिंताजनक है। शोधकर्ता चिंतित हैं कि अगर वैश्विक तपिश की गति तीन-चार डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई, तो मौतों का आंकड़ा बेहद डरावना होगा। सदी के अंत तक अकेले यूरोप में मृत्यु दर तीन गुना बढ़ जाएगी। यूरोप विश्व में मानवीय बस्तियों का सबसे ठंडा क्षेत्र है। बीते वर्ष यहां गर्मी से सैंतालीस हजार से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई। जबकि अमूमन यहां ठंड से ज्यादा मौतें होती हैं। यह जलवायु परिवर्तन के कारण आई नई आफत है।
नवंबर 2023 में आई संयुक्त राष्ट्र की रपट और विशेषज्ञों के अनेक शोधों में सामने आया है कि अगर वर्तमान नीतियों पर ही चलते रहे, तो सदी के अंत तक ग्लोबल वार्मिंग को तीन डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित किया जा सकेगा। यानी संभावना इससे ज्यादा की है। यह बेहद चिंताजनक है। वर्ष 2100 के बाद तापमान में और वृद्धि की संभावना है। कारण, जिस कार्बन उत्सर्जन को शुद्ध शून्य तक पहुंचाने के दावे किए गए, वह इन परिस्थितियों में दूर-दूर तक संभव नहीं दिखता। कितनी भी उम्मीदें लगा लें, पर पेरिस जलवायु समझौते में लिए निर्णय यानी महज डेढ़ डिग्री तापमान के लक्ष्य को प्राप्त करने की संभावना मात्र 14 फीसद दिख रही है। वैसे भी 2023 वैज्ञानिक जानकारियों में विश्व का अब तक का सर्वाधिक गर्म वर्ष रहा। सुकून इतना है कि बीते दो दशकों में हमने अपने को गर्मी से बचाने के कृत्रिम तरीके अपनाए, वरना मौतों की संख्या 80 फीसद ज्यादा हो सकती थी।
जलवायु परिवर्तन से मानसून का पैटर्न बदला है। इसी का नतीजा है कि कम अवधि में एकाएक तेज और एक जगह भारी बारिश होने लगी है। हालांकि बरसाती बारिश के आंकड़ों में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ, लेकिन वर्षा जल के वितरण की असमानता से ही तेज और एक ही जगह पर जबर्दस्त बारिश जैसी परिस्थितियां बनीं। इसका मुख्य कारण समुद्र का गरम होना है। गर्म गहरे बादलों की प्रणालियों में बादल ज्यादा पानी लेकर चलते हैं। जहां थोड़ी प्रतिकूलता मिली, वहीं बरसने लगते हैं। इस वायुमंडलीय अस्थिरता के लिए अनेक मानवीय कारण जिम्मेदार हैं। पहाड़ी क्षेत्रों का मौसम अस्थिर होने लगा है और बादल फटने की स्थितियां बनती हैं, जो संभलने का भी मौका नहीं देतीं।
इस पर्यवारणीय असंतुलन पर अब हमें चेतने की जरूरत है। प्रकृति से निर्दयता और जल, जंगल और जमीन का बेतरतीब दोहन ठीक नहीं है। पहले ही हम विकास के नाम पर बेइंतहा प्रदूषण पैदा कर चुके हैं। क्या हम फिर किसी प्रलय को निमंत्रण तो नहीं दे रहे? क्या हम इसके लिए तैयार हैं?