जल है तो कल है और कल है तो जीवन है। जल ही जीवन है। जल संरक्षण को लेकर समाज में जागरूकता से जुड़े इस तरह के नारे हम रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और अन्य सार्वजनिक स्थलों के आसपास लिखे हुए अक्सर देखते हैं। जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जल जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। यह प्रकृति के सबसे बहुमूल्य संसाधनों में से एक है। पृथ्वी चारों ओर से जल से घिरी है, लेकिन मात्र 3.5 फीसद पानी ही जलस्रोतों- नदियों, तालाबों, बावड़ियों और कुओं से मिल पाता है, जबकि शेष भू-जल के रूप में है। जबकि 95 फीसद जल भंडार तो समुद्र में है। मगर यह भी यथार्थ है कि भारत जल संकट वाले देशों की पंक्ति के मुहाने पर खड़ा है। इसकी वजह है- भारत की बढ़ती आबादी, जल संरक्षण प्रबंधन का अभाव, अवैज्ञानिक तरीके से जल का दोहन और घटता भू-जल स्तर।
जल के इसी महत्त्व को ध्यान में रखते हुए देश में वर्ष 2010 से सप्ताह भर का राजनीतिक विचार-विमर्श शुरू किया गया। इसे सरकार ने भारत जल सप्ताह नाम दिया। इसके आयोजन की जिम्मेदारी जल संसाधन मंत्रालय को सौंपी गई। पहली बार जल से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर विषयवार कार्ययोजना बनाने पर भी सहमति बनी। वर्ष 2016 के भारत जल सप्ताह में विदेशी विशेषज्ञों की प्रभावी भागीदारी के लिए अन्य देशों को भी इसमें शामिल किया गया। इस आयोजन में इजराइल को सहयोगी देश के रूप में शामिल किया गया और उसके विशेषज्ञों ने विशेष रूप से जल संरक्षण पर बहुत महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इस विधा में इजराइल सिद्धहस्त है। नदियों को आपस में जोड़ने के मुद्दे पर भी पहली बार अंतरराष्ट्रीय मंच पर खुली चर्चा हुई।
कम सिंचाई वाली खेती को बढ़ावा देना और प्रयोग किए गए पानी का फिर से उपयोग हो
जल संसाधन मंत्रालय ने उनमें से कई सिफारिशों को धरातल पर उतारना शुरू किया है। कम सिंचाई वाली खेती को बढ़ावा देना और प्रयोग किए गए पानी का पुन: उपयोग कारखानों, बागवानी और विनिर्माण उद्योग आदि में किया जाना, इन्हीं प्रयासों का हिस्सा है। इजराइल के मुकाबले भारत की जल उपलब्धता पर्याप्त है, लेकिन वहां का जल प्रबंधन हमसे कहीं अधिक बेहतर है। इजराइल में खेती, उद्योग, सिंचाई आदि कार्यों में इस्तेमाल किए गए पानी का उपयोग अधिक होता है। इसलिए वहां के लोगों को जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता।
भारत में 70 फीसद आबादी की पानी की जरूरत भू-जल से पूरी होती है और इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उपयोग में लाया जा रहा जल भी प्रदूषित होता है। कई देश, खासकर अफ्रीका तथा खाड़ी देशों में भीषण जल संकट है। दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में रह रहे करोड़ों लोग जल संकट से जूझ रहे हैं और असुरक्षित जल का उपयोग करने के लिए विवश हैं। सुव्यवस्थित प्रबंधन से ही जल संकट से उबरा जा सकता है और उसका संरक्षण भी किया जा सकता है। भारत में भी यही तमाम समस्याएं हैं, जिसमें पानी की बचत कम और बर्बादी ज्यादा है। जल शोधन यंत्र को ही लीजिए, एक शोध के अनुसार एक लीटर पानी साफ करने में तीन लीटर पानी बर्बाद होता है। अर्थात शुद्ध पानी का उपयोग केवल 25 फीसद ही होता है, शेष 80 फीसद पानी अपशिष्ट जल के रूप में निकल जाता है। यह भी सच्चाई है कि बढ़ती आबादी का दबाव, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और कुप्रबंधन भी जल संकट का बड़ा कारण है।
यही नहीं, वर्षा जल का संचयन न हो पाना भी इस संकट को गंभीर बना रहा है। पिछले कुछ वर्षों से अनियमित मानसून और कम वर्षा ने भी जल संकट बढ़ा दिया है। इस समस्या से निपटने के लिए हालांकि जल संरक्षण को लेकर सरकारी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। देशभर में छोटे-छोटे बांध और तालाब बनाने की पहल की गई है। इससे पेयजल और सिंचाई की समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। वैसे भारत में तीस फीसद से अधिक आबादी शहरों में रहती है। आवास और शहरी विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश के लगभग दो सौ शहरों में दूषित पानी के उचित प्रबंधन की ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। इसकी वजह से सतही जल को प्रदूषण से बचाने के उपाय भी सार्थक नहीं हो पा रहे हैं।
जल संसाधन मंत्रालय भी मानता है कि जल प्रबंधन की चुनौतियां बढ़ रही हैं। सीमित जल संसाधन के मद्देनजर कृषि, नगर निकायों, जल और आपूर्ति के बीच समन्वय की जरूरत है। देश में पिछले 70 वर्षों में तीन राष्ट्रीय जल नीतियां बनीं। पहली नीति वर्ष 1987 में बनीं, जबकि वर्ष 2002 में दूसरी और वर्ष 2012 में तीसरी जल नीति बनी। इसके अलावा चौदह राज्यों ने भी अपनी जलनीति बना ली है। बाकी राज्य भी इस प्रक्रिया में हैं। इस नीति में जल को एक प्राकृतिक संसाधन मानते हुए इसे जीवन, जीविका, खाद्य सुरक्षा और निरंतर विकास का आधार माना गया है। इस नीति में जल के उपयोग और आबंटन में समानता तथा सामाजिक न्याय का नियम अपनाए जाने की बात कही गई है। भारत में बड़े हिस्से में पहले ही जल की कमी हो चुकी है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और जीवनशैली में बदलाव से जल की मांग तेजी से बढ़ने के कारण गंभीर चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।
जल संरक्षण: सामुदायिक काम का बड़ा असर, जलग्राम बनते भारत के गांव
जलस्रोतों में बढ़ता प्रदूषण पर्यावरण तथा स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होने के साथ ही यह स्वच्छ पानी की उपलब्धता को भी प्रभावित कर रहा है। जल की समस्या, आपूर्ति, प्रबंधन तथा दोहन के लिए सरकारी स्तर पर कई संस्थाएं काम कर रही हैं। राष्ट्रीय जल मिशन तथा जलक्रांति-अभियान अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। जलनीति में इस बात पर बल दिया गया है कि समान और स्थायी विकास के लिए राज्य सरकारों को सार्वजनिक धरोहर के सिद्धांत के अनुसार सामुदायिक संसाधन के रूप में जल संचय करना चाहिए।
हालांकि, पानी पर नीतियां और कानून बनाने का अधिकार राज्यों का है, फिर भी जल संबंधी सामान्य सिद्धांतों का व्यापक उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर जल संबंधी ढांचागत कानून तैयार करना है। यह वर्तमान समय की मांग है। ऐसा इसलिए, ताकि राज्यों में जल को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी कानून बनाने और स्थानीय जल संकट से निपटने के लिए निचले स्तर पर जरूरी और आवश्यक अधिकार सौंपे जा सकें।
तेजी से बदलते जा रहे हालात को देखते हुए नई जल नीति बनाई जानी चाहिए। इसमें हर जरूरत के लिए पर्याप्त जल की उपलब्धता और जल प्रदूषित करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए। समन्वित जल संसाधन प्रबंधन के लिए तीन आधारभूत स्तंभों को विशेषज्ञों ने जरूरी माना है। इनमें सामाजिक सहयोग, आर्थिक सहयोग और पर्यावरणीय एकरूपता शामिल हैं। देश में आयोजित जल सप्ताह में इस बात पर आम सहमति रही कि कृषि, औद्योगिक उत्पादन, पेयजल, ऊर्जा विकास, सिंचाई तथा जीवन के लिए पानी की निरंतरता बनाए रखने के लिए सतत प्रयास की जरूरत है। नागरिकों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराना सरकार की पहली प्राथमिकता है।