अंतरिक्ष अब सिर्फ जिज्ञासाओं का मामला भर नहीं है। अब वह एक ऐसा छोर है, जहां होने वाली खोजों और अनुसंधानों से कई रास्ते खुलते हैं। साथ ही, इसके जरिए कारोबारी हित साधे जा सकते हैं। रक्षा क्षेत्र की जरूरतों को भी पूरा किया जा सकता है। जहां तक अंतरिक्ष में उपलब्धियों की बात है, तो अमेरिका और रूस के बाद पड़ोसी देश चीन इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह मानव मिशन को अंतरिक्ष में भेज चुका है और इससे आगे चंद्रमा के खनिजों का दोहन उसका लक्ष्य है। साथ ही, अपने राकेट से विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण के बाजार में भी वह सेंध लगाना चाहता है, ताकि इस मामले में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की बढ़त को कम किया जा सके। अमेरिका और रूस के अंतरिक्ष कार्यक्रमों से भारत के कार्यक्रम अलग हैं, क्योंकि वे जनता की जरूरतों और अंतरिक्ष अनुसंधान के वास्तविक उद्देश्यों के लिए हैं। इसमें फिजूलखर्ची से बचने के भरसक प्रयत्न किए गए हैं। इसरो द्वारा उपग्रहों का सौवां प्रक्षेपण एक ऐसी उपलब्धि है जो सिर्फ नया इतिहास नहीं रच रही है, बल्कि दुनिया में भारत को अंतरिक्ष की एक बड़ी ताकत के रूप में भी स्थापित कर रही है।

ताजा उपलब्धि की बात करें, तो 29 जनवरी 2025 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से जीएसएलवी-एफ15 राकेट से उपग्रह एनवीएस-02 का सफल प्रक्षेपण इसरो का नया कीर्तिमान है। असल में, इस कामयाबी के साथ ही इसरो ने उपग्रहों के प्रक्षेपण का शतक पूरा कर लिया है। दस अगस्त 1979 को मिली कामयाबी के 46 साल बाद इसरो ने साबित कर दिया है कि देश को कामयाबी की नई राह पर ले जाने के लिए वह तैयार है। अपनी स्थापना के साढ़े पांच दशकों के अंतराल में इसरो ने कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ताकतवर प्रक्षेपक राकेट के निर्माण, बहुद्देश्यीय उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित करने से लेकर इस संगठन के चंद्रमा और मंगल ग्रह की खोज संबंधी अभियानों ने पहले से ही अंतरिक्षीय बाजार में धमक कायम कर रखी है। लेकिन बीते चार-पांच वर्षों में इसने कई नए मोर्चों पर एक साथ कदम बढ़ाए हैं, जिनसे साफ हो गया कि आखिर क्यों भारत इस क्षेत्र की एक बड़ी ताकत है और क्यों इसका भविष्य प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले कहीं ज्यादा उज्ज्वल है।

तेईस अगस्त 2023 को तीन लाख 84 हजार किलोमीटर दूर चंद्रमा के दुरूह माने जा रहे दक्षिणी ध्रुव के इलाके में चंद्रयान-3 जब सफलतापूर्वक उतरा था, तो यह कारनामा करने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया था। यह कामयाबी इसलिए अहम मानी जा सकती है, क्योंकि न तो अमेरिका ऐसा कर पाया है और न ही उसका चिर प्रतिद्वंद्वी रूस वर्ष 2023 में आनन-फानन किए प्रयास में सफल हो पाया था। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अरसे से दुनिया की अंतरिक्षीय शक्तियों की नजर थी, लेकिन वैज्ञानिक और तकनीकी धरातल पर यह काम इतना कठिन है कि इसे अंजाम तक पहुंचाना रूस और अमेरिका या चीन के लिए भी एक चुनौती बन गया था। इस सफलता के साथ इसरो ने न सिर्फ चंद्रमा पर ‘साफ्ट लैंडिंग’ कराने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया, बल्कि उन तकनीकी दक्षताओं को भी दुनिया के सामने रखा, जिनके बल पर अंतरिक्ष यानों को चंद्रमा की सतह पर उतारना और उसके वातावरण में वैज्ञानिक और तकनीकी खोजें करना संभव हो सकता है।

भारत का गगनयान इसी दिशा में बढ़ता अभियान है जो अंतरिक्ष पर्यटन से लेकर भावी सुदूर अंतरिक्ष यात्राओं का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इस अभियान में अभी की बढ़त यह कि गगनयान के ‘क्रू एस्केप सिस्टम’ की शुरूआती कड़ियों का परीक्षण सफलता के साथ हो गया है और इससे हमारा वैज्ञानिक जगत आश्वस्त कर सकता है कि मंगल और चंद्रमा के अभियानों की तरह ही गगनयान भारत की शान में चार चांद लगाने वाला साबित होगा। अगली कड़ी में चंद्रयान-4 का प्रक्षेपण भारतीय अंतरिक्ष कोशिशों को एक नया आधार दे सकता है। हो सकता है कि तब भारत अंतरिक्ष पर्यटन की दिशा में आगे बढ़े। चंद्रयान-3 की सफलता पर प्रधानमंत्री ने अंतरिक्ष पर्यटन संबंधी एक नया नारा दिया था। इसका आशय यह लगाया जा सकता है कि आगे चल कर इसरो अंतरिक्ष पर्यटन की योजनाओं को अमल में ला सकता है। हालांकि यह बहुत संभव है कि इसमें निजी कंपनियों की मदद ली जाए, क्योंकि ऐसी योजनाओं का उद्देश्य अनुसंधान को आगे बढ़ाने से ज्यादा कमाई करना होता है।

रेखांकित करने वाली एक बात यह भी है कि जितना धन नासा अपने मिशन पर एक साल में खर्च करता है, उतनी राशि में इसरो 40 साल तक काम करता रह सकता है। हालांकि हाल तक ‘स्पेस मार्केट’ में अमेरिका की हिस्सेदारी 41 फीसद तक रही है, जबकि इसरो की हिस्सेदारी सिर्फ चार फीसद है। इसकी बड़ी वजह यह है कि नासा के पास एक खाली ट्रक के बराबर वजन वाले उपग्रह को अंतरिक्ष में छोड़ने की क्षमता है। जबकि इसरो हाल तक एक मध्यम आकार की कार के बराबर वजन वाले उपग्रह छोड़ पा रहा था। इस मुकाम से आगे जाने के लिए जरूरी है कि इसरो चार से पांच टन वजनी उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाए।

यह सिर्फ उसके चंद्र और मंगल मिशनों तथा इंसान को चंद्रमा पर भेजने के उसके सपने के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि अंतरिक्ष के कारोबारी दोहन में भी इसका महत्त्व है। इसलिए कह सकते हैं कि अधिकतम ढाई टन वजनी उपग्रहों को ढोने के काबिल राकेट पीएसएलवी से आगे बढ़ कर इसरो ने जीएसएलवी के सफल प्रक्षेपण के साथ भारी अंतरिक्ष परिवहन के बाजार में अपनी दस्तक दे दी है। इससे यह उम्मीद भी जगी है कि जीएसएलवी राकेट पांच टन वजनी उपग्रह को पांच लाख किलोमीटर दूर ले जाकर उसे वापस लौटाने की ताकत दिखा ही देगा, क्योंकि इसके बिना हमारे चंद्र मिशन और इंसान को अंतरिक्ष में भेजने की कामयाबी मुमकिन नहीं है।

आकाश को देखने के कई नजरिए हो सकते हैं। लेखकों-कवियों को आसमान और अंतरिक्ष कविता-कहानी के रूप में कुछ रचने की प्रेरणा देते हैं। एक आम इंसान भी बड़े लक्ष्यों और उम्मीदों के फलीभूत होने की प्रार्थना के साथ आकाश की ओर ही देखता है, लेकिन यह सच है कि इसरो के लिए आज अंतरिक्ष ऐसी जगह में तब्दील हो गया है जो देश को विकास और अनुसंधान की तमाम प्रेरणाएं देने के साथ-साथ पूरे विश्व की उस पांत में शामिल कराने का जरिया है, जहां पहुंचने का सपना आज कई मुल्क देख रहे हैं और जहां पहुंचे बिना कोई विकास अब अधूरा लगता है। चंद्रयान, आदित्य-एल-1 और गगनयान मिशन इसरो की वे महत्त्वाकांक्षी परियोजनाएं हैं, जिन्होंने दुनिया में उसके अभियानों के प्रति यह भरोसा पैदा किया है कि अब कोई अंतरिक्षीय उपलब्धि इतनी बड़ी नहीं है जिसे भारत की पहुंच के दायरे से बाहर मानी जाए। उम्मीद है कि इसरो की क्षमता के बूते देश जो कुछ हासिल करेगा, उसका एक बड़ा लाभ जनता का जीवन स्तर उठाने और देश का ठोस आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के रूप में मिलेगा।