भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध संवेदनशील मुद्दा है। दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंध हैं, वहीं सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा ने इन संबंधों को प्रभावित किया है। दोनों देशों में वार्ता के माध्यम से सीमा मुद्दों को सुलझाने की कोशिशें कई बार हुई हैं, लेकिन ऐतिहासिक कारणों और अलग-अलग दृष्टिकोण से यह समस्या जटिल बनी हुई है तथा इसका स्थायी समाधान संभव नहीं हो सका है। अब दोनों देशों के बीच सीमाई क्षेत्रों में गश्त को लेकर एक समझौता हुआ है, हालांकि इसे सीमा के स्थायी निर्धारण को लेकर किसी व्यापक सहमति के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। चीन अपने क्षेत्रीय दावों को बनाए रखने के लिए अवरोधक रणनीति अपनाता है, दीर्घकालीन स्तर तक समस्याओं को बढ़ाता और फिर सैन्य और आर्थिक नीति से दबाव डाल कर अपने हितों की पूर्ति करने का प्रयास करता है।

चीन की सैन्य रणनीति से निपटने के लिए भारत ने बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया

भारत ने चीन की सैन्य रणनीति से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया है। 2020 में गलवान घाटी में चीनी सैन्य बलों से हिंसक झड़प के बाद भारत ने एलएसी पर अपनी सैन्य तैनाती बढ़ा दी थी। सीमा पर दीर्घकालिक स्थिरता और प्रभावी नियंत्रण बनाए रखने के लिए भारत ने चीन पर लगातार दबाव बनाए रखा, इससे चीन की दक्षिण चीन सागर और ताइवान में सैन्य महत्त्वाकांक्षाएं लगातार प्रभावित हो रही थीं। भारत-चीन सीमा का अधिकांश क्षेत्र पर्वतीय और ऊंचाई वाला है। ये कठिन भौगोलिक परिस्थितियां सैन्य संचालन और रसद पहुंचाने में कठिनाई पैदा करती हैं। ऊंचाई वाले क्षेत्रों में मौसमी स्थितियां अक्सर प्रतिकूल होती हैं, जिससे सैन्य गतिविधियों पर प्रभाव पड़ता है। भारत ने चीन से लगती सीमाओं पर सैन्य बलों की तैनाती को व्यापक स्तर पर बढ़ाया है, जिससे चीन के लिए अन्य संघर्षों वाले स्थानों पर सैन्य संतुलन बनाए रखना कठिन हो गया है।

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दरअसल, भारत और चीन के बीच सीमा विवाद बेहद जटिल है। भारत की अपने क्षेत्रों को लेकर अवधारणा राष्ट्रीय अखंडता, संप्रभुता और ऐतिहासिक अधिकारों पर आधारित है। यह अवधारणा भारत की भौगोलिक सीमाओं, सांस्कृतिक विविधता और सुरक्षा चिंताओं को समाहित करती है। वहीं चीन उन अधिनायकवादी देशों में शुमार है, जिसकी वैदेशिक नीति शक्ति और नियंत्रण के आसपास केंद्रित है। चीन की पड़ोसी देशों की जमीन पर कब्जा करने की नीति विभिन्न ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामरिक कारकों पर आधारित है। भारत 1914 के शिमला समझौते को आधार मान कर दोनों देशों के बीच मैकमोहन रेखा को सीमा रेखा मानता है, जबकि चीन इसे खारिज करता है। भारत और तिब्बत के बीच हुए इस सीमा समझौते को चीन ने कभी मान्यता नहीं दी।

भारत और चीन के बीच सीमा रेखा लगभग करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी है। चीन इसे महज दो हजार किलोमीटर बता कर भारत के लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताता है। यह सीमा विवाद ही दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बनता है। 2020 में गलवान में हुई झड़प ने सीमा विवाद को और गंभीर बना दिया। इसके बाद दोनों पक्षों ने अपनी सैन्य तैनाती वहां बढ़ा दी, जिससे तनाव और बढ़ गया। वास्तविक नियंत्रण रेखा की अस्पष्टता के कारण भी दोनों देशों के बीच अक्सर टकराव होते रहते हैं।

कई दशक बीत जाने के बाद भी भारत और चीन के बीच सीमा विवाद पर अब तक कोई स्थायी समझौता नहीं हुआ है। दोनों देशों के बीच अविश्वास और भौगोलिक रणनीतिक चिंताएं स्थायी समझौते में बाधा डालती हैं। चीन की सीमा भारतीय हिमालयी क्षेत्र से सटी हुई है, जिससे उसे ऊंची पहाड़ियों और दुर्गम क्षेत्रों का लाभ मिलता है। यह स्थिति उसे भारतीय सैन्य गतिविधियों पर नजर रखने और त्वरित प्रतिक्रिया देने में मदद करती है। एशिया की इन महान शक्तियों के बीच विवाद का असर वैश्विक स्तर पर भी पड़ रहा है। भारत अपने सैन्य ढांचे को आधुनिक बनाने की कोशिश कर रहा है। चीन भी अपनी सैन्य क्षमताओं को तेजी से बढ़ा रहा है। चीन ने पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका जैसे भारत के पड़ोसी देशों में निवेश बढ़ाया है, जिससे भारत की सामरिक चुनौतियां बढ़ी हैं। चीन और भारत के बीच रणनीतिक और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भूगोल, प्राकृतिक संसाधन और सामरिक स्थिति को प्रभावित करने की कोशिशों को बढ़ावा देती है, जिससे युद्ध और संघर्ष की आशंका पैदा होती है।

पिछले वर्ष दिल्ली में आयोजित जी-20 के शिखर सम्मेलन में जिस भारत-मध्यपूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे की योजना प्रस्तुत की गई थी, वह चीन के प्रभाव को रोकने और उसे सीमित करने की कोशिश ही थी। इस परियोजना में भारत, यूएई, सऊदी अरब, यूरोपीय संघ, फ्रांस, इटली, जर्मनी और अमेरिका शामिल हैं। इस आर्थिक गलियारे के जरिए एशिया से लेकर मध्यपूर्व और यूरोप तक व्यापार किया जाएगा। यह गलियारा चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ का जवाब माना जा रहा है। चीन की परियोजना उसके प्राचीन सिल्क मार्ग की अवधारणा पर आधारित है और वह इसे प्रतिबद्धता से पुन: विकसित कर रहा है। चीन इस परियोजना के तहत सड़कों, रेल मार्गों, बंदरगाहों, पाइपलाइनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं के माध्यम से मध्य एशिया से लेकर यूरोप और अफ्रीका तक पहुंचने की तैयारी कर रहा है।

अमेरिका ने एशिया में अपने विश्वसनीय सहयोगी देशों के साथ उन देशों को जोड़ने की नीति पर भी काम किया, जो चीन की विस्तारवादी नीति और अवैधानिक दावों से परेशान है। इन देशों में भारत समेत इंडोनेशिया, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, लाओस और विएतनाम जैसे देश शामिल हैं। इनमें कुछ देश दक्षिण चीन सागर पर चीन के अवैध दावों को चुनौती देना चाहते हैं और कुछ देश चीन की भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के लिए सैन्य दबाव और अतिक्रमण की घटनाओं से क्षुब्ध हैं। कजाकिस्तान, कंबोडिया और दक्षिण कोरिया की संप्रभुता को चुनौती देते हुए चीन इन्हें ऐतिहासिक रूप से अपना बताता है। नेपाल और भारत के कई इलाकों तथा दक्षिणी चीन सागर पर भी चीन का ऐसा ही दावा है। हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर क्वाड जैसे मंचों के माध्यम से चीन के प्रभाव का मुकाबला करने की कोशिश कर रहा है।

मैकमोहन रेखा भारत-चीन के बीच सीमा विवाद में एक महत्त्वपूर्ण घटक बन गई है। यह रेखा न केवल भौगोलिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि यह भारत-चीन संबंधों की राजनीतिक स्थिरता में भी एक अहम भूमिका निभाती है। मैकमोहन रेखा को लेकर चीन का अस्पष्ट रुख भारत और चीन के संबंधों में बड़ी बाधा है और ऐसा लगता भी है कि चीन भारत के साथ सीमा विवाद का पूर्ण समाधान करने के प्रति संवेदनशील नहीं है। चीन की आक्रामक सैन्य रणनीति का मुकाबला करने के लिए उसकी सामूहिक घेराबंदी आवश्यक है। मनोवैज्ञानिक दबाव की रणनीति युद्ध के परिणाम को प्रभावित कर सकती है। जाहिर है, भारत को चीन से वार्ता और संवाद तो करना चाहिए, लेकिन उस पर दबाव बनाए रखने के लिए पश्चिमी देशों और अमेरिका से अपने रणनीतिक संबंध भी बनाए रखने होंगे।