देश के कर्णधारों को यह स्वीकार करना होगा कि उपलब्धियों के चमकते आंकड़ों से कहीं अधिक आम आदमी की समस्याओं का समाधान जरूरी है। ये समस्याएं हैं- हर काम योग्य व्यक्ति को उसके काम की गारंटी, देश के हर नागरिक को उचित सेहत की सुरक्षा और नई पीढ़ी को दी जाने वाली वह शिक्षा, जो उन्हें दुनिया की श्रम मंडियों में एक बिकने वाली वस्तु नहीं, बल्कि अपने ही देश में एक ऐसी शक्ति बनाए जिसकी सहायता से हम अपने देश में एक नए युग का सृजन कर सकें, जिसे कायाकल्प कहते हैं। आज तक इन समस्याओं के समाधान की जगह अगर उन्हें आंकड़ों से बहलाने की कोशिश की जाती रही है, तो उसी का नतीजा है यह मोहभंग की अवस्था, जो आज देश की आम जनता से आंखें मिलाकर खड़ी हो गई है और जिसने पूरे देश में यह भावना पैदा की है कि केवल घोषणाओं से काम नहीं चलेगा। अब इस युग में एक नई कार्यदीक्षा से ही बात बनेगी। चिंतन और कारगुजारी में एक नया तेवर लाने से ही बात बनेगी।
आम आदमी ने आज एक नया सच सामने रख दिया है कि भाषणों, दावों, अधूरे आंकड़ों और लंबित परियोजनाओं से नहीं, प्रगति और विकास की विश्व रैंकिंग की सीढ़ियां चढ़ने से भी बात नहीं बनेगी। दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले इस देश में काम करने योग्य युवकों की संख्या सर्वाधिक है और वे अपने लिए इज्जत की रोटी चाहते हैं। अनुकंपाओं और उदारता की राजनीति अब उनको दिलासा नहीं देती। अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का वादा 2029 तक बढ़ाकर उन्हें भूख से न मरने देने की गारंटी तो दे दी, लेकिन न तो उसका प्रशासन आम लोगों की खुशहाली का जामिन बन सका और न ही उनकी सेहत सुरक्षा का आश्वासन दे सका।
देश के कुपोषित नौजवान ही नहीं, नौनिहाल भी उचित पोषण न पाने के कारण एक ऐसी आबादी बन रहे हैं, जो जिंदा तो है, लेकिन सेहत के प्रतिमानों पर पूरा नहीं उतरती। यहां शिक्षा के माडल की बहुत बात होती है, लेकिन देश को डिजिटल बना देने और कृत्रिम मेधा के संसार में अपना झंडा गाड़ देने के बावजूद हमारे देश के अधिकांश युवा ऐसे हैं, जिनकी व्यावहारिक योग्यता स्नातक की डिग्रियां लेने के बाद भी प्राथमिक स्तर की है। नौजवान आज भी इन शिक्षा परिसरों में परंपरावादी कला और विज्ञान की डिग्रियों के लिए दौड़ लगाते हैं, जबकि जमाना उनसे कृत्रिम मेधा और रोबोट युग में उतरने के साथ डीपफेक के संकटों का मुकाबला करने की चुनौती देता है। नाम बड़े और दर्शन छोटे की इस शिक्षा के साथ देश में सस्ते उपचार के माडलों के वादे तो किए जाते हैं, लेकिन निजी चिकित्सा इतनी महंगी है कि उसमें अपने परिवार का भविष्य संकट में डालने की जगह लोग नीम हकीमों के उपचार को शिरोधार्य करके मौत को गले लगाना अधिक पसंद करते हैं।
सरकार ने तो कह दिया कि सत्तर वर्ष से ऊपर के सभी वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त चिकित्सा सुविधा मिलेगी, लेकिन आयुष्मान योजना का अनुभव बताता है कि इसके पहले सीमित क्षेत्र में भी पांच लाख की आय तक के नागरिकों को उचित उपचार नहीं मिलता था। निजी चिकित्सा क्षेत्र ने सार्वजनिक चिकित्सा क्षेत्र का साथ देने का वादा कभी निभाया नहीं और सार्वजनिक क्षेत्र में उचित दवाओं से लेकर डाक्टरों का अभाव मरीजों के रोगी हो जाने का दुर्भाग्य उद्घाटित करता रहा। भारत में इसी कारण औसत आयु कम हो रही है कि न उचित कमाई है, न उचित शिक्षा और न उचित चिकित्सा। अशिक्षा के अंधेरों में अपराध पलता है।
देश की आधी से अधिक जनसंख्या आज भी कृषि पर निर्भर है, लेकिन देश की सकल घरेलू आय में उसका योगदान घटते-घटते पंद्रह फीसद क्यों हो गया? हमने घोषणा तो की थी कि हम अपनी प्रगतिशील नीतियों और कृषि क्रांति के साथ कृषकों की आय दोगुनी कर देंगे, लेकिन वह आज भी अपनी फसल की उचित कीमत के लिए तरसते हुए महाजनों और साहूकारों से समझौते करते नजर आते हैं। जो लोग कृषि से उखड़ कर महानगरों में अपना वैकल्पिक आर्थिक जीवन ढूंढ़ने के लिए आए, उन्हें यहां कोई आधार नहीं मिला। कोविड महामारी ने उन्हें फिर गांव की ओर लौटा दिया। अब नई चुनौती यह है कि इस श्रमबल को वैकल्पिक जीवन कैसे दिया जाए? यह वैकल्पिक जीवन कस्बों और गांवों में ही विनिवेश करने से संभव होगा। इसके लिए लघु और कुटीर इकाइयों का जाल पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्र में बिछ जाना चाहिए, जहां कार्ययोग्य नौजवानों को उचित नौकरियां मिल सकें। उनका कमाया हुआ वेतन उन्हें वह आत्मसम्मान देगा, जिससे वे नए भारत के निर्माण में पूरे सम्मान के साथ जुड़ सकें।
देश का सम्मान बढ़ाने के लिए देश को आयात आधारित अर्थव्यवस्था के स्थान पर निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाना होगा। इसे बनाने के लिए अपने रुपए का विनिमय महत्त्व भी डालर, पाउंड और यूरो के बराबर करना होगा। पिछले कुछ समय से मुक्त व्यापार समझौतों के अंतर्गत रुपयों के भुगतान से आयात और निर्यात करने का फैसला किया जा रहा है। यह भी फैसला किया गया है कि हमारे निवेशकों को अपने रुपए से विदेशों में निवेश करने की इजाजत होगी। बड़ी दुनिया के देश अगर ऐसे मुक्त व्यापार समझौते हमारे देश के साथ नहीं करते, तो तीसरी दुनिया के अपने जैसे देशों में तो रुपए की पूरी परिवर्तनशीलता पैदा की जा सकती है। आरबीआइ ने इस सच को स्वीकार कर लिया है। देश के केंद्रीय बैंक ने दुनिया की तीसरी आर्थिक शक्ति बनने के एजंडे में रुपए की पूर्ण परिवर्तनीयता रखा है। यानी भारतीय रुपए को विदेश भेजने से या विदेशी मुद्रा को देश में लाने की कोई रोकटोक नहीं होगी।
दूसरी मुद्राओं के सापेक्ष रुपए की कीमत बाजार के तत्त्व तय करेंगे और उसको तय करेगा हमारे निर्यात का प्रोत्साहन। हम अपने देश की दस्तकारी और कला-कौशल की मांग पूरी दुनिया में पैदा करें, रुपया अपने आप मजबूत होगा, कमजोर होने से बचेगा। सरकार को इसके लिए बनावटी बंदिशें नहीं लगानी पड़ेंगी। भारतीय कंपनियों को विदेशों में रुपए लगाने की उतनी ही छूट होनी चाहिए, जितनी छूट हमने विदेशी निवेशकों को अपने देश में दे रखी है कि वे अपनी मुद्रा में निवेश कर सकते हैं। अगर बराबरी के स्तर पर व्यापार चलेगा तो बात बनेगी। बराबरी का आधार आत्मनिर्भरता होता है। आत्मनिर्भरता देश के युवा बल को बदलती डिजिटल और इंटरनेट दुनिया का पूर्ण प्रशिक्षण देने से ही पैदा होगी। लेकिन अगर यहां के नौजवान पलायन का रास्ता पकड़ विदेशी मंडियों में अपनी योग्यता देखते रहेंगे तो आत्मनिर्भरता हासिल करने में अभी बहुत समय लगेगा। जितना ही समय लगेगा, उतना ही देश की राजनीति में अनावश्यक उतार-चढ़ाव और देश की अर्थव्यवस्था में वंचितों का क्रंदन जारी रहेगा।