अभिषेक कुमार सिंह

पिछले वर्ष जब यूरोप के ज्यादातर हिस्सों में सर्दियां बिना बर्फ के गुजर रही थीं तो लगा कि बेलगाम कार्बन उत्सर्जन करने और जीवाश्म ईंधन के बेइंतहा इस्तेमाल से जलवायु परिवर्तन की समस्या पैदा करने वाले विकसित देश अपने कर्मों का नतीजा देख रहे हैं। बर्फ नहीं पड़ी, तो यूरोप के बहुतेरे पर्यटन स्थल वीरान हो गए, ग्लेशियर पिघलने लगे और नदियों का जलस्तर कम होने लगा। मगर, हमें अहसास नहीं था कि ऐसा ही कुछ एक वर्ष के अंदर अपने देश में भी देखने को मिलेगा। दिसंबर से लेकर जनवरी के आधे हिस्से तक हालात ऐसे बने कि क्या कश्मीर, क्या हिमाचल और क्या उत्तराखंड, बर्फबारी के मामले में इन सभी राज्यों के पर्वतीय इलाके तकरीबन सूखे ही रहे। इस अवधि में न तो बारिश और बर्फबारी कराने वाले पश्चिमी विक्षोभ सक्रिय हुए और न ही स्थानीय मौसमी करवट ने कहीं भी ऐसी हलचल पैदा की कि पर्यटकों से लेकर किसानों और कारोबारियों के चेहरे खुशी से खिल जाएं।

अमूमन जनवरी में कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड में दो फुट तक बर्फ गिरती है

बर्फ के इस सन्नाटे को लेकर किसान, मौसम विज्ञानी और अर्थशास्त्री डरे हुए हैं। पर्यटन की आस पर टिके व्यवसायियों का दर्द अलग से है। मौसम विज्ञानियों का आकलन कहता है कि दिसंबर से लेकर जनवरी के महीने में कश्मीर के गुलमर्ग, हिमाचल के शिमला-मनाली और उत्तराखंड के जोशीमठ-औली आदि इलाकों में अमूमन डेढ़ से दो फुट तक बर्फ कई मर्तबा गिरती है।

गुलमर्ग में दिसंबर तक केवल छह इंच बर्फ गिरने से पर्यटन पर पड़ा असर

मगर, कड़ाके की सर्दी के बावजूद इन ज्यादातर जगहों पर इस बार एकाध अपवाद को छोड़कर करीब अस्सी फीसद कम बारिश हुई। कश्मीर का जो गुलमर्ग कई फुट बर्फ गिरने के नजारों से अमूमन हर साल आबाद रहता था, इस दफा बीते दिसंबर में एक बार छह इंच बर्फ गिरने के साथ वह लगभग सूखा ही रह गया। बर्फबारी खेती के लिए भी बेहद जरूरी है। कश्मीर और हिमाचल के सेब उत्पादकों के चेहरों पर रौनक बर्फबारी के साथ बढ़ जाती है, लेकिन अबकी बार बर्फ न गिरने से उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही हैं।

हर साल बर्फबारी से ग्लेशियर के नुकसान की होती है भरपाई

पर्वतीय राज्यों के आम लोग और किसान जानते हैं कि बर्फ के सूखे में उनके लिए क्या चेतावनी छिपी है। पर्यटन, खेती-बागवानी और पनबिजली उत्पादन समेत कई क्षेत्रों पर बर्फबारी न होने का बुरा असर पड़ता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण पहले से ही छीजते ग्लेशियर बर्फ के सूखे में और भी खाली हो जाते हैं। असल में, हर साल होने वाली बर्फबारी से ग्लेशियर को हुए नुकसान की भरपाई (रिचार्ज होने) का एक मौका मिलता है। ये ग्लेशियर ही अपने भंडार की बदौलत पूरे साल नदियों और झरनों को पानी मुहैया कराते हैं। पर अगर एक साल के लिए भी वे बर्फ का अभाव झेलते हैं, तो जमा पानी के उनके भंडार तेजी से खाली हो सकते हैं।

जम्मू-कश्मीर में लद्दाख-कारगिल जैसे इलाकों में बर्फबारी न होने का मतलब है कि हिमालय का यह इलाका सूखे की चपेट में है। इस कारण यहां से निकलने वाली नदियां गर्मी के दिनों में मैदानी इलाकों में पर्याप्त पानी नहीं ले जा पाएंगी।

हालांकि, ग्लोबल वार्मिंग का असर हिमालयी इलाके पहले से झेल रहे हैं। भूवैज्ञानिक बताते हैं कि नब्बे के दशक में इन ज्यादातर हिमालयी क्षेत्रों में दिसंबर से लेकर जनवरी तक तीन फुट से ज्यादा की बर्फबारी कई बार होती थी। मगर, अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि सबसे कम ग्रीनहाउस गैसीय उत्सर्जन करने वाले ये इलाके भी वैश्विक जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रही समस्या की चपेट में आ गए हैं। एक दावा है कि बर्फ और बारिश की कमी तथा ग्लोबल वार्मिंग के कारण कश्मीर-लद्दाख के तापमान में चार से सात डिग्री सेल्सियस का इजाफा हो सकता है, जो यहां की खेती-बागबानी और समूची पारिस्थितिकी को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचा सकता है।

बीते कुछ वर्षों में कश्मीर और लद्दाख के किसानों ने पानी की कमी का संकट बार-बार पैदा होने के मद्देनजर अपने धान के खेतों को फूलों के बगीचे में तब्दील कर दिया है, जो यहां की पारिस्थितिकी में बदलाव का संकेत है।

पर्वतीय राज्यों के लिए बर्फ का एक पहलू पर्यटन से भी जोड़ता है। बर्फबारी न होने से उत्तराखंड के मसूरी-नैनीताल की सड़कें पर्यटकों से गुलजार नहीं हो पाई हैं, तो कश्मीर के गुलमर्ग-पहलगाम जैसे इलाकों में भी उम्मीद से काफी कम पर्यटक पहुंच रहे हैं। यही नहीं, रोमांचक पर्यटन के रूप में लोकप्रिय स्नो-स्कीइंग जैसे खेलों के लिए जरूरी बर्फ नहीं मिल पाने से इनसे जुड़े आयोजनों पर भी संकट मंडराने लगा है। पर्यटकों की कम आमद होटल कारोबारियों, टैक्सी चालकों, घोड़ा-खच्चर मालिकों और अन्य व्यापारियों के लिए चिंता की सबब बन गई है।

वैसे बर्फ की छीजन और कमी के जो संकेत भारत में स्थानीय स्तर पर दिखाई दिए हैं, वे दुनिया में बड़े स्तर पर पिछले कुछ अरसे से काफी तीव्रता के साथ महसूस किए जा रहे हैं। सबसे ज्यादा चिंता पृथ्वी के दोनों ध्रुवों पर जमी बर्फ के पिघलने की दर को लेकर है। जैसे एक मुद्दा आर्कटिक क्षेत्र में पड़ने वाले ग्रीनलैंड का है। यहां यों तो पूरे साल बर्फ जमी रहती है, लेकिन अध्ययनों में पता चला है कि बीते एक हजार वर्षों की तुलना में पहली बार ग्रीनलैंड अब सबसे ज्यादा गर्म होने की स्थिति में पहुंच गया है।

इसका एक असर वर्ष 2019 में ही महसूस किया जा चुका है, जब तथ्यों के आधार पर दावा किया गया था कि आर्कटिक में बर्फ पिघलने के कारण समुद्री जलस्तर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यहां ज्यादा चिंता की बात यह है कि ग्रीनलैंड के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्लेशियर पीटरमान की परतों में गर्मी के कारण तेजी से टूट-फूट हो रही है। इसका नतीजा यह हो सकता है कि पूरी दुनिया में महासागरों का जलस्तर इस कारण बढ़ जाएगा। इससे निचले द्वीपों और तटीय इलाकों के लिए खतरा भी बढ़ जाएगा। उत्तरी ध्रुव की तरह दक्षिणी ध्रुव यानी अंटार्कटिका में आर्कटिक की तुलना में छह गुना ज्यादा बर्फ है। मगर, वर्ष 2022 में यह बर्फ अब तक के सबसे निचले स्तर पर थी।

ध्रुवों पर ग्लेशियर के पिघलने का खतरा कितना गंभीर है, इसका पता विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित एक अध्ययन से चलता है। इस अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2050 तक समुद्र में पिघली बर्फ के कारण पानी की बढ़ी मात्रा से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को सीमित करने वाली जलधाराओं की प्रवृत्ति उलट सकती है। इसके असर से इंसानी गतिविधियों द्वारा पैदा होने वाले सालाना कार्बन उत्सर्जन के लगभग एक-तिहाई हिस्से को सोख कर जलवायु परिवर्तन को कम करने की महासागर की क्षमता भी लड़खड़ा सकती है। इसलिए जरूरी है कि प्रकृति के इस श्वेतवर्णी वरदान को बचाए रखने के जतन किए जाएं, जो शायद वैश्विक ताप को थामने वाली कोशिशों से कुछ हद तक साकार हो सकते हैं।