पिछले दशक में देश ने बहुत तरक्की की है। अब यह विकासशील से विकसित देश होने की ओर अपने कदम बढ़ा रहा है। दो-तीन वर्ष में तीसरी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है। आर्थिक विशारदों के मुताबिक देश ने सात फीसद की जो आर्थिक विकास दर प्राप्त की है, वह अपने आप में प्रशंसनीय है, जबकि दुनिया के संपन्न देशों की आर्थिक विकास दर भी चार फीसद से अधिक नहीं। जहां पूरी दुनिया ने महामंदी का मुकाबला किया, वहां अपने देश ने विस्तृत बाजार और तत्पर मांग के कारण इस मंदी को छका दिया।
यह सही है कि फेडरल बैंक की दरों के बढ़ने के कारण भारत से विदेशी निवेश भगोड़ा हुआ, लेकिन चूंकि देश के घरेलू निवेशकों की आस्था भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिदान क्षमता में थी, इसलिए भारत की निवेश व्यवस्था के साथ वह हाराकिरी नहीं हुई, जो दूसरे कुछ देशों में देखने को मिली। सबसे उल्लेखनीय बात यह थी कि इसरो के अभियान नासा के मुकाबले बहुत किफायती रहे। यह गर्व का विषय था कि चांद के दक्षिणी ध्रुव पर भारत का चंद्रयान उतरा, जबकि रूस का अभियान पूरी तरह विफल रहा।
अब भी इसरो की अंतरिक्ष यात्रा योजनाओं और सौर अन्वेषण अभियानों को व्यावसायिक तेवर देने की कोशिश हो रही है और उम्मीद कर रहे हैं कि जल्दी ही भारत इसके बल पर विनिमय दरों में अपनी मुद्रा के गिरते मूल्यों को संभाल सकेगा।
मगर इन सभी क्षितिज पर उभरते आर्थिक विकास के नए इंद्रधनुषों के बावजूद कुछ बातें हैं, जो काले बादलों की तरह इस नभ पर उभरी हैं। आज वे भले हमें तरक्की का संज्ञान दें, लेकिन कल को वही हमारे देश के लिए गले की फांस भी बन सकती हैं। देश तरक्की कर रहा है, आधुनिक कारोबार में मजबूती आ रही है। हम एक निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पाल रहे हैं, लेकिन देश की घरेलू शुद्ध बचत में 2020-21 के बाद से लगातार गिरावट आ रही है। पिछले तीन वर्षों में देश के परिवारों की शुद्ध बचत नौ लाख करोड़ रुपए से अधिक घट गई है।
इस समय यह केवल 14.16 लाख करोड़ है। बेशक 2017-18 के बाद यह शुद्ध बचत का सबसे निचला स्तर है। तब शुद्ध बचत 13.05 लाख करोड़ रुपए थी। सिर्फ 2020-21 में एक बार लगा था कि शायद हम दस फीसद आर्थिक विकास दर पर पहुंच कर स्वत:स्फूर्त अर्थव्यवस्था को छू लेंगे, तब इन परिवारों की घरेलू बचत भी 23.29 लाख करोड़ रुपए हो गई थी।
यह बचत ही देश के पूंजी निर्माण का आधार होती है। यह घरेलू बचत ही देश के लघु और कुटीर उद्योगों के निवेश के लिए पूंजी का स्रोत होती है। यह घटी इसलिए, क्योंकि महंगाई बेलगाम रही। पिछले दो वर्षों से अपनी मौद्रिक नीति में रेपो रेट को उच्चतम स्तर पर बढ़ाकर, ब्याज दरों को ऊंचा करके, कर्ज को महंगा करके तरलता को घटाने का जो प्रयास किया गया था, उसे भारत ने स्वीकार नहीं किया। मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की एक बड़ी कोटि पैदा हो गई, जिसे देश की सत्ता के अनुसार उन 25 करोड़ लोगों ने बनाया था, जिसे वे गरीबी रेखा से बाहर ले आए थे।
इस मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की मांग में कमी नहीं आई और इसके अलावा वे अधिक ब्याज दरों के बावजूद कर्ज की दर को बढ़ाते रहे। इसके कारण जो मांग पैदा हुई, वह मूलभूत पदार्थों की नहीं, सुविधा वस्तुओं या दिखावे की वस्तुओं की है। इससे देश में उत्पादकों का रुख भी बदला। लोग छोटी कारों की जगह बड़ी कारों और छोटे फ्लैटों की जगह बड़े फ्लैटों की खरीद की ओर भाग रहे हैं।
यही नहीं, एक और नया सच सामने आया कि ग्रामीण इलाकों में खपत बढ़ने लगी। इसने शहरों की खपत को पीछे छोड़ दिया। अब मात्रात्मक वृद्धि 12.8 फीसद तक पहुंच गई और शहरी मांग उसके मुकाबले में घटकर 5.7 फीसद रह गई। नेल्सन आईक्यू की रपट के मुताबिक, यह वृद्धि गैर-खाद्य क्षेत्रों में हो रही है। खाद्य की तुलना में गैर-खाद्य क्षेत्रों में लगभग दोगुनी है। खाद्य क्षेत्रों में होती, तो देश फसलों का ‘फिनिश्ड’ उत्पादन बढ़ाने के लिए निवेश की ओर जाता, लेकिन यहां भी एक नया मध्यवर्ग पैदा हो गया था, जो सुविधाजनक वस्तुओं की मांग कर रहा था। एक साल में हमारी बचत 17 फीसद घट गई। जीडीपी में बचत का हिस्सा 50 वर्ष में सबसे कम हो गया।
एक देश, जो निर्माण पथ पर बढ़ना चाहता हो, जो अर्थ-विशारदों के अनुसार कम से कम आठ फीसद विकास दर प्राप्त करना चाहता हो, वहां अगर घरेलू बचत और जीडीपी में बचत कम होगी और घरेलू खर्चे वर्ष भर में 54 फीसद बढ़ जाएंगे तो ऐसी असंतुलित अर्थव्यवस्था में विकास दर को स्थायित्व कैसे मिलेगा? स्थिति कुछ ऐसी नजर आ रही है कि देश तो विकसित हो जाएगा, लेकिन उसमें रहने वाली अधिकांश जनता गरीब और मूल वस्तुओं को तरसती रहेगी। उसे अनुकंपा की घोषणाओं पर जीना पड़ेगा। विकास की दर चंद धनकुबेरों के क्षेत्र में सिमट जाएगी।
नए आंकड़े बता रहे हैं कि हमारे देश से रिकार्ड स्तर पर युवा शक्ति का पलायन विदेशों की ओर हो रहा है। चाहे हम तात्कालिक तौर पर संतुष्ट हो सकते हैं कि वहां से प्रवासी भारतीयों द्वारा जो पैसा भारत में आता है, जिसे ‘रेमिटेंस’ कहते हैं, वह काफी अधिक है। लेकिन यह रेमिटेंस भारत का मूल नहीं बन सकती। मूल भावना चाहिए थी उस युवा शक्ति को जो भारत में रहती, भारत के सकल घरेलू उत्पादन में अपने निवल प्रतिदान को बढ़ाती, लेकिन उसे तो विदेशी मंडियों में बिकने के लिए भेज दिया गया और यहां बाकी रह गया तेजी से बूढ़ा होता देश।
फिलहाल विकास के आंकड़े उसे गर्वित कर सकते हैं, लेकिन अगर देश की युवा शक्ति, जो देश की कुल कार्यशील आबादी का आधा भाग है, वह देश के नवनिर्माण में ही नहीं जुटेगी और उसके लिए गांवों में लघु और कुटीर उद्योगों की स्थापना अपने पलक-पांवड़े नहीं बिछाएगी, तो उससे अधिक देश की तरक्की के क्षितिज पर काले बादलों का उमड़ना और नहीं हो सकता।
जरूरी है कि देश की युवा शक्ति देश में ही रहे। देश के नवनिर्माण में योगदान दे, लेकिन उसके लिए उसे चाहिए आकर्षक उत्पादन और रोजगार योजनाएं, जो गांवों और कस्बों से लघु और कुटीर उद्योगों के रूप में सहकारी आंदोलन के योगदान के साथ उभरे। लेकिन पिछले कुछ भ्रष्ट अनुभवों के कारण न तो सहकारी आंदोलन देश में पनप पा रहा है और न ही लघु और कुटीर उद्योग। इसी कारण एक तरक्की करता हुआ देश अधिक से अधिक बेरोजगारों का देश बनता जा रहा है जिसमें महंगाई ने उसके बखिए उधेड़ दिए हैं और भ्रष्टाचार उसके सिर का हर साया छीन रहा है।