विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी एएमआर (एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध) को मानवता के सामने शीर्ष दस वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरों में से एक घोषित किया है। एएमआर तब होता है जब बैक्टीरिया, विषाणु और कुछ परजीवी जैसे सूक्ष्म जीव एंटीबायोटिक्स जैसे रोगाणुरोधी द्वारा मारे जाने का प्रतिरोध करने के लिए तंत्र विकसित करते हैं। इस प्रकार संक्रमण बना और दूसरों में फैलता रहता है।

जीवाणुरोधी घटक का तेजी से दुनिया के सार्वजनिक स्वास्थ्य संकटों के रूप में उभरने के साथ जलवायु परिवर्तन के बाद दूसरे स्थान पर ‘डायग्नोस्टिक स्टीवर्डशिप’ यानी दवाओं के उचित प्रयोग की भूमिका को न समझना है। दवाओं का उपयुक्त और बेहतर इस्तेमाल का तरीका और उसके गुण-दोषों को न जानने की वजह से शरीर कई तरह की बीमारियों का घर तो बनता ही है, वे दवाएं भी काम करना बंद कर देती हैं, जो शुरुआत में बेहतर असर कर रही थीं। यह समस्या दुनिया भर में है। संगठन के मुताबिक यह वैश्विक स्वास्थ्य खतरा व्यापक स्तर पर बढ़ने की आशंका है।

दुनिया के सभी मुल्कों को प्राथमिकता के तौर पर इस पर गौर करना चाहिए। कोरोना के वक्त कोविड-19 का महज लक्षण के आधार पर इलाज होने के बावजूद लाखों की संख्या में लोगों की मौत हो गई थी। अमेरिका, इटली, चीन और भारत प्रमुख देश थे, जहां कोरोना का असर व्यापक था। तभी से यह लगने लगा था कि भविष्य में नई बीमारियों की वजह से उपयुक्त दवाओं के न मिलने या दवा का असर मामूली होने की वजह से हर वक्त लोगों में दहशत बनी रह सकती है।

जीवाणुरोधी घटक की जटिलता का अनुमान इससे लगाया जाता है कि रोगाणुरोधी दवाओं के प्रतिरोध विकसित होने या हो जाने के बाद संक्रमण का इलाज करना मुश्किल या कभी-कभी असंभव भी हो जाता है। जाहिर तौर पर बीमार व्यक्ति उपयुक्त इलाज के अभाव में धीरे-धीरे तड़प-तड़प कर दम तोड़ देता है। देखा जाता है कि एलोपैथी में ऐसी अनेक दवाएं हैं, जो एक सीमा के बाद काम करना बंद कर देती हैं। नई बीमारियों के इलाज में नई दवाएं कितनी कारगर होंगी, यह उनके इस्तेमाल के बाद ही पता चलता है।

अब चिंता इस बात की है कि कोविड-19 के बाद दुनिया में दहशत पैदा करने वाली नई-नई बीमारियां पैदा हो रही हैं। कभी इनकी शुरुआत चीन से हुई, तो कभी अफ्रीकी देशों से, लेकिन दुनिया के तमाम देशों में इनके प्रति दहशत का एक माहौल थोड़े ही दिन में बन जाता है। ऐसे हालात दुनिया में शायद कभी नहीं रहे, जैसे आज हैं।

सवाल है कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी एएमआर चिंता का विषय क्यों है? यह चिंता का विषय इसलिए है कि रोगाणुरोधी एजंटों के प्रति प्रतिरोध के क्रमिक और बढ़ते विकास के साथ, कई दवाइयां संक्रमणों का इलाज करने की अपनी क्षमता खो रही हैं। इससे विज्ञान और चिकित्सा में वर्षों की प्रगति से प्राप्त लाभों का उलट होने का खतरा है। इसके बढ़ते खतरों को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि दवा प्रतिरोधी बीमारियों की वजह से 2050 तक एक करोड़ लोगों की असमय मौत हो सकती है।

‘लैंसेट’ पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 2019 में चालीस लाख 19 हजार मौतें रोगाणुरोधी प्रतिरोध से जुड़ी थीं। अध्ययन बताता है कि किसी भी व्यक्ति को, जीवन के किसी भी चरण में जीवाणुरोधी तत्त्व असर डाल सकते हैं। ये इतनी तेजी से विकसित हो रहे हैं कि नए ‘एंटीबैक्टीरियल एजंट’ विकसित होने की गति से भी आगे निकल गए हैं। अध्ययन बताता है कि व्यापार और यात्रा के माध्यम से वैश्विक संपर्क बढ़ने के साथ विकसित एएमआर दुनिया भर में फैलने की आशंका बढ़ गई है।

यदि हम रोगाणुरोधी प्रतिरोध का समाधान नहीं करते हैं, तो नियमित चिकित्सा प्रक्रिया और शल्य चिकित्सा सुरक्षित रूप से करने की क्षमता भी खो देंगे। जीवाणुरोधी प्रतिरोध तब होता है, जब जीवाणु, विषाणु, कवक और परजीवी समय के साथ स्वाभाविक रूप से उत्परिवर्तित होते और आधुनिक दवाओं से प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। इससे संक्रमण का इलाज मुश्किल हो जाता है।

नतीजतन, मानक एंटीबायोटिक उपचार अप्रभावी हो जाते हैं और संक्रमण बना रहता है, जिससे रोगी के लिए खतरा बढ़ जाता है। इसको हम इस तरह समझ सकते हैं। भारत जैसे विकासशील देश में कई दवाओं की कीमत आम आदमी की हैसियत से बाहर होती है। इससे बीमारियां लगातार बढ़ती जाती हैं। रोगाणुरोधी प्रतिरोधक (एएमआर) दवाओं की कीमत बहुत ज्यादा है और इसे मानव जीवन के नुकसान के रूप में मापा जा सकता है।

‘एंटीमाइक्रोबियल स्टीवर्डशिप’ (एएमएस) एंटीमाइक्रोबिल दवाओं के उचित इस्तेमाल के जरिए भविष्य की पीढ़ियों के लिए एंटीबायोटिक असर को संरक्षित करने की प्रतिबद्धता है। चिकित्सा-क्षेत्र के शोधार्थियों के मुताबिक ‘एंटीमाइक्रोबिल स्टीवर्डशिप’ पहल का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि सही एंटीबायोटिक सही रोगी को समय समय पर, सही खुराक के साथ दी जाए, जिससे बीमार को कम से कम नुकसान हो। लेकिन जिस तरह की अव्यवस्था चिकित्सा के क्षेत्र में है, उससे नहीं लगता कि बीमार को सही वक्त पर उपयुक्त दवा और उचित इलाज बगैर किसी अतिरिक्त दबाव के मिलता है।

भारतीय चिकित्सा के क्षेत्र में कई तरह की विसंगतियां और जटिलताएं हैं। इस क्षेत्र का पूरा तंत्र ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। गौरतलब है दवाओं का भारत में बहुत बड़ा बाजार है। यहां मनमाने ढंग से वे दवाइयों के दाम तय होते हैं। इसी के साथ नकली दवाओं के कारोबार से करोड़ों लोग अनायास बीमार हो और मौत के मुंह में समा रहे हैं। ये नकली दवाइयां दस से पांच सौ गुना महंगी तो हैं ही, मरीज का इलाज करने में भी असफल रहती हैं।

पिछले चार वर्षों में करोड़ों लोग एएमआर के कारण बीमार हुए और लाखों लोग मौत के शिकार हुए। गौरतलब है कि एएमआर से पीड़ित लोगों को लगातार दवाइयां लेनी पड़ती हैं। दवा लेते रहने के बावजूद लोगों की बीमारी खत्म नहीं होती, बल्कि लगातार दवाइयां लेते रहने से वे नई बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। इन नई बीमारियों की भी दवा मरीज लेना शुरू करता है, लेकिन दवा का असर बहुत कम या होता ही नहीं। इसका कारण है कि दवाओं को लेते रहने की वजह से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता जहां खत्म हो जाती है वहीं दवा का असर बिल्कुल न होने की वजह से शरीर बीमारियों का घर हो जाता है।

चिकित्सा क्षेत्र में दुनिया में जो उपलब्धियां अर्जित की गई हैं, उससे कई देशों में चिकित्सा अत्यंत सहज और सबको उपलब्ध कराई गई है, लेकिन भारत में चिकित्सा का क्षेत्र इतनी जटिलताओं और विसंगतियों से भरा हुआ है, जिसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है। फिर भी हमें उम्मीद करनी चाहिए कि एएमआर से वैसी वैश्विक दहशत नहीं पैदा होगी, जैसा कोरोना काल में हुआ था।