बीते दिनों मध्यप्रदेश के देवास जिले में पंद्रह वर्ष के बच्चे ने सोशल मीडिया पर पटाखे वाली बंदूक बनाने का वीडियो देखा। उसमें बताए गए तरीके से उसने बंदूक बनाई। मगर अचानक उसी बंदूक से गोली चल जाने से उसकी मौत हो गई। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में आठ साल के दो बच्चों ने एक वीडियो देख कर मासूम बच्ची से गलत हरकत की। ये उदाहरण मात्र नहीं, बल्कि हमारे समाज का दुखद सच है। सोशल मीडिया के बेतहाशा इस्तेमाल के कारण बच्चे आपराधिक प्रवृत्ति का शिकार हो रहे हैं। फिर भी न तो सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर कोई प्रतिबंध लगाने की नीति बनाई जा रही है और न ही इस पर सामग्री को लेकर कोई विरोध होता दिखाई दे रहा है।

अभी हाल में आस्ट्रेलिया की संसद में लाया गया एक विधेयक चर्चा का विषय है। वहां सोलह साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने के लिए पहल की जा रही है। यह सराहनीय कदम है। देखा जाए तो सोशल मीडिया बच्चों के बाल मन पर गहरी छाप छोड़ रहा है। यह न केवल मानसिक, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर अपना कुप्रभाव डाल रहा है।

भारतीय युवा सोशल मीडिया के इस्तेमाल में अमेरिका और चीन से बहुत आगे

अनुसंधान एजंसी ‘रेडसियर’ के मुताबिक एक भारतीय हर दिन करीब 7.3 घंटे सोशल मीडिया पर गुजारता है। अमेरिकी औसतन 7.1 घंटे और चीनी नागरिक 5.3 घंटे सोशल मीडिया से जुड़े रहते हैं। भारतीय युवा सोशल मीडिया के इस्तेमाल में अमेरिका और चीन से बहुत आगे है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका और ब्रिटेन में एक युवा जहां सोशल मीडिया के सात मंचों पर मौजूद है, वहीं एक भारतीय युवा करीब ग्यारह मंचों पर मौजूद रहता है। सितंबर 2023 में प्रकाशित एक रपट के मुताबिक 46 फीसद भारतीय बच्चे सोशल मीडिया मंच, ओटीटी और ‘आनलाइन गेम्स’ का इस्तेमाल करते हैं।

भारत में ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट 2023’ की धारा 9 में अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए डेटा इस्तेमाल की शर्तों की बात कही गई है। उसमें अभिभावकों की सहमति, व्यक्तिगत डेटा के प्रसंस्करण में बाल कल्याण निगरानी और लक्षित विज्ञापन पर पाबंदी का जिक्र है। इन सबके बावजूद मासूम बच्चे धड़ल्ले से मोबाइल का इस्तेमाल करते देखे जा सकते हैं। अगर बाल मन अपराध की दलदल में फंस जाएगा, तो देश का भविष्य कैसे सुरक्षित रह पाएगा?

बच्चों के खाने-पीने के तौर-तरीकों से लेकर मानसिक स्वास्थ्य पर डाल रही असर

यह सच है कि सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर बच्चों की नींद पर पड़ता है। इससे उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हो रहा है। इतना ही नहीं, मोबाइल स्क्रीन बच्चों के खाने-पीने के तौर-तरीकों पर भी असर डाल रही है। उनकी घर से बाहर की गतिविधियां कम हो रही हैं, जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। सच है कि विज्ञान वरदान है, लेकिन इसकी अति किसी अभिशाप से कम नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि स्मार्ट फोन ने हमारी जिंदगी को आसान बनाया है। दुनिया की हर जानकारी पलक झपकते मिल जाती है, लेकिन इस कड़वे सच को भी नकारा नहीं जा सकता कि मोबाइल के बढ़ते इस्तेमाल से हम अपनों से ही दूर होते जा रहे हैं। घर-परिवार में संवाद की कड़ियां कमजोर हो रही हैं। खून के रिश्तों में भी भावनात्मक खाई बढ़ रही है।

आभासी रिश्ते जोड़ने के चक्कर में वास्तविक रिश्ते दिनों-दिन कमजोर हो रहे हैं, जिसका कुप्रभाव समाज पर साफ देखा जा सकता है।
आजकल छोटी उम्र में ही बच्चों में मोबाइल की लत लग रही है। आए दिन अपराध में उनकी संलिप्तता दिख रही है। बच्चे सोशल मीडिया मंच पर न केवल अश्लील वीडियो देख रहे हैं, बल्कि खुद भी ‘रील’ बना कर डाल रहे हैं। यहां तक कि ‘लाइक-कमेंट’ का चस्का बच्चों के बाल मन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। अभिभावक तक सस्ती लोकप्रियता के फेर में बच्चों को सोशल मीडिया के इस्तेमाल की खुली छूट दे रहे हैं। अभी हाल में अभिनव अरोड़ा के मामले को भला कौन भूल सकता है कि कैसे उसे सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया! इस घटना के बाद उसे न्यायालय की शरण लेनी पड़ी थी। वैसे यह कोई पहली घटना नहीं है। अक्सर छोटी उम्र की बच्चियों की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल होने पर घटिया टिप्पणी आम बात हो गई है।

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सस्ती लोकप्रियता और कम उम्र में मशहूर होने की ख्वाहिश के कारण बच्चों का सोशल मीडिया के प्रति झुकाव सही नहीं है। बड़ी संख्या में प्रतिक्रिया की चाहत बच्चों को गहरे मानसिक अवसाद की तरफ धकेल रही है, जो कहीं न कहीं समाज के लिए घातक है। ऐसे में बच्चों को नैतिक संबल देने के साथ उन्हें यह बताने की जरूरत है कि सोशल मीडिया किसी रोग से कम नहीं। इसलिए इसका विवेकपूर्ण उपयोग ही इसका सही समाधान है।

‘कामन सेंस मीडिया’ की एक रपट के मुताबिक दस वर्ष की उम्र के करीब 41 फीसद बच्चों के हाथ में स्मार्ट फोन है। जबकि 14 वर्ष तक आते-आते 91 फीसद बच्चे किसी न किसी रास्ते से स्मार्ट फोन की जद में आ जाते हैं। विडंबना है कि भारत मोबाइल फोन के इस्तेमाल में दुनिया में दूसरे नंबर पर है, लेकिन इस बात की फिक्र किसी को नहीं है कि उनके मासूम बच्चे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर क्या देख रहे हैं। वैसे देखा जाए, तो गलती बच्चों की नहीं है। हमने ही बच्चों को इतना एकाकी बना दिया है कि वे आसानी से किसी से घुल-मिल नहीं पाते हैं। संयुक्त परिवार के अभाव के कारण बच्चों का ज्यादातर समय मोबाइल फोन चलाने में बीतता है। यूनेस्को के मुताबिक मोबाइल फोन का अंधाधुंध इस्तेमाल से बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन में तो कमी आती ही है, उनका मनोबल भी कमजोर होता है।

बीते माह भारत के 368 शहरों में 70 हजार बच्चों के अभिभावकों पर हुए सर्वे की एक रपट के मुताबिक बच्चों के ‘स्क्रीन टाइम’ का 61 फीसद समय सोशल मीडिया पर गुजरता है। जबकि 52 फीसद समय आनलाइन गेम में चला जाता है। इसके चलते बच्चों में आक्रामकता का स्तर 58 फीसद तक बढ़ गया है। छोटी-छोटी बातों पर बच्चों का गुस्सा करना और मारपीट पर उतारू होना आम बात हो गई है। जबकि सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल के कारण 49 फीसद बच्चे आलसीपन का शिकार हो गए हैं।

यहां तक कि बच्चों में मोटापा और मधुमेह भी बढ़ रहा है। बच्चे असाध्य रोगों का शिकार हो रहे हैं। अमेरिका और आस्ट्रेलिया की तरह हमारे देश में भी कोई ठोस कदम बच्चों को सोशल मीडिया के भंवर जाल से बचाने के लिए उठाया जाता है, तो यह देश के भविष्य और वर्तमान दोनों के लिए उचित होगा और इससे मासूम बालमन अपराध और अवसाद के अंधकार में फंसने से बच पाएगा।