अंशुमान शुक्ल
डॉ. भीमराव आंबेडकर इस बार भारतीय जनता पार्टी को अवसर की तरह नजर आ रहे हैं। भाजपा के नेताओं को इस बात का भरोसा है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने की उनकी कोशिश को डा. आंबेडकर का साथ आसान कर सकता है। ऐसी ही खुशफहमी की शिकार कांग्रेस भी हुई थी लेकिन सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में उसे मिली सिर्फ दो सीटों ने सपने पर पानी फेर दिया था। इस बार 73 सांसदों को जिता कर भाजपा मायावती की पेशानी पर बल पैदा करने का ताना-बाना बुन रही है। इसे आकार देने के लिए प्रदेश के भाजपा नेताओं ने शुक्रवार का पूरा दिन दलित बस्तियों में बिताया।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने दलितों को पार्टी से जोड़ने के लिए नारा दिया है, ‘बाबा आंबेडकर का आशीर्वाद, चलो चलें मोदी के साथ’। भाजपा के दलितों से खुद को जोड़ने की असल वजह राजनीति के जानकार सोलहवीं लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता को ठहराते हैं। जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 73 पर विजय हासिल करने के बाद भाजपा को अहसास हुआ कि उनकी इस जीत में दलितों का अहम योगदान है। उनकी मदद के बिना इस तरह का चमत्कार नहीं हो सकता था। इस जीत ने गांव और शहरों के दक्षिणी कोनों पर रहने वाले दलितों तक पहुंचने की रूपरेखा तैयार की। भाजपा के इरादों से बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सकते में हैं।
यही वजह है कि मायावती ने बदायूं में दो बहनों के फांसी लगाने की घटना के बाद वहां का दौरा किया था ताकि वे दलितों के साथ खड़ी रहने का संदेश दे सकें। दरअसल सोशल इंजीनियरिंग के सूत्र के बसपा पर हावी होने के बाद पार्टी का पारंपरिक वोट कहा जाने वाला अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का मतदाता उससे दूर हो गया। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में ही मतदाताओं की इस बिरादरी ने मायावती को इसका अहसास करा दिया था।
पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के साथ धूलधूसरित हुए मायावती के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब ने बहनजी को पुराने एजंडे पर लौटने को मजबूर कर दिया था। उस वक्त वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने 25 जून, 2009 को अपने अंदाज में दलित एजंडे पर दोबारा लौटने की घोषणा की थी।
मायावती ने तब घोषणा की कि प्रदेश के दो हजार आंबेडकर गांवों में आठ सौ करोड़ रुपए की लागत से सीसी रोड बनाई जाएगी जिसकी शुरुआत दलित बस्तियों से होगी। अनुसूचित जाति व जनजाति के मतदाताओं को खुश करने के लिए भी मुख्यमंत्री मायावती ने कई एलान किए। इसमें प्रदेश के दो हजार आंबेडकर गावों में 260 करोड़ रुपए की लागत से सोलर लाइट लगाने का एलान किया। ये लाइटें पहले दलितों की बस्तियों में लगाने की बात कही गई। एलान हुआ कि प्रदेश सरकार की प्रत्येक निर्माण इकाई के पांच लाख रुपए तक के ठेकों में अनुसूचित जाति के ठेकेदारों को 21 फीसद और अनुसूचित जनजाति के ठेकेदार को दो फीसद आरक्षण दिया जाएगा। इतने के बाद भी 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में दलितों ने मायावती को सिरे से खारिज कर दिया। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में बसपा उत्तर प्रदेश में एक सीट जीत पाने को मोहताज हो गई।
जिस दौरान मायावती अपने पारंपरिक वोट बैंक से आगे जाकर सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को अपनाने में जुटी थीं, उसी दौरान राहुल गांधी की शक्ल में कांग्रेस दलितों की झोपड़ी में दाखिल होने का संदेश दे रही थी। पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के पूर्व राहुल गांधी ने प्रदेश के कांग्रेसियों को दलितों के साथ सहभोज करने और उनकी बस्ती में रात बिताने का आदेश दिया। 10 मार्च, 2009 को प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं ने तीन सौ दलित परिवारों के घर रात बिताई और सहभोजन किया। लोकसभा चुनाव में दलित मतदाताओं ने कांग्रेस पर भरोसा दिखाया और उसे 23 सीटें मिलीं। लेकिन विधानसभा चुनाव के आते-आते उनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया। अब भाजपा दलितों में पांव जमाने की पुरजोर कोशिश में है।
उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने की भाजपा की कोशिश में प्रदेश के दलित अहम भूमिका निभा सकते हैं। विधानसभा चुनाव में दो साल का वक्त है। लेकिन उसके पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को दलितों को भरोसा दिलाना होगा कि सरकार उनके बारे में पूरी तरह संजीदा है। इस भरोसे को पैदा किए बिना बहुत कुछ हासिल कर पाने की भाजपा की हसरत हकीकत में कितनी तब्दील होगी? इस पर कुछ कह पाना जल्दबाजी है। लेकिन इतना जरूर है कि बिना दलितों के बारे में संजीदगी से सोचे सिर्फ उनको वोट बैंक बनाकर राजनीति करने के दिन शायद अब चुक चुके हैं। बसपा इसका जीती जागती उदाहरण है।