पश्चिम बंगाल में जिस तरह राजनीतिक हिंसा की घटनाएं आम हो चुकी हैं, उससे ऐसा लगता है कि वहां लोकतांत्रिक तरीके से अपने विचारों की राजनीति करने से ज्यादा प्राथमिक सीधे टकराव को मान लिया गया है। वरना क्या वजह है कि अगर दो दलों या उनके नेताओं के बीच किसी मुद्दे पर मतभेद है, तो उस पर संवाद के बजाय उनके कार्यकर्ता आक्रामक रुख अख्तियार कर लेना अपना पहला काम मान लेते हैं। गुरुवार को राज्य की विधानसभा में विपक्ष के नेता और भाजपा विधायक शुभेंदु अधिकारी के काफिले पर पथराव की घटना इसका ताजा उदाहरण है कि वहां राजनीतिक गतिविधियों का अर्थ स्वस्थ बहस या संवाद नहीं रह गया है, बल्कि हिंसक रास्ते के जरिए अपने प्रतिद्वंद्वी को रोकने की कोशिश की जाती है।

गौरतलब है कि शुभेंदु अधिकारी पार्टी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाए जाने के मसले पर पुलिस अधीक्षक से मिलने जा रहे थे कि इसी बीच रास्ते में उनके काफिले में शामिल वाहनों पर पत्थरों और डंडों से हमला हुआ। यह समझना मुश्किल है कि राज्य में इस तरह की घटना के वक्त पुलिस मूकदर्शक क्यों बनी रहती है।

West Bengal News: शुभेन्दु अधिकारी के काफिले पर हमला, बीजेपी MLA बोले- TMC ने पुलिस की मौजूदगी में किया अटैक

स्वाभाविक रूप से इस घटना के बाद एक रिवायत की तरह भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप के क्रम ने फिर जोर पकड़ लिया, लेकिन सच यह है कि राज्य की राजनीति में हिंसा या आक्रामकता एक आम चलन के रूप में घुल गई है। लगभग सभी दल इसी को अपना प्राथमिक औजार मानने लगे हैं। शुभेंदु अधिकारी के काफिले पर हमला इस तरह की कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले कुछ दिनों के दौरान तृणमूल कांग्रेस से जुड़े दो नेताओं की हत्या की खबरें आईं।

इससे पहले भाजपा के एक नेता के आवास के बाहर बम विस्फोट की घटना हुई थी। विडंबना है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा को एक अघोषित मूल्य के रूप में देखा जाने लगा है। खासतौर पर वहां चुनावों के दौरान हिंसा-प्रतिहिंसा की घटनाओं में तेजी आ जाती है। मगर अब ऐसी घटनाएं निरंतरता में होने लगी हैं। सवाल है कि क्या यह राज्य के पुलिस तंत्र के बेअसर हो जाने का उदाहरण है। अगर यह स्थिति बनी रहती है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में लोकतंत्र के सामने किस तरह का संकट खड़ा होगा।