विजय गोयल

अटलजी के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है, मगर जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात उन्हें औरों से अलग करती है वह यह है कि एक इंसान ग्यारह साल से अस्वस्थ रहा, राजनीति में कोई सक्रियता नहीं रह गई थी, न वह कोई ब्लॉग लिख रहा था, न सोशल मीडिया-फेसबुक, ट्विटर पर सक्रिय था, लेकिन फिर भी उसकी लोकप्रियता चरम पर है। वह उस युवा पीढ़ी में भी बेहद लोकप्रिय है जिसने उनको प्रत्यक्ष देखा या सुना तक नहीं। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद अटलजी लगभग 2004 से ही नेपथ्य में थे। पर यह उनका करिश्मा ही था कि प्रधानमंत्री सहित लाखों लोग उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए पैदल नहीं चल रहे थे, बल्कि मानो उनके दिखाए रास्ते पर चल रहे थे।

अटलजी ने कभी किसी पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए। उनको जब भी कोई बात चुभी तो उन्होंने उसका माकूल जवाब भी दिया। उन्होंने अपनी भावनाओं को कभी छुपाया नहीं। उनमें धैर्य था। वे नियति पर विश्वास रखते थे। कोई भी बात बोलने से पहले और कोई भी कदम उठाने से पहले वे दस बार सोचते थे। व्यर्थ की बातों में उलझते नहीं थे। इसके कितने ही उदाहरण हैं मेरे पास। एक बार प्रधानमंत्री अटलजी को किसी सरकारी कार्यक्रम में जाना था। कार्यक्रम में जाने और जजों के कोर्ट में जाने का वही समय और रास्ता था। उन्होंने तत्काल कहा- पहले जजों को जाने दें, हम अपना समय बदल लेंगे। एक बार छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी विधायकों के साथ बिना समय लिए प्रधानमंत्री से मिलने की जिद करने लगे। प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री होने के नाते हम लोग कह रहे थे कि उनको नहीं मिलना चाहिए। परंतु उन्होंने कहा, आने दो।

तीसरा उदाहरण है जब जून, 2002 में ‘टाइम’ पत्रिका ने उनके स्वास्थ्य को लेकर अशोभनीय टिप्पणी की थी। हम सब गुस्से में थे। पर उन्होंने संयम रखा। ऐसे ही, जब पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने जुलाई, 2001 में भारत में एक संवाददाता सम्मेलन में भारत के लिए उल्टा-सीधा कहा, तब अटलजी पर दवाब था कि वे मुहतोड़ जवाब दें, लेकिन उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई।एक और घटना मुझसे जुड़ी है। पार्टी के संसदीय बोर्ड ने, जिसके अध्यक्ष अटलजी थे, मेरा नाम 1991 में चांदनी चौक संसदीय सीट से लड़ने के लिए तय किया था। परंतु कुछ स्थानीय नेताओं के विरोध के कारण मेरा नाम काटा गया तो उन्होंने कटने दिया और मुझे कहा कि अगर तुममें क्षमता है तो तुम्हें कोई रोक नहीं पाएगा। पार्टी का काम करते रहो।

अटलजी राजनीति से ज्यादा सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक व्यक्ति थे। अन्य गुणों के साथ-साथ उनकी भाषण कला ने उनको राजनीति के शिखर पर पहुंचाया। अक्सर वे मुझसे फक्कड़पन की बात करते थे। मेरी उनसे निकटता ही इसलिए हुई कि मैं केवल राजनीति में ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय था और उनको सामाजिक कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहता था। कार्यक्रमों में उन्हें खूब आनंद आता था, पर वे कार्यक्रमों में आने के लिए पहले ना-ना जरूर करते थे। मैं भी उनके स्वभाव से परिचित था, इसलिए कई बार जिद कर लेता था और वे आते थे। कई नाटक उन्होंने मेरे आग्रह पर देखे। फिल्में उन्हें अच्छी लगतीं। पुरानी फिल्मों में ‘बंदिनी’, ‘तीसरी कसम’ उन्हें बहुत पसंद थी। एक बार आडवाणीजी को एक फिल्म के लिए आना था, पर वे नहीं आ पा रहे थे। हमने अटलजी से आग्रह किया और वे तुरंत राजी हो गए। फिल्म का नाम था ‘1942 ए लवस्टोरी’। प्रेम और देशभक्ति की यह फिल्म उन्हें काफी अच्छी लगी।

अटलजी अपनी सोच से कभी नहीं डिगे। परिणामों की चिंता उन्होंने कभी नहीं की। जब 1984 के दंगों में सिखों का कत्लेआम हुआ तब सबसे पहले आवाज उठाने वाले वही थे। यहां तक कि अपने निवास रायसीना रोड के बाहर टैक्सी स्टैंड पर रहने वाले सिखों को बचाने के लिए वे स्वयं बाहर निकले। अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने को उन्होंने दुर्भाग्यपूर्ण कहा था। उन जैसी परिपक्वता कम नेताओं में ही मिलती है। वर्ष 2001 में जब संसद भवन पर हमला हुआ था, उस वक्त वे घर से संसद आने के लिए निकल ही रहे थे। मैं संसद में था। मैंने उनको तुरंत खबर दी। बाद में मैं जब घर गया और कहा, मैंने तो सोचा था कि आप तुरंत कोई वार-ग्रुप की मीटिंग बुलाएंगे। उन्होंने कहा- ‘अगर मैं सबकी बैठक बुलाता तो जिन लोगों को एक्शन करना था वे अपना काम कैसे करते।’ उस दिन पर वे सारे घटनाक्रम पर नजर रखे हुए थे।

वे स्पष्टता और आलोचना को बुरा नहीं समझते थे। कम से कम मैंने तो कभी नहीं देखा। जब वे प्रधानमंत्री बने तो साल भर बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘लोग क्या कह रहे हैं, सरकार कैसे चल रही है।’ डरते-डरते मैंने कहा- ‘लोग कह रहे हैं कि सरकार चल ही कहां रही है।’ इस पर उन्होंने जोर का ठहाका मारा। उनको मालूम था कि सरकार की नीतियों के परिणाम एक दम से नहीं आते। जब मैं प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री नहीं था तब भी मैं नियमित रूप से उन्हें सुझाव भेजा करता था और वे उनकी कद्र भी करते थे। एक बार मैंने उनको उनके भाषण के लिए एक कविता दी जो ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ पर उनको देना था। उन्होंने कविता पढ़ी और रख दी। मुझे लगा शायद उनको पसंद नहीं आई। पर दो घंटे बाद, कार्यक्रम से पहले उन्होंने अपने सचिव से कहा कि गोयल ने जो कविता दी थी वह लाओ। मैं तब तक वहां से एक कार्यक्रम के लिए जा चुका था। कविता मेरी जेब में थी। तब मैंने उनके सहयोगी को वह कविता मोबाइल पर लिखवा दी और उन्होंने वह पढ़ी भी।

आपातकाल में, मैं और मेरे पिताजी दोनों जेल में थे। इसके तुरंत बाद मैं दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष बना। हम वाइस चांसलर को हटाने की मांग कर रहे थे, क्योंकि वे भी आपातकाल की ज्यादतियों के जिम्मेदार थे। उल्टे मुझे ही विश्वविद्यालय ने एक प्रदर्शन के कारण निष्कासित कर दिया। तब अटलजी को बहुत गुस्सा आया। वे उस समय मोरारजी देसाई सरकार में विदेश मंत्री थे। उन्होंने तुरंत दिल्ली के सांसदों को साथ लिया और राष्ट्रपति से हमारे हक में मिलने गए। वे अपने से छोटे-बड़े सबका ध्यान और सम्मान करते थे।

प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री होने के नाते अक्सर मुझे उनके साथ विशेष विमान से यात्रा में साथ जाने का मौका मिलता था। वे अक्सर हास्य-विनोद करते थे। एक बार वे अच्छे मूड में थे। मैंने उनकी पसंदगी और नापसंदगी पूछ ली। उन्होंने बताया कि उनको मांसाहार और शाकाहार दोनों और चांदनी चौक की चाट पसंद है। फिल्मों में तीसरी कसम, देवदास, गानों में सचिन देव बर्मन का ‘ओरे मांझी…’, खेल में हॉकी और फुटबाल पसंद है। एक बार मैंने पूछा- आपको गुस्सा नहीं आता, तो उन्होंने कहा- बहुत आता है पर संयम रखता हूं। मेरे बारे में जब कोई सिफारिश करता था, तो कहते थे विजय और मेरे बीच में कोई नहीं आएगा, उसकी सिफारिश तुम मत करो।

इसके बाद तो लगातार मेरा विपक्षी दलों और एनडीए के घटकों के साथ औपचारिक-अनौपचारिक तालमेल बना रहा। प्रधानमंत्री ने मुझे बहुत-सी जिम्मेदारियां सौंपी थीं। जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय में जन निवारण केंद्र संभालना, प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र लखनऊ को देखना, राज्यों के साथ संबंधों को देखना और जिन राज्यों में आपस में विवाद थे उन्हें देखना और अन्य विषयों के साथ-साथ एनडीए के सहयोगी दलों के साथ भी तालमेल रखना। सारा घटनाक्रम आज सजीव हो उठा है। राजनीतिक सलाहों पर वे ध्यान देते थे। जब जयललिता की ओर से एनडीए से नाता तोड़ने की सुगबुगाहट थी, तब मैंने उनसे कहा कि मैं जयललिता को अपने निवास पर रात्रि भोज में बुलाता हूं, आप आएंगे तो गलतफहमियां दूर होंगी। उन्होंने आना स्वीकार किया और फिर उन्होंने और जयललिता ने एक साथ भोजन किया। पर अफसोस बर्फ पिघल न पाई।

अक्सर लोग पूछते हैं- वाजपेयी की विरासत को कौन संभालेगा? मेरा जवाब होता है- संभालेगा नहीं, संभाल रहा है। और वे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। आज मोदी, अटलजी से एक कदम आगे बढ़ कर पूरी जनता से ही मन की बात और यहां तक कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण के सुझाव भी मांग लेते हैं। मोदी जी ने मुझे एक बार स्वयं कहा था कि अटलजी जैसी ऊंचाई कोई नहीं पा सकता। पूरे देश में पंचतंत्र की कहानियों की तरह अटलजी को लेकर घटनाओं के वर्णन हो रहे हैं। युगपुरुष अटल बिहारी वाजपेयी मन, वचन और कर्म से राष्ट्र के प्रति पूर्णत: समर्पित नेता थे। हर दल में उनके प्रशंसक हैं। विरोधी भी उनकी प्रतिभा के कायल थे। ओजस्वी वक्ता, साहित्यकार, कवि, कुशल प्रशासक व जननायक अटलजी के गुणों की चर्चा उनके उठाए गए हर कदम से होती है। कबीरदास का यह दोहा उन पर पूरी तरह चरितार्थ होता है-

‘सात समंद की मसि करो और लेखनी सब बनराइ।
धरती सब कागद करों, फिर भी हरि गुण लिखा न जाइ।’

(लेखक संसदीय कार्य राज्यमंत्री हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)