उर्मिलेश

ऐसे खंडित जनादेश के बाद यही होना था। साल 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद कुछ ऐसा ही हुआ था। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के बीच खूब खींचतान चली। चुनावी नतीजे के 22 दिनों बाद पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन सरकार बनाने पर सहमति बनी और नए सत्ता समीकरण का फार्मूला निकला। लेकिन तब और अब में बड़ा फर्क है। उस वक्त सूबे की सियासत में भाजपा की कोई खास भूमिका नहीं थी, उसके महज दो विधायक थे।

अब 2014 में उसके पास 25 विधायक हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह 44 से ज्यादा के दावे पर भले खरे न उतरे हों पर उनकी जोड़ी ने सरहदी सूबे की सियासत में अपनी पार्टी को दूसरे नंबर पर ला ही दिया। पार्टी के पास केंद्र में सिर्फ सत्ता ही नहीं है, सक्रिय नेतृत्व का आत्मबल और धनबल भी है। कुछ निर्दलीय सदस्यों को पटाकर वह खुद अपना मुख्यमंत्री चाहती है।

सबसे बड़ी पार्टी के रूप में न उभरने के बावजूद भाजपा आखिर अपनी अगुआई में सरकार बनाने के लिए बेचैन क्यों है? क्या उसमें केरल के माकपा नीत एलडीएफ जैसी राजनीतिक विनम्रता नहीं कि महज दो विधायक कम होने के बावजूद माकपा ने कांग्रेस नीत यूडीएफ सरकार बनाने के रास्ते में रोड़ा बनने से परहेज किया। एकल दल के चुनावी प्रदर्शन के हिसाब से देखें तो 2011 के केरल चुनाव में माकपा की सीटें कांग्रेस से ज्यादा आर्इं थीं। लेकिन माकपा और कांग्रेस, दोनों चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ चुनाव लड़ीं, इसलिए सरकार बनाने के मामले में गठबंधन के आकार और संख्या बल को अहम माना गया। जम्मू कश्मीर में केरल जैसा कोई गठबंधन भी नहीं था।

खंडित जनादेश की तस्वीर साफ है। पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन मुफ्ती सईद भाजपा नेताओं की तरह सरकार बनाने की बेचैनी नहीं दिखा रहे हैं। उनकी खामोशी का कारण है, प्रस्तावित गठबंधनों को लेकर उनका असमंजस। उनके पास दो ही विकल्प हैं-कांग्रेस और निर्दलीय सदस्यों के समर्थन से सरकार बनाएं या भाजपा से कड़ी राजनीतिक सौदेबाजी करें। कांग्रेस से लेकर नेशनल कांफ्रेंस, सभी उन्हें समर्थन की मौखिक पेशकश कर चुके हैं। फिर मुफ्ती किसका इंतजार कर रहे हैं? क्या झेलम किनारे इस बार हरा (पीडीपी के झंडे का रंग) और भगवा, दोनों मिलकर लहराना चाहते हैं?

भाजपा पर संघ का इस बार भारी दबाव है। संघ को लग रहा है कि जम्मू कश्मीर में पार्टी को इतनी सीटें निकट भविष्य में शायद ही आएं। ऐसे में सरकार बनाकर एक बड़े सपने को पूरा किया जा सकता है। भाजपा भी पूरी दुनिया के सामने मोदी की अभूतपूर्व दिग्विजयी-तस्वीर पेश कर सकती है-एक मुसलिम बहुल सूबे में हिंदुत्ववादी राजनीतिक संरचना की अगुआई वाली सरकार! कश्मीर को लेकर संघ का सपना तो बहुत पुराना है। जनसंघ के गठन के समय 1951 में यह सपना देखा गया था।

सूबे में शेख अब्दुल्ला की सरकार ने जब क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू किए तो वहां के पूर्व शासक समूहों, सामंतों, बड़े जमींदारों और दक्षिणपंथी गुटों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इसी का नतीजा था-शेख के खिलाफ प्रजा परिषद नामक दक्षिणपंथी संगठन का छेड़ा गया आंदोलन। इसमें संघ के वे तमाम नेता-कार्यकर्ता शामिल थे, जो बाद के दिनों में प्रदेश के अंदर जनसंघ के स्तंभ बने। प्रजा परिषद ने नारा दिया, ‘एक देश में दो विधान, एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा’।

आंदोलन की असल वजह था, भूमि सुधार। कश्मीर के भारतीय राष्ट्र-राज्य में शामिल होने से पहले सूबे में एक खास वर्ग का सत्ता, संपदा, जमीन, पर्यटन उद्योग, सेब के बगीचों और अफसरशाही पर संपूर्ण वर्चस्व था। नया कश्मीर बनाने के अपने लोकप्रिय नारे के साथ शेख अब्दुल्ला ने एकाएक उस व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। भारत में बुनियादी भूमि सुधार का पहला कदम कश्मीर में उठाया गया। प्रजा परिषद और जनसंघ जैसे राजनीतिक दल डोगरा जमींदारों और अन्य धनाढ्य तत्त्वों के झंडाबरदार बनकर उभरे। लेकिन अपने आंदोलन के लिए उन्होंने बड़े आकर्षक नारे और मुद्दे उछाले ताकि जम्मू की हिंदू आबादी को शेख सरकार के खिलाफ गोलबंद किया जा सके। माहौल बहुत उत्तेजक था। इसी अभियान के दौरान जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माधोपुर के पास गिरफ्तारी हुई।

जेल में उनकी तबीयत खराब चल रही थी और आधिकारिक तौर पर बताया गया कि 23 जून, 1953 को हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गई। माहौल बहुत तनावपूर्ण और उत्तेजक हो गया। केंद्रीय नेतृत्व और कई बड़े कांग्रेसी दिग्गज भी शेख से अन्य कारणों से चिढ़े थे। अंतत: कुछ ही समय बाद सूबे के प्रधानमंत्री शेख को गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई। उन पर अलगाववादी मुहिम चलाने का आरोप लगा था। उनकी जगह मंत्रिमंडल के सदस्य रहे बख्शी गुलाम मोहम्मद को नए प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई गई। तब सूबे का मुखिया वजीर-ए-आजम (प्रधानमंत्री) कहलाता था।

उसी दौर से आरएसएस-जनसंघ के नेताओं का ‘कश्मीर-फतह’ एक बड़ा महत्वाकांक्षी सपना रहा है। जनसंघ के एक पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने कश्मीर विषयक अपनी पुस्तिका में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। आज की भाजपा कश्मीर के बारे में संघ के उसी सपने को मूर्त करने में लगी है। लेकिन भाजपा नेता अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार की अगुआई की जिम्मेदारी पाना इतना आसान भी नहीं। मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए भाजपा ने सबसे पहले पीडीपी से नहीं, अपेक्षाकृत छोटे दल के रूप में उभरे नेशनल कांफ्रेंस से संपर्क साधा। नेशनल कांफ्रेंस अटल बिहारी वाजपेयी काल में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रह चुकी है।

उन दिनों फारूक अब्दुल्ला सूबे के मुख्यमंत्री और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला वाजपेयी सरकार में विदेश राज्यमंत्री थे। पुराने रिश्तों की टूटी डोर फिर से जोड़ने की कोशिश हुई। बताते हैं, इसके लिए निर्वतमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से बातचीत भी हुई। लेकिन मुख्यमंत्री के सवाल पर उमर साफ मुकर गए। भाजपा नेता शायद इस बात को भूल गया कि वाजपेयी-काल में भी नेशनल कांफ्रेंस का भाजपा से गठबंधन सिर्फ केंद्रीय राजनीति में था, सूबे में फारूक ने भाजपा से किसी तरह का रिश्ता नहीं रखा। उमर अब्दुल्ला क्या अपने पिता से भी आगे जाकर भाजपा के सामने पूरी तरह आत्मसर्मपण करने को राजी होते? उमर के लिए ऐसा करना आसान नहीं। नेकां का नेतृत्व जरूर वंश आधारित है पर पार्टी संगठन के विभिन्न स्तरों पर अब भी लोकतांत्रिक जीवंतता के कुछ तंतु मौजूद हैं। अभी हाल में जिस तरह पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को विश्वास में लिए बगैर उमर के भाजपा के साथ संपर्क साधने की खबरें आर्इं, उसे लेकर घाटी में तीखी प्रतिक्रिया हुई।

ऐसा ही कुछ इस वक्त मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी में चल रहा है। माना जा रहा है कि महबूबा मुफ्ती और मुजफ्फर हुसैन बेग जैसे कुछ प्रमुख पीडीपी नेता सरकार बनाने के लिए भाजपा को सबसे बेहतर साझीदार के रूप में देखते हैं। बेग ने तो चुनावी नतीजे के बाद इस आशय का बयान भी दिया, जिसमें घाटी और जम्मू के समुचित प्रतिनिधित्व वाली सरकार का हवाला देते हुए प्रकारांतर से पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार को वक्त की जरूरत बताया गया। उनके बयान का पीडीपी के अंदर विरोध शुरू हो गया। आलोचकों ने यहां तक कहा कि बेग मोदी सरकार में स्वयं कैबिनेट मंत्री बनना चाहते हैं, इसलिए पीडीपी-भाजपा गठबंधन की वकालत कर रहे हैं।

उन्हें लगता है कि राज्य में भाजपा-समर्थन से मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बनेंगे तो केंद्र में भी पीडीपी को हिस्सेदारी मिलेगी। पार्टी के तीनों सांसदों में सबसे वरिष्ठ होने के नाते उन्हें केंद्रीय मंत्री का पद मिल जाएगा। लेकिन श्रीनगर से पार्टी सांसद और मुफ्ती के बेहद करीबी माने जाने वाले तारिक कर्रा ने पार्टी के अंदर बेग की लाइन से अपनी असहमति जता दी। परस्पर विरोधी बयानबाजियों से तंग आकर अब पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने सख्त निर्देश जारी किया है कि सरकार गठन के बारे में बयान जारी करने का अधिकार सिर्फ पार्टी प्रवक्ता को होगा, सांसद या विधायक अपने मन से कोई बयान न जारी करें।

पीडीपी में मुफ्ती और ज्यादातर नेता भाजपा के साथ सरकार बनाने के विचार के खतरे से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उन्हें मालूम है कि अनुच्छेद-370, सशस्त्र सैन्य बल विशेष अधिकार कानून (अफस्पा) और समान नागरिक संहिता जैसे खास मुद्दों पर भाजपा और पीडीपी के विचारों में जमीन-आसमान का फर्क है। दोनों ही पार्टियां अपने विचारों से पीछे नहीं हट सकतीं। ऐसे में सत्ता-हिस्सेदारी का गठबंधन असहज और बेमेल होगा। और 25 विधायकों वाली भाजपा के समर्थन से सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री के तौर पर मुफ्ती को काम करने की आजादी भी नहीं मिलेगी। समय-समय पर दोनों दलों के बीच अपने परस्पर विरोधी एजंडे को लेकर टकराव होता रहेगा।

ऐसे गठबंधन के पक्ष में पुख्ता दलील दी जा रही है। पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं को लग रहा है कि सरकार अगर कांग्रेस और कुछ निर्दलीय सदस्यों के सहयोग से बनती है तो भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार से सूबाई सरकार को अपेक्षित आर्थिक-प्रशासनिक सहयोग नहीं मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वाजपेयी की तरह उदार भी नहीं हैं। मुफ्ती ने सूबे में कांग्रेस समर्थित अपनी पहली सरकार 2002 में बनाई थी, तब केंद्र की तत्कालीन वाजपेयी सरकार से उन्हें पूरा सहयोग मिला। लेकिन आज का राजनीतिक माहौल अलग है और सूबे में भाजपा की हैसियत भी अलग है। मुफ्ती का असल द्वंद्व यही है। झेलम किनारे जारी इस सत्ता-संघर्ष का पटाक्षेप हर हालत में जनवरी, 2015 के दूसरे हफ्ते से पहले होना है।

सरकार बनाने में ये सियासी दल फिलहाल विफल रहे तो सूबे में कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन का विकल्प आजमाया जा सकता है। लेकिन यह बेहतर विकल्प नहीं है। सर्वोत्तम विकल्प है निर्वाचित सरकार का गठन। मौजूदा हालात में पीडीपी को ही सरकार गठन का पहला मौका मिलना चाहिए। उसका समर्थन कांग्रेस और निर्दलीय सदस्य करें या नेशनल कांफ्रेंस! जहां तक पीडीपी-भाजपा के बीच संभावित गठबंधन का सवाल है, राजनीतिक-वैचारिक स्तर पर वह बेमेल और अस्वाभाविक होगा। अनुच्छेद-370 जैसे संघी-एजंडे को गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम से दरिकनार किए बगैर अगर पीडीपी ने भाजपा समर्थन से सरकार बनाई तो वह कश्मीर और देश के हक में नहीं होगा। किसी दबाव में मुफ्ती ने ऐसा समझौता किया तो सरकार भले बन जाए लेकिन वह झेलम किनारे पीडीपी की सियासी खुदकुशी जैसा होगा।