आखिर बिहार चुनाव क्यों इतना अहम हो गया है? आप राष्ट्रीय स्तर पर इसे काफी अहम बता रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया के राजनयिकों की भी यह जानने में दिलचस्पी है कि कौन जीत रहा है, कुछ ने तो वहां अपनी टीमें भी भेजी हैं।
अगर बिहार चुनाव पर विदेशियों की भी नजर है तो इससे यही साबित होता है कि पिछले डेढ़ साल में नरेंद्र मोदी भारत की छवि को विश्व मंच पर एक नए स्तर तक ले गए हैं।
आपने सीधा जवाब नहीं दिया।
नहीं, मैं उनकी (विदेशियों) दिलचस्पी की सही मायने में व्याख्या कर रहा हूं (मुस्कुराते हुए)।
उनका अपना नजरिया हो सकता है। उदाहरण के लिए, अगर मोदी-शाह यह चुनाव हार जाते हैं तो उनका राजनीतिक कद काफी कम हो जाएगा और आर्थिक सुधारों को झटका लगेगा। कहीं यह चिंता तो उन्हें पटना की ओर देखने के लिए मजबूर नहीं कर रही?
हार को तो सवाल ही नहीं उठता। हम दो-तिहाई बहुमत से जीतेंगे। मैं किसी भी सूरत में एनडीए को दो-तिहाई से कम बहुमत मिलने का कोई कारण नहीं देखता हूं।
इस चुनाव ने एक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच मुकाबले की शक्ल ले ली है।
ऐसा मीडिया ने किया है। प्रधानमंत्री को किसी भी चुनाव में प्रचार करने का हक है। मेरी यह मजबूत धारणा है कि पार्टी के सर्वोच्च नेता को पार्टी के नजरिए से जनता को अवगत कराना चाहिए। मुझे इसमें न कोई गड़बड़ नजर आती है और न इससे बेहतर कोई तरीका समझ आता है। जब जनता को यह तय करना है कि वह किसे वोट दे तो लोकतंत्र में यह बहुत जरूरी है कि पार्टी का सबसे बड़ा नेता सीधे जनता से मुखातिब हो।
लेकिन जब वसुंधरा राजे या शिवराज सिंह चौहान चुनाव लड़ रहे होते हें तो आप मोदी कार्ड नहीं चलते हैं, क्या आप ऐसा करते हैं?
‘कार्ड’ या ‘स्टार कैंपेनर’ मीडिया के गढ़े हुए शब्द हैं। नरेद्र भाई भाजपा के सर्वोच्च नेता हैं। अगर वह भाजपा का संदेश बिहार की जनता तक पहुंचा रहे हैं तो मुझे इसमें कुछ गलत नहीं लगता।
यह एक आम धारणा है कि आप ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आपके अंदर इस बात को लेकर कहीं न कहीं आत्मविश्वास की कमी है कि आप किसी को सीएम कैंडिडेट प्रोजेक्ट नहीं कर सके। आप कैसे इस धारणा का खंडन करेंगे?
सचमुच? क्या महाराष्ट्र में हमारा आत्मविश्वास कमजोर था? आपकी थ्योरी के मुताबिक हमें झारखंड या हरियाणा में भी आत्मविश्वास नहीं था। लेकिन हम तीनों राज्यों में जीते। मुझे लगता है कि आपको हमारे आत्मविश्वास का स्तर परखने का पैमाना बदलने की जरूरत है। यह हमारी रणनीति है। हम हर राज्य में वहां के जमीनी हालात को देखते हुए रणनीति बदलते रहते हैं।
इसी मुद्दे से जुड़ा एक सवाल और। बिहार के नेताओं को समझना बेहद कठिन है, नीतीश कुमार और लालू यादव का ऐसा कहना है। क्या ऐसी स्थिति आ सकती है? गुजरात पर आते हैं- क्या बगैर गुजरात में बगैर किसी फेस के चुनाव में वोट मांगा जा सकता है। तब गुजराती अस्मिता का क्या होगा, और इस समय बिहारी अस्मिता का क्या होगा?
सबसे पहले तो मैं आपको बता दूं कि सिर्फ बिहारी ही मुख्यमंत्री बनेगा, लेकिन वो बिहारी बीजेपी का होगा। क्या आप देश में ऐसी स्थिति बनाना देश के एक प्रदेश का नेता दूसरे राज्य में जाकर प्रचार न कर सके? क्या प्रधानमंत्री किसी एक क्षेत्र की सीमा में बंधकर रह सकता है? क्या किसी भी राजनीतिक दल का अध्यक्ष किसी एक क्षेत्र तक सीमित होकर रह जाए? जो लोग प्रदेश की चिंता कर रहे हैं, उन्हें इटली दिखाई नहीं दे रहा है। कोई इटली से आकर प्रचार कर रहा है, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं है, लेकिन देश के एक राज्य का नेता दूसरे राज्य में जाकर प्रचार करे तो लोगों को दिक्कत हो रही है। मेरी जिम्मेदारी राष्ट्रीय है, मैं केरला से लेकर बंगाल तक कहीं भी प्रचार कर सकता हूं, क्योंकि यह मेरा कर्तव्य है।
राज्यों की राष्ट्रीय पहचान को लेकर आपका विस्तृत दृष्टिकोण कहीं उनकी अपनी विशेषता को तो खत्म नहीं कर रहा है?
भारत के राज्यों की क्षेत्रीय पहचान कभी खत्म नहीं हो सकती है। जब बीजेपी का बिहारी मुख्यमंत्री बनेगा तो वह बिहार की क्षेत्रीय पहचान को आगे लेकर जाएगा और तब बिहार की पहचान विकास से की जाएगी और जंगलराज के साथ जो इसका नाम जुड़ा है, वह छवि धूमिल हो जाएगी।
मोदी-शाह जिस प्रकार से चुनाव लड़ रहे हैं, बहुत से लोग इसे इलेक्शन कैंपेन में नए कल्चर की शुरुआत के तौर पर देख रहे हैं। क्या ऐसा है?
यह सब दुष्प्रचार है। न तो दो व्यक्ति और न ही दो नेता मिलकर भारत में कभी चुनाव लड़ सकते हैं। बिहार में करीब 40 लाख लोग हमारे पीछे खड़े हैं, जो कि हमारी जीत सुनिश्चित करने में लगे हैं।
आप गुजरात में एलके आडवाणी के चुनाव प्रभारी रहे हैं। आपने अपने राजनीतिक जीवन में बहुत से चुनावों का प्रबंधन किया है। बिहार चुनाव की रणनीति बनाने के लिए जब आप बैठे तो आपको अपनी पार्टी के पक्ष में कौन से कारण दिखे और कौन से फैक्टर ऐसे लगे जो कि खिलाफ थे।
बिहार में हमने काफी बड़े पैमाने पर काम किया। हमने 15 महीने से भी कम समय में बिहार के सभी मुद्दों का अध्ययन किया। हमने सबसे ज्यादा फोकस बिहार के विकास का खाका तैयार करने पर दिया और फिर उसके लिए बजट का प्रावधान किया। इसी कसरत के बाद केंद्र सरकार ने बिहार के लिए 1.25 लाख करोड़ के पैकेज का एलान किया गया। इतना ही नहीं, मौजूदा समय में चल रही परियोजनाओं के लिए अलग से 40,000 करोड़ के फंड का प्रावधान किया गया। लोगों तक संदेश पहुंच गया है। अब उन्हें अंदाजा हो गया है कि बीजेपी किस तरीके से बिहार की समस्याओं का हल निकालेगी। हमारी ओर से यह सबसे बड़ा ऑफर है, जो कि चुनावी मुद्दा बन गया।
दूसरी अहम बात यह है कि मोदी की लोकप्रियता में बरकरार है। विशेषरूप से बिहार में तो 2014 के बाद से अब तक इसमें रत्ती भर भी कमी नहीं आई है। तीसरा मुद्दा यह है कि बिहार में सिद्दांत से भटके लोग हमारे सामने लड़ रहे हैं। नीतीश कुमार वर्षों से लालू यादव के जंगलराज का खत्मा कर रहे थे। अब बिहारियों को यह बात हजम नहीं हो रही है कि नीतीश कुमार कह रहे हैं कि आप लालू यादव को वोट दे दो। यह बहुत बड़ा चुनावी मुद्दा है। बिहारी इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
ऐसा लगता है कि इन तीनों मुद्दों से नीतीश को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, वह तो हमेशा की तरह बेदाग लग रहे हैं?
बिहार में ऐसा कोई नहीं है, जो लालू के साथ बैठने के बाद नीतीश की छवि को बेदाग कह दे। पूरा बिहार अब यह मानता है कि उनकी छवि उसी वक्त बेदाग हो गई थी, जिस समय उन्होंने लालू के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया था।
आपकी पार्टी के लोग कह रहे हैं कि चुनाव में लालू की आरजेडी को नीतीश की जेडीयू से ज्यादा सीटें मिलेंगी?
यह एक आकलन है। लालू के साथ जाने की वजह से नीतीश की छवि खराब हुई है। आपको यह बात समझनी होगी कि लालू पिछले 25 साल से एक ही थ्योरी पर चल रहे हैं, लेकिन लालू के साथ जाने की वजह से नीतीश ने विश्वसनीयता खो दी है।
आप बिहार चुनाव ‘करो या मरो’ की तरह क्यों लड़ रहे हैं?
बीजेपी हर चुनाव इसी भावना के साथ लड़ती है।
आरक्षण विवाद से आपको कितना नुकसान हुआ?
हमारे विरोधियों ने अपनी ओर भरसक प्रयास किया, लेकिन पीएम के स्तर से, मेरे स्तर से ब्लॉक और गांवों के स्तर से हमने दलित और ओबीसी को स्पष्ट संदेश पहुंचाया है कि आरएसएस आरक्षण विरोधी नहीं है। हम बहुत तेजी और मजबूती के साथ लोगों से पहुंचे हैं और उन्हें बताया कि आरक्षण को हमारा समर्थन है।
लोकसभा चुनाव में 282 जीतने के बाद, सर्वोच्च पद पर एक मजबूत नेता होने के बाद भी अगर आप संविधान का हवाला देकर पहचान (जाति) को मुद्दा बना रहे हैं? रविवार को पीएम ने भाषण के दौरान अपने बैकग्राउंड की बात की। अगर वह यह नहीं कहेंगे कि ‘मैं पिछड़े परिवार को हूं’ तो भी वह पीएम ही रहेंगे। तो इसमें मुद्दा क्या है?
अगर वह इसके बारे में बात नहीं करेंगे तो भी संदेश तो पहुंच ही गया है। बिहार के लोग जानते हैं कि वह बैकवर्ड क्लास से संबंध रखते हैं। हम इसके जरिए कोई राजनीतिक लाभ नहीं उठा रहे हैं। आपने हताशा की बात तो मैं आपको बता दूं कि हताशा का सवाल ही नहीं उठता। जिस दिन नीतीश, लालू और कांग्रेस का गठबंधन हुआ, उसी दिन बीजेपी को दो तिहाई बहुमत मिलना तय हो गया था।
अगर बीजेपी हारती है तो क्या आप जिम्मेदारी लेंगे?
हारने की कोई संभावना नहीं, इसलिए यह कोई सवाल ही नहीं। हां, एक सवाल जरूर है कि जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा। (हंसते हुए)।