हॉसर परिवार के लिए 26 जून, 2025 हमेशा के लिए यादगार दिन रहेगा। यह वह दिन है जब उनके पिता, दिवंगत अमेरिकी इतिहासकार वाल्टर हॉसर, अपने गुरु – तपस्वी, किसान नेता और समाज सुधारक स्वामी सहजानंद सरस्वती से “मिलेंगे”। हौसर ने अपने जीवन के लगभग 60 वर्ष स्वामी सहजानंद के जीवन और विचारों पर शोध करते हुए समर्पित किए थे। उनकी मृत्यु के छह साल बाद अब, उनका परिवार अमेरिका से पटना तक 13,000 किलोमीटर की यात्रा कर उनकी अस्थियां गंगा नदी में विसर्जित करने की उनकी अंतिम इच्छा पूरी करने आया है।
ड्यूक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और उनके बेटे माइकल हौसर ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “पिता अक्सर कहते थे कि उनकी अंतिम इच्छा यही है कि उनकी अस्थियां गंगा में विसर्जित की जाएं। यह वही नदी है जो स्वामी के सामाजिक, सांस्कृतिक और किसान चेतना के आंदोलन से गहराई से जुड़ी थी।” एक मेज पर दो कलश रखे थे – एक में वाल्टर हौसर की अस्थियां और दूसरे में उनकी पत्नी रोज़मेरी की, जिनका निधन 2001 में हुआ था, जबकि हौसर की मृत्यु 2019 में हुई थी।
स्वामी सहजानंद सरस्वती जमींदारी उन्मूलन आंदोलन के जनक माने जाते हैं
अस्थि विसर्जन की तिथि 26 जून 2025 का भी गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है। 26 जून को स्वामी सहजानंद सरस्वती की 75वीं पुण्यतिथि है। उन्हें बिहार में जमींदारी उन्मूलन आंदोलन का जनक माना जाता है। पटना, हौसर परिवार के लिए खास मायने रखता है, क्योंकि यहीं उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती साल बिताए थे। इस अवसर पर परिवार की दो पीढ़ियां – माइकल, उनकी बहन शीला, पत्नी एलिजाबेथ और भतीजी रोजमेरी – भारत पहुंचीं। उनके साथ हौसर के दो शिष्य – इतिहासकार विलियम आर. पिंच और वेंडी सिंगर – भी पटना आए।
गोला रोड स्थित भारतीय विद्वान और हौसर के करीबी सहयोगी कैलाश चंद्र झा के घर पर सात अमेरिकियों ने हौसर और स्वामी सहजानंद के संबंधों पर चर्चा की। माइकल ने कहा, “जून में कुछ अलौकिकता है – मेरे पिता का जन्म और निधन दोनों जून में हुआ। मेरी मां का जन्म भी जून में हुआ और स्वामी का निधन भी इसी महीने हुआ था।”
कैलाश झा ने कहा, “अमेरिकी आमतौर पर सर्दियों में भारत आते हैं, लेकिन हौसर परिवार जून की तपती गर्मी में एक विशेष उद्देश्य से आया है।” उन्होंने मजाक में जोड़ा, “एक और चीज जो उन्हें जून में यहां खींच लाई होगी, वह है आम।”
वाल्टर हौसर पहली बार 1957 में भारत आए थे
1957 में वाल्टर हौसर पहली बार भारत आए थे। किसान आंदोलनों में गहरी रुचि रखने वाले हौसर ने अपनी थीसिस के लिए अविभाजित बिहार को चुना। उन्हें सबसे अधिक आकर्षित किया 1920 और 30 के दशक में स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में हुए किसान आंदोलनों ने। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में नौरंग राय के रूप में जन्मे स्वामी सहजानंद ने बिहटा के पास श्री सीताराम आश्रम की स्थापना की और 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा (BPKS) की नींव रखी, जिसकी परिणति 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) के रूप में हुई।
1957 की पहली यात्रा के बाद हौसर की भारत यात्राएं और गहन हो गईं, जिनमें लखीसराय के बड़हिया ताल की यात्राएं भी शामिल थीं – जो किरायेदारी अधिकारों के लिए चले बखास्त आंदोलन का केंद्र रहा। हालांकि उन्होंने किसान आंदोलनों पर शोध कर अपनी थीसिस पूरी की थी, फिर भी वह इसे पुस्तक का रूप देने में हिचक रहे थे। कैलाश झा, जो अब श्री सीताराम आश्रम के अध्यक्ष हैं, ने 2018 में उन्हें इसके लिए राजी किया। इसी प्रयास से उनकी पुस्तक “बिहार प्रांतीय किसान सभा 1929-1942: भारतीय किसान आंदोलन का अध्ययन“ प्रकाशित हुई।
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उसी वर्ष हौसर और झा ने स्वामी सहजानंद की आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष का अंग्रेजी अनुवाद My Life Struggle शीर्षक से किया। इसे एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है, जिसने अमेरिकी विद्वानों को स्वामी के योगदान को समझने और उसका विश्लेषण करने में मदद दी। हौसर के बच्चे माइकल और शीला आज भी स्वामी के लिए उनके पिता के समर्पण को गर्व से याद करते हैं।
माइकल ने कहा, “मुझे याद है हम हर शुक्रवार दक्षिण एशियाई विद्वानों की बैठकों में जाते थे। हर चर्चा का केंद्र मेरे पिता के लिए स्वामी सहजानंद ही होते थे – उनका जीवन, उनका समय और उनका आम लोगों पर प्रभाव।” शीला ने कहा, “मेरे पिता की विरासत अब मेरी बेटी रोजमेरी हॉसर जोस तक पहुंच गई है।”
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अपने नाम के जिक्र पर मुस्कुराते हुए रोजमेरी ने कहा, “मैं अपने दादा-दादी से स्वामी की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुई हूं। अब वे हमारे जीवन का हिस्सा हैं।” हौसर के दो प्रमुख छात्र – विलियम आर. पिंच और वेंडी सिंगर – भी उनके वैचारिक प्रभाव से बेहद प्रभावित रहे। वेस्लेयन यूनिवर्सिटी में इतिहास और वैश्विक दक्षिण एशिया अध्ययन के प्रोफेसर पिंच ने Warrior Ascetics and Indian Empires और Peasants and Monks in British India जैसी किताबें लिखी हैं। वहीं सिंगर, केन्यन कॉलेज में दक्षिण एशियाई इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन विभाग की निदेशक हैं। उनके प्रमुख कार्यों में Creating Histories: Oral Narratives and Politics of History-Making शामिल है।
स्वामी की विरासत पर टिप्पणी करते हुए पिंच ने कहा, “भारत में भिक्षु सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के वाहक रहे हैं। महात्मा गांधी भी कुंभ मेले में आकर तपस्वियों के समाज से जुड़ाव को समझने की कोशिश करते थे। ये साधु परिवार छोड़कर समाज के लिए लड़ते थे।”
सिंगर, जो 40 वर्षों बाद भारत लौटी हैं, कहती हैं, “स्वामी का जीवन और कार्य भारत के लोकतंत्र की जीवंतता को दर्शाते हैं। उन्होंने बिहार में सामाजिक परिवर्तन की अगुवाई की, यही वजह थी कि हौसर स्वामी की ओर आकर्षित हुए। बिहार आंदोलनों की भूमि रही है।”
कैलाश झा ने याद किया कि 1950 के दशक में जब हौसर ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से मिलने की कोशिश की, तो उनका पहला अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया। बाद में उन्होंने एक और पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने खुद को एक फुलब्राइट स्कॉलर बताते हुए राष्ट्रपति से मिलने की इच्छा जताई। इस बार उन्हें 15 मिनट का समय मिला। झा बताते हैं, “डॉ. राजेंद्र प्रसाद अपनी खास टोपी पहनकर आए थे, लेकिन जैसे ही किसान और स्वामी पर चर्चा शुरू हुई, उन्होंने टोपी उतार दी, आराम से बैठ गए और 75 मिनट तक बात की।”
बिहटा आश्रम के ट्रस्टी और पटना के प्रसिद्ध डॉक्टर डॉ. सत्यजीत सिंह ने कहा, “हौसर परिवार का यहां आना हमारे लिए बेहद प्रेरणादायक है। स्वामी की 75वीं पुण्यतिथि पर उन्हें यह अनोखी श्रद्धांजलि देखकर हम अभिभूत हैं। इसने हमें आश्रम को और अधिक सक्रिय और जीवंत बनाने की प्रेरणा दी है।”
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