भारतीय संविधान न्याय को जीवन का अधिकार के तहत अंगीकार करता है। एक सुदृढ़ प्रजातांत्रिक, सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था कायम करने के लिए प्रस्तावना में भी नागरिकों तक न्याय सुनिश्चित करने का वादा किया गया था, लेकिन क्या यह वादा पूरा हो पा रहा है? न्यायालयों में कई दशकों से लंबित मामले बताते हैं कि वस्तुत: यह किसी भी प्रकार से पूरा होता नहीं दिखाई दे रहा है। उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद-21 में कैदियों के जीवन और स्वतंत्रता के अपने मौलिक अधिकार के अंतर्गत निष्पक्ष एवं त्वरित सुनवाई के अधिकार को भी शामिल किया है।

बावजूद इसके न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है। अकेले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दस लाख से अधिक मुकदमे लंबित हैं। हालांकि न्यायालय ने यह अनुमान लगाया कि यदि फैसले त्वरित और बिना विलंब के हों, तो देश के सकल घरेलू उत्पाद में एक से दो फीसद की वृद्धि संभव है। मगर विडंबना है कि न्याय देने के लिए न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या का ही व्यापक अभाव है।

160 की जगह 79 जज कर रहे काम

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के लिए कुल 160 पद स्वीकृत हैं, लेकिन वर्तमान में कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या पर गौर करें तो यह महज 79 है जो कुल स्वीकृत पद के आधे से भी कम है। ऐसी स्थिति में सभी को न्याय का सपना कैसे साकार हो सकता है? इसी समस्या को देखते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन और अवध बार एसोसिएशन ने 25 फरवरी 2025 को अपने अधिवक्ता सदस्यों से न्यायिक कार्य से विरत रहने का आह्वान किया, ताकि उच्चतम न्यायालय, कालेजियम, विधि मंत्रालय आदि का इस अहम मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित हो और रिक्त पदों पर न्यायिक नियुक्ति के साथ इसका समाधान हो सके।

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इस समय जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम है। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या की बात करें, तो संविधान के अनुच्छेद-124 के अंतर्गत शीर्ष न्यायालय को अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने का अधिकार है। अपने गठन से लेकर आज तक निरंतर कार्य के बढ़ते बोझ और अनसुने मुकदमों की बढ़ती संख्या के कारण न्यायाधीशों की संख्या में समयानुसार वृद्धि भी होती रही है। वर्ष 1950 में आठ से बढ़ा कर उसे 1956 में ग्यारह कर दिया गया। इसके बाद 1960 में 14, वर्ष 1978 में 18, वर्ष 1986 में 26, वर्ष 2009 में 31 और वर्ष 2019 में 34 कर दिया गया था। हालांकि लंबित मामलों को देखते हुए अभी भी न्यायाधीशों की कमी महसूस की जाती है।

अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों के 5,388 से अधिक और उच्च न्यायालयों में 330 से अधिक पद खाली

उच्च न्यायालय और जिला न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या देखें, तो विधि मंत्री ने राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया था कि भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 21 न्यायाधीश हैं। ऐसे में न्यायाधीशों की कमी लंबित मुकदमों का एक बड़ा कारण है। जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत में बेहद कम है। अमेरिका में यह आंकड़ा 151 और चीन में 170 है। वर्ष 1987 में विधि आयोग ने अपनी रपट में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों का प्रस्ताव दिया था। जिसे स्वीकार नहीं किया गया और अभी भी इनकी अधिकतम स्वीकृत पदों की संख्या को बेहद कम माना जाता है।

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अदालतों में न्यायिक अधिकारियों/कर्मचारियों की कमी है, जिसके कारण कई मुकदमे लंबित रहते हैं। पीड़ितों को न्याय मिलने में देरी होती है। यहां उल्लेखनीय है कि लंबित मुकदमों की समस्या निचले स्तर यानी अधीनस्थ न्यायालयों से सर्वाधिक होती है। भारत में सभी लंबित मुकदमों में से लगभग 87.5 फीसद मामले अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं। इसलिए अदालतों में न्यायिक अधिकारियों की कमी के कारण समस्या बुनियादी स्तर से ही शुरू हो जाती है। अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों के 5,388 से अधिक और उच्च न्यायालयों में 330 से अधिक पद खाली हैं। हालांकि उच्चतम न्यायालय के स्तर पर इस कमी को संज्ञान में लेते हुए विगत वर्ष वहां सभी पदों पर नियुक्ति कर दी गई थी, लेकिन पांच जनवरी 2025 को न्यायमूर्ति सीटी रवि कुमार और 31 जनवरी 2025 को न्यायमूर्ति हृषिकेश राय के सेवानिवृत होने के बाद वर्तमान में 34 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के सापेक्ष दो पद रिक्त हैं।

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उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों को लेकर तत्परता देखने को नहीं मिल पा रही है। यहां न्यायाधीशों के कुल स्वीकृत 1114 पदों में से 336 पद रिक्त हैं जो कुल संख्या का लगभग 30 फीसद है। छह उच्च न्यायालयों यथा उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, पटना, राजस्थान, ओड़ीशा और दिल्ली में तो ये रिक्तियां लगभग 50 फीसद के बराबर हैं। केवल मेघालय और मणिपुर उच्च न्यायालयों में कोई पद रिक्त नहीं हैं। जनवरी, 2025 तक अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 24,018 में से 5,146 पद रिक्त थे जो कुल न्यायाधीशों की संख्या का 21 फीसद है। जिन राज्यों में कम से कम सौ न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या है, उनमें से बिहार में सबसे अधिक 40 फीसद रिक्तियां (776) हैं। इसके बाद हरियाणा में 38 फीसद (297) और झारखंड में 32 फीसद (219) रिक्तियां हैं।

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इस समस्या को देखते हुए अभी हाल ही में प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की विशेष पीठ ने तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की इस शर्त में सहूलियत दी कि राज्य उच्च न्यायालयों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति तभी की जा सकती है, जब उनकी न्यायिक रिक्तियां स्वीकृत पद के 20 फीसद से अधिक हो। पीठ ने लंबित मामलों की बढ़ती संख्या पर लगाम लगाने की तात्कालिक जरूरत को ध्यान में रखते हुए यह आदेश पारित किया। संविधान के अनुच्छेद 224-ए में उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान है। पीठ ने कहा कि एक तदर्थ न्यायाधीश आपराधिक अपीलों की सुनवाई के लिए एक खंडपीठ में मौजूदा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के साथ हो सकता है। तदर्थ न्यायाधीशों की संख्या उच्च न्यायालय की स्वीकृत न्यायिक शक्ति के दस फीसद से अधिक नहीं होनी चाहिए।

कई विचाराधीन कैदी इंसाफ की इंतजार करते हुए कारावास में ही हो जाती है मृत्यु

जल्द सुनवाई सामाजिक न्याय का एक घटक है। दरअसल, सभी की यह चिंता होती है कि अपराधी को उचित समय के भीतर सजा दी जाए और निर्दोष को आपराधिक कार्यवाही के दुश्चक्र से मुक्त किया जाए। प्रश्न उठता है कि न्यायिक नियुक्तियों के बगैर हम त्वरित न्याय की अवधारणा को कैसे साकार कर सकेंगे। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में स्पष्ट वर्णित है कि त्वरित न्याय, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है। आरोपी व्यक्तियों या कैदियों के लिए यह एक गारंटीकृत अधिकार है कि उनकी सुनवाई तेजी से पूरी हो, लेकिन भारत में समय पर मुकदमों के समाधान होने में व्यवधान उत्पन्न करने वाले कई कारण अब भी मौजूद हैं, जिसके परिणामस्वरूप मुकदमे न्यायालयों में वर्षों लंबित रहते हैं।

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कई विचाराधीन कैदी तो इंसाफ का इंतजार करते रह जाते हैं और कारावास में ही उनकी मृत्यु हो जाती है। यह नागरिक के रूप में जीवन का अधिकार और सर्वव्यापक अवधारणा में मानव अधिकार का उल्लंघन है। विधि मंत्रालय का संवैधानिक दायित्व है कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति और जनसंख्या के अनुरूप इनकी संख्या में वृद्धि कर विलंबित न्याय को नियत समय-सीमा के भीतर सुनवाई कर त्वरित न्याय सुनिश्चित करे।