महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा सियासी भूचाल आ गया है। अजित पवार ने जिस तरह से एनसीपी में दो फाड़ की है, जिस तरह से एक बार फिर उन्होंने डिप्टी सीएम पद की शपथ ली है, ये बताने के लिए काफी है कि अपने चाचा शरद पवार से अजित ज्यादा खुश नहीं थे। ये भी कहा जा सकता है कि नाराजगी इस कदर बढ़ चुकी थी कि बगावती तेवर दिखाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। लेकिन अजित और शरद पवार की जो अदावत है, वो कोई आज की या कह लीजिए कुछ महीने पुरानी नहीं है।

ये अदावत कई साल पुरानी है, जब से अजित ने अपना सियासी सफर शुरू किया है, कई मौकों पर उनकी चाचा शरद पवार के साथ लड़ाई हुई है, सियासी मतभेद हुए हैं। इसका सबसे बड़ा कारण अजित की महत्वाकांक्षा रहा है जहां पर उन्हें हर बार बड़े पद की लालसा रही लेकिन शरद पवार पार्टी में नंबर 2 के लिए नए विकल्प खड़े करते चले गए।

अब अजित पवार की नाराजगी कई वजहों से रही है। एक तो ये कि उन्हें कई बार बड़ा पद देने से बचा गया, दूसरा कारण ये रहा कि पवार के कई फैसले ऐसे रहे जिसमें पार्टी की सहमति कम और उनकी रजामंदी ज्यादा रही। यानी कि शरद पवार वन मैन आर्मी की तरह काम करते रहे और अजित अपने आप को साइडलाइन महसूस करने लगे।

नाराजगी का पहला बड़ा कारण

इस अनबन की शुरुआत साल 2004 से मानी जा सकती है। उस साल महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए, कांग्रेस और एनसीपी ने गठबंधन कर रखा था। नतीजे आए तो पता चला कि एनसीसी-कांग्रेस ने मिलकर 140 सीटें जीत लीं, वहीं निर्दलीयों का समर्थन भी मिल गया। ऐसे में स्पष्ट जनादेश था, सरकार बनाने में कोई चुनौती नहीं आनी चाहिए थी। लेकिन सीएम पद को लेकर बवाल शुरू हो गया। असल में उस चुनाव में एनसीपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, उसके खाते में 71 सीटें गई थीं, वहीं कांग्रेस को 69 सीटें मिली थीं।

अब दावा ये किया जाता है कि दोनों कांग्रेस और एनसीपी में तब सहमति बनी थी कि जो सबसे बड़ा दल रहेगा, मुख्यमंत्री उसी का बनाया जाएगा। इस समझौते के हिसाब से एनसीपी का मुख्यमंत्री बनना तय था। लेकिन चुनावी नतीजों के बाद कांग्रेस का मन बदल गया और उसने सीएम पद पर अपना दावा ठोक दिया। अजित पवार नाराज हो गए, वे किसी भी कीमत पर कांग्रेस को सीएम पद नहीं देना चाहते थे। 16 दिनों तक चुनाव के बाद भी सीएम का ऐलान नहीं हुआ, कांग्रेस-एनसीपी में खटपट चलती रही। फिर शरद पवार ने कांग्रेस की एक डील मान ली। उस डील के तहत कांग्रेस को सीएम पद दिया गया, बदले में तीन अतिरिक्त मंत्रालय ले लिए। बस ये बात अजित को रास नहीं आई और चाचा-भतीजे की अनबन की दास्तां शुरू हो गई।

नाराजगी का दूसरा बड़ा कारण

इस घटना ने एक बात साफ कर दी थी, अजित और शरद पवार की विचारधारा में फर्क था, एक तरफ अजित ताकत रखना चाहते थे, दूसरी तरफ पवार स्थिति के हिसाब समीकरण साधने में विश्वास रखते थे। अब 2004 की घटना से आगे बढ़ा जाए तो चार साल बाद ही एक बार फिर चाचा-भतीजा आमने-सामने आ गए थे।

साल 2008 में भी महाराष्ट्र में एनसीपी गठबंधन की सरकार चल रही थी। तब ऐलान किया गया कि राज्य के नए डिप्टी सीएम छगन भुजबल रहेंगे। अजित, उस समय तक शरद पवार के काफी करीब आ चुके हैं, समय-समय पर बड़े मंत्रालय भी मिल रहे थे। लेकिन डिप्टी सीएम का पद भी उन्हें उस समय नहीं दिया गया। अजित इस सब से खफा थे। इसके ऊपर साल 2021 में जब अजित पवार का नाम सिंचाई घोटाले में सामने आ गया, उनका ये आरोप रहा कि एनसीपी ने इस मुश्किल समय में उनका उस तरह से साथ नहीं दिया, जैसा देना चाहिए था। अब ये भी नाराजगी का एक बीज डालने के लिए काफी रहा।

नाराजगी का तीसरा बड़ा कारण

अब हाल के सालों की बात करें तो अजित पवार के नाराज रहने के कारण बदले हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में अजित के बेटे पार्थ पवार को बड़ी हार का सामना करना पड़ा था। बड़ी बात ये थी कि शरद पवार नहीं चाहते थे कि पार्थ इस समय चुनाव लड़े, लेकिन अजित की जिद के आगे पवार को भी झुकना पड़ गया था। अब क्योंकि उस चुनाव में हार हो गई, ऐसे में अजित ने इसका ठीकरा भी एनसीपी के कार्यकर्ताओं पर थोप दिया। जोर देकर कहा कि उनके बेटे के लिए ठीक तरह से प्रचार नहीं किया गया। यानी कि उनके मन में भेदभाव के बीच भी अंकुरित हो गए थे।

नाराजगी का चौथा बड़ा कारण

हाल ही की बात करें तो अजित पवार एनसीपी में अपने लिए एक बड़ा पद चाहते थे। अनुभव के आधार पर वे मानकर चल रहे थे कि उन्हें एनसीपी अध्यक्ष का पद भी दिया जा सकता है, यानी कि वे खुद को शरद पवार के उत्तराधिकारी के रूप में देख रहे थे। लेकिन हुआ इसके एकदम उलट, कुछ दिन पहले ही पवार ने सुप्रिया सुले और प्रफुल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष घोषित कर दिया। अजित पवार का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया, ये उन्हें साफ तौर पर अपना अपमान लगा।

नाराजगी का छठा बड़ा कारण

इसके ऊपर खबर ये भी चल रही है कि अजित पवार और उनके समर्थक विधायक इस बात से नाराज थे कि एनसीपी प्रमुख ने पटना में हुई विपक्षी एकता वाली बैठक में राहुल गांधी को सहयोग देने की बात कर दी। यहां बड़ी बात ये रही कि बिना किसी पार्टी नेता से बात किए पवार ने ये कमिटमेंट दे दिया, इस वजह से भी अविश्वास की खाई पैदा हो गई।