रविवार को सूरजपुर, छत्तीसगढ़ के जिलाधिकारी ने जो किया था, वही काम सोमवार को शाजापुर, मध्य प्रदेश की एडीएम मंजूषा विक्रांत ने कर डाला। कर्फ्यू के बावजूद दुकान खोलने के कारण उत्तेजित एडीएम ने कम उम्र के दुकानदार को झन्नाटेदार झापड़ रसीद कर दिया। इसके पहले सूरजपुर के ही एक एसडीएम ने ऐसा ही काम किया था। एक महीने पहले त्रिपुरा के जिलाधिकारी ने तो शादी के मंडप में वह कोहराम मचाया था कि पूरा देश दंग रह गया था। गोरखपुर, यूपी के जिलाधिकारी भी पिछले दिनों बेड मांगते तीमारदार के प्रति उग्र हो उठे थे।

पिछले साल चित्तौड़गढ़ की एक आईएएस अफसर ने मंडी में तमाशा खड़ा कर दिया था। नोटों की गड्डी तक हवा में उड़ने लगी थीं। उन्नाव की दुखद घटना तो बिलकुल ताजी है। सब्जी वाले को पुलिस वालों ने मार ही डाला। एक घटना दक्षिण में रामेश्वरम की है। कई दिनों से कोविड वार्ड में 24 घंटे की ड्यूटी कर रहे दो युवा डाक्टर ब्रश और मंजन खरीदने कुछ ही दूर गए थे कि पुलिस ने दबोच लिया। वे रेसिंग बाइक पर सवार थे। सिपाहियों का पहला सवाल यही था कि डॉक्टर रेस वाली बाइक कब से चलाने लगे। दोनों को पुलिस वैन में डालकर वर्दीधारियों ने खूब घुमाया और तीन चार किमी दूर छोड़ दिया। लगातार ड्यूटी से थके और नींद से बोझिल डॉक्टर क्या करते?

ये तो वे घटनाएं हैं जिनके वीडियो बन गए और वे मीडिया में उछल गईं। गरीब आदमी कहां-कहां पिट रहा है और कौन-कौन पीट रहा है। इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। इन सबका कुसूर? कोरोना कर्फ्यू/लॉकडाउन का उल्लंघन। क्या बात इतनी छोटी सी है? शायद नहीं। आइए समझते हैं।

लेकिन उससे पहले शाजापुर की ताज़ा घटना। यहां लॉकडाउन जांचने शहर में निकली टीम ने एक दुकान खुली पाई। तुरंत एक्शन शुरू। किशोर उम्र का दुकानदार बाहर निकला। उसने कहा कि उसका घर भी दुकान के पीछे है। लेकिन जांच में यह बात सही नहीं निकली। एडीएम साहिबा गुस्से से आगबबूला हो उठीं और उन्होंने गाल पर चांटा जड़ दिया।

सवाल यह है कि क्या थप्पड़ या लाठी मार कर पूरी दुनिया को सुधारा जा सकता है? मारपीट का कानूनी अधिकार तो न कांस्टेबल के पास है और न डीजीपी के पास। कोरोना काल से पहले अफसरों की थप्पड़बाज़ी आम बात नहीं थी। दरोगा, सिपाही को छोड़ दें तो पुलिस महकमे में भी बड़े अफसर सार्वजनिक तौर पर लात-घूंसा चलाते नहीं दिखते थे और आईएएस या पीसीएस अधिकारी तो बिलकुल नहीं। तो क्या यह कोरोना काल के दौरान आला अफसरों पर पड़ रही स्ट्रेस का नतीजा है?

गोरखपुर के डीएम जिनका गुस्सेबाजी का ऑडियो वायरल हुआ था, वे सोमवार की कर्मचारियों की एक सभा में बिलकुल बदले हुए मिले। उनकी बोली एक लाइन ही साफ कर देती है कि बड़े अफसर कितनी पीड़ा और तनाव से गुजर रहे हैं। वे बोले, जब मैं बेड मांगने वाले तीमारदार पर गुस्सा कर रहा था उस वक्त हालत यह थी कि बेड मांगने वालों की लाइन में सौ से ज्यादा लोग थे। बेड एक भी नहीं था। बेड तभी खाली हो सकता था, जब किसी की मौत हो जाए। एक जिम्मेदार अधिकारी को यह असहाय स्थिति किस कदर तोड़ सकती है, इसे समझा जा सकता है।

अभी रिसर्च नहीं हो रही क्योंकि उसके लिए वक्त नहीं लेकिन जब आदमी के बर्ताव पर कोरोना के असर की पड़ताल होगी तो कई बातें सामने आएंगी। एक बड़ी बात तो डर का माहौल। डर भी कौन सा? सबसे बड़ा वाला। मौत का डर। ज़रा सोचिए। पहले दो मीटर की दूरी ज़रूरी बताई गई। फिर इसी महीने पता चला कि खांसने और छींकने से बनने वाला एयरोसोल दस मीटर दूर तक चला जाता है। यह तो नहीं कहा गया कि अब दस मीटर का सोशल डिस्टैंस मेनटेन किया जाए लेकिन दस मीटर दूर से संक्रमित होने का खौफ कितना बड़ा है। तिस पर उस वक्त जब अफवाहबाज़ यह भी उड़ाया करते हैं कि वायरस हवा में उड़ रहा है।

क्या लॉकडाउन लागू कराने को घूम रहे अमले पर यह खौफ तारी नहीं होता होगा? शायद सब पर न होता हो। लेकिन मुमकिन है कि देखते ही हाथों को चाटा मारने का आदेश देने वाले अफसरों पर होता हो। इस सब पर पक्की बात तो अनुसंधान के बाद ही निकलेगी लेकिन फिलहाल मनोविज्ञान की इस बात को तो हम समझ ही सकते हैं कि भय आदमी को उग्र बर्ताव के लिए उकसाता है। भयभीत आदमी के शरीर में ऐसे रसायन पैदा हो जाते हैं कि वह हिंसा कर बैठता है। मनोविज्ञानी कहते हैं कि यह वह हिंसा नहीं होती जिसके बाद मन शांत हो जाए। मन तो भय और उसका कारण खत्म होने के बाद ही शांत होता है।