अभिषेक अभिनव
आजकल हमारा जीवन भाग-दौड़ से भर गया है। जीवन में पैसों के लिए भागने की होड़ मची है, लेकिन हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि पैसों से हमें कितनी खुशी मिलती है या फिर पैसे आने के बाद भी हम अपने जीवन में अकेलापन महसूस कर क्यों दुखी ही रहते हैं। खुशी और दुख के बीच के अंतर को हम नहीं खत्म कर पा रहे हैं। कुछ समय पहले चर्चित हुई एक घटना में बंगलुरु में अट्ठावन लाख वार्षिक वेतन पाने वाले चौबीस वर्ष के लड़के ने खुद को अकेला महसूस करने के बारे में अपना दुख सार्वजनिक मंच पर साझा किया और कहा कि भले ही मेरे पास करोड़ों रुपए हैं और ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहा हूं, इसके बावजूद मैं खुद को अकेला पाता हूं और दुखी रहता हूं। हम मनुष्य हैं। पैसों के पीछे भागने से पहले यह नहीं समझ पाते हैं कि पैसों से बिस्तर खरीद सकते हैं, सुकून की नींद नहीं।
सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है, जबकि दुख व्यक्ति के धैर्य की
मानव जीवन सुख और दुख के बीच ही झूलता रहता है। कोई मनुष्य किसी घटना से सुखी होता है तो दूसरा उससे दुखी हो सकता है। सुख-दुख एक अनुभूति है जो व्यक्ति, वस्तु और समय के सापेक्ष होता है। दरअसल, सुख या दुख की निरंतरता नहीं होती, यह प्रतिपल बदलती है। मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूति होती है। जीवन में सुख और दुख का अनन्य महत्त्व है। ये धूप-छाया की तरह सदा इंसान के साथ रहते हैं। लंबी जिंदगी में खट्ठे-मीठे पदार्थों के समान दोनों का स्वाद चखना होता है। सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है, जबकि दुख व्यक्ति के धैर्य की। दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन ही सफल जीवन है। हम कष्टों और समस्याओं से पलायन कर खुद अपने सुखों से दूर होते चले जाते हैं। हालांकि कष्ट को सह कर लोग धैर्यवान भी होते हैं। धैर्य एक ऐसा गुण है, जो व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है, उसे आगे ले जाता है, उसे संपूर्णता प्रदान करता है।
महावीर ने कहा- जीव ने स्वयं प्रमाद के द्वारा दुख को उत्पन्न किया है
जीवन में दुख की जरा-सी दस्तक के बाद मनुष्य उसके कारणों की विवेचना में जुट जाता है। दुख के बारे में अंग्रेजी के मूर्धन्य साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शा ने कहा है कि ‘मनुष्य के जीवन में दो तरह के दुख होते हैं। एक यह कि उसके जीवन की अभिलाषा पूरी नहीं हुई और दूसरा यह कि उसके जीवन की अभिलाषा पूरी हो गई।’ वास्तव में दुख के जितने कारण बताए गए हैं, उनमें मुख्य अज्ञान, भ्रम या मोह को बताया गया है। भगवान महावीर से जब पूछा गया कि दुख किसका दिया हुआ है तो उन्होंने कहा, ‘जीव ने स्वयं प्रमाद के द्वारा दुख को उत्पन्न किया है।’
संसार की चकाचौंध में छल भरा है।
दुनिया का हर इंसान सुख चाहता है। वह दुख से डरता है
झूठी प्रतिष्ठा जीव के दुख का कारण है, जिसे हम जीवन से अधिक महत्त्व देते हैं। मसलन, कोई वस्तु, विषय, जिसे हम अपने जीवन से अधिक महत्त्वपूर्ण मानने लगते हैं, आमतौर पर वही हमारे जीवन में दुख का कारण बनता है। दुनिया का हर इंसान सुख चाहता है। वह दुख से डरता है, इसलिए इससे छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करता है। मतलब दुख को खत्म करने और सुख को सृजित करने के लिए हर इंसान अपनी क्षमता के मुताबिक हमेशा कुछ न कुछ करता है। जीवन की प्रतिमा को सुंदर और सुसज्जित बनाने में सुख और दुख आभूषण के समान हैं।
दुखों से मुक्त न होने का मूल कारण यह है कि प्राणी आमतौर पर दुखों के मूल पर नहीं, बल्कि उसके निमित्त पर प्रहार करता आ रहा है। दुख का मूल कारण है कर्म और कर्म का मूल कारण है राग, द्वेष और मोह। दुख को मिटाना है तो उसके मूल कारण राग, द्वेष और मोह को मिटाना होगा। इनके कारण ही जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि दुख उत्पन्न होते हैं। जहां तक मोह है, वहां तक दुख आते रहेंगे। इसलिए कर्म-बंध के मूल राग-द्वेष, अज्ञान, मोह आदि को समाप्त करके ही व्यक्ति दुख के मूल यानी कर्म और उससे जुड़े दुख को समाप्त कर सकता है। यही जीवन में सुख प्राप्ति का मंत्र भी है।
सुख बयार का वह झोंका है, जिसके गुजर जाने का आभास तक नहीं होता है। सुख में समय कब निकल गया, इसका जहां पता तक नहीं चलता है, वहीं दुख में समय रुका, ठहरा-सा लगता है। सुख का रंग-रूप व्यक्तिगत होता है और वह जहां भी मिलता है, आनंदमय लगता है। आवश्यक है कि हम दुख से सीख लें। तनाव और समस्याएं हमारे मन को जागृत रखती हैं। समाधान खोजते समय अनजाने में हमारा व्यक्तित्व निखरता है। यही निखार हमें जीवन में आवश्यक आत्मविश्वास प्रदान करता है।
दुख को सुख में बदलने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास बहुत जरूरी है। एक ही परिस्थिति और घटना को दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण करते हैं। जिसका चिंतन सकारात्मक होता है, वह अभाव को भी भाव और दुख को भी सुख में बदलने में सफल हो सकता है। जिसका विचार नकारात्मक होता है, वह सुख को भी दुख में परिवर्तित कर देता है।