पश्चिम बंगाल में वैसे तो ‘ढाकी’ करीब करीब सभी त्यौहारों का अभिन्न हिस्सा हैं लेकिन उपकरण ‘ढाक’ को बजाने की कला धीरे धीरे खत्म होती जा रही है।

ज्यादातर ढाकी या उसे बजाने वाले लोग मुर्शिदाबाद, हुगली, मालदा, बांकुड़ा और पुरूलिया जिलों की ग्रामीण सामान्य पृष्ठभूमि से आते हैं। कुछ किसान और राजमिस्त्री हैं जबकि शेष साल में बाकी समय छोटे मोटे काम करते हैं एवं त्यौहारी सीजन का इंतजार करते रहते हैं जब वे कुछ अतिरिक्त पैसे कमा लेते हैं।

मुर्शिदाबाद के ढाकी 34 वर्षीय तापस दास ने कहा, ‘‘हमारे पूर्वजों ने उसे शुरू किया था। यह उनकी आजीविका बन गयी और लंबे समय तक बनी रही लेकिन अब स्थिति बहुत खराब हो गयी है। ’’

दास बुनकर हैं और वह अपने परिवार के चार सदस्यों के साथ दूर्गापूजा में ढाक बजाने यहां आए हैं।

दास ने कहा, ‘‘आप बस ढाक बजाकर जिंदा नहीं रह सकते। मेरे पिता ने यह समझा और उन्होंने साड़ी बुनाई का काम शुरू कर दिया। वह कुछ अतिरिक्त पैसे कमाने के लिए कोलकाता में ढाक बजाते थे। मैं बस उनके पदचिह्नों पर चल रहा हूं। ’’