मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में केंद्र सरकार से आग्रह किया है कि देश में सोशल मीडिया से 16 साल के कम बच्चों की पहुंच दूर करने के लिए ऑस्ट्रेलिया जैसे कानून बनाने चाहिए। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने एक कानून बनाया है जिसके तहत 16 वर्ष की कम आयु के बच्चे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम और टिक-टॉक पर अकाउंट नहीं बना सकेंगे।
न्यायमूर्ति जी जयचंद्रन और न्यायमूर्ति के.के. राम कृष्णन की बेंच ने यह टिप्पणी 23 दिसंबर को इंटरनेट पर अश्लील सामग्री की आसान उपलब्धता को उजागर करने वाली एक याचिका की सुनवाई के दौरान किया।
‘आयोग चलाए जागरूकता कार्यक्रम’
कोर्ट ने कहा, “भारत सरकार को संसद में ऑस्ट्रेलिया जैसे कानून पास करने के बारे में सोचना चाहिए। जब तक ऐसे कानून पास नहीं हो जाते, आयोग को ऐसे चीजों के लिए सभी मौजूद मीडिया के जरिए जागरूकता कार्यक्रम चलाना चाहिए। हमें उम्मीद है कि आयोग (बच्चों की सुरक्षा अधिकार के लिए) दोनों राज्य और केंद्र से इस संबंध में एक कार्य योजना तैयार करेगा और उसे अक्षरश: और भावनापूर्वक लागू करेगा।”
पैरेंटल विंडो सिस्टम की मांग
मदुरै निवासी एस विजयकुमार ने साल 2018 में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने छोटे बच्चों के लिए अश्लील सामग्री की आसान उपलब्धता और पहुंच पर चिंता जताई थी।
जनहित याचिका में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और तमिलनाडु बाल अधिकार संरक्षण आयोग से आग्रह किया गया कि इंटरनेट सेवा प्रदाता को पैरेंटल विंडो सिस्टम लागू करने का निर्देश दें और लोगों को जागरूक करें।
याचिका में इंटरनेट सेवा प्रदाताओं (आईएसपी) को यूजर आईडी को पैरेंटल कंट्रोल या “पैरेंटल विंडो” सुविधा प्रदान करने के निर्देश देने की भी मांग की गई थी।
ऑस्ट्रेलिया पास कर चुका है कानून
हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने एक कानून पारित किया है जिसके तहत सोशल मीडिया कंपनियों को 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को अपने प्लेटफॉर्म पर अकाउंट बनाने या रखने से रोकना अनिवार्य है, ऐसा न करने पर उन्हें भारी जुर्माना भरना पड़ेगा। हालांकि यह कानून बच्चों या उनके पैरेंट्स को दंडित नहीं करता
याचिकाकर्ता के वकील ने ऑस्ट्रेलिया में पास किए गए कानून का हवाला दिया, जिसमें 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों द्वारा इंटरनेट के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है। साथ ही सुझाव दिया कि भारत सरकार भी इसी तरह का कानून बना सकता है।
कंपनियों के वकील ने कही ये बात
इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों के वकील ने कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया कि वे अलग कानून के अंतर्गत आते हैं। उन्होंने कोर्ट को बताया कि समय-समय पर हालात की समीक्षा की जाती है और आईटी के नियम 2021 के मुताबिक संबंधित आईएसपी के संज्ञान में आपत्तिजनक वेबसाइटों के संबंध में कोई जानकारी आती है, तो जरूरी कार्रवाई की जाती है और उन्हें ब्लॉक किया जाता है।
कोर्ट ने आयोग को दिखाया आईना
मद्रास हाई कोर्ट ने चिंता जताई कि बाल अधिकार आयोग राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 के तहत अपने कर्तव्यों का पर्याप्त निर्वहन नहीं कर रहे।
कोर्ट ने कहा, “आयोग का यह वैधानिक कर्तव्य और दायित्व है कि वह समाज के विभिन्न वर्गों को बाल अधिकारों के बारे में जागरूक करे और इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए जरूरी उपायों की जानकारी दे। इसमें कोई शक नहीं है कि स्कूलों में बच्चों को लक्षित करके कुछ जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं। हालांकि, ये अभियान पर्याप्त नहीं हैं।”
कोर्ट ने कहा कि अथॉरिटी द्वारा दी गई जवाबी हलफनामे से कोर्ट नाखुश है, वे अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपनी जिम्मेदारियों का पर्याप्त रूप से निर्वहन नहीं कर रहे।
केंद्र सरकार को दिया सुझाव
हालांकि, कोर्ट ने व्यापक निर्देश या गाइडलाइन जारी करने से परहेज किया, यह देखते हुए कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल इसी तरह के एक मामले में केंद्र सरकार और अन्य हितधारकों को बाल यौन शोषण के पीड़ितों के अधिकारों के संबंध में पहले ही सुझाव दिए थे।
कोर्ट ने कहा,“इस उद्देश्य के लिए, अंतिम यूजर को चाइल्ड पोर्नोग्राफी के खतरे और इसे रोकने के उपायों के बारे में जागरूक करना अनिवार्य है। अंततः, ऐसी घृणित सामग्री तक पहुंचना या उससे बचना व्यक्तिगत विकल्प और अधिकार है। जहां तक बच्चों का सवाल है, उनकी संवेदनशीलता अधिक होती है, इसलिए माता-पिता की जिम्मेदारी और भी अधिक होती है।”
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