जीवन में हर किसी की जिंदगी में कठिन दौर आता है, लेकिन मुश्किल समय में भी जिनके पैर डगमगाते नहीं हैं या बहकते नहीं हैं, एक न एक दिन सफलता उनके कदम चूमती है। इसी श्रेणी में सौरव गांगुली भी आते हैं। करियर के बुरे दौर से गुजरकर टीम में वापसी करना, भारतीय क्रिकेट टीम की कमान संभालना और दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष बनना उनकी सफलता की ही निशानी हैं।
एक समय था, जब टीम इंडिया से ड्रॉप होने के बाद उन्हें वापसी के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ी। वह सिर्फ बल्लेबाजी की ही प्रैक्टिस नहीं करते थे, बल्कि गेंदबाजी का भी काफी अभ्यास करते थे। सौरव गांगुली ने गौरव कपूर के यूट्यूब शो ‘ब्रेकफास्ट विद चैम्पियंस’ में बताया था कि टीम इंडिया से ड्रॉप होने के बाद मैं नेट बॉलर बन गया था। सौरव गांगुली ने 11 जनवरी 1992 को ब्रिसबेन में वेस्टइंडीज के खिलाफ वनडे मैच से अपने अंतरराष्ट्रीय करियर की शुरुआत की थी। पहले मैच में वह सिर्फ 3 रन ही बना पाए थे। उसके बाद उन्हें टीम से ड्रॉप कर दिया गया। करीब पांच साल से ज्यादा वक्त के बाद 26 मई 2006 में मैनचेस्टर में खेले गए इंग्लैंड के खिलाफ वनडे मैच से उनकी वापसी हुई।
गौरव कपूर ने गांगुली से 1992 में ऑस्ट्रेलिया के पहले टूर की कहानी पूछी थी। सौरव गांगुली ने कहा था, ‘चांस भी नहीं मिला और मुश्किल भी बहुत था। थोड़ा सा समय लगता है अभ्यस्त होने में। वह ऑस्ट्रेलिया अलग ऑस्ट्रेलिया था, पेस, बाउंस और इंडिया तब बाहर जाकर अच्छा नहीं खेलता था, क्योंकि इतना बार-बार खेलने नहीं जाते थे। मुझे याद है हम ऑस्ट्रेलिया में 1991 के आखिर में गए थे। इसके बाद अगली बार 1999 में ऑस्ट्रेलिया गए, आठ साल बाद।’
गांगुली ने बताया, ‘तब 17 साल का था। मेरा गेम बना भी नहीं उसके लिए। तो फिर लौट लिए घर। कोई समस्या नहीं। जाकर फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेलते रहे। मजा आता था। हमारी टीम बहुत बढ़िया थी।’ गौरव ने बीच में टोकते हुए पूछा, ‘बॉलिंग मशीन भी लगाई थी घर में?’ गांगुली ने कहा, ‘पिताजी ने सबकुछ लगाया था बेटे के लिए। जिम, बॉलिंग मशीन, प्रैक्टिस पिचेस। घर में प्रैक्टिस पिचेस थीं। दो नेट लगा हुए थे, एक सीमेंट और एक टर्फ।’
गांगुली ने कहा, ‘बस यही था कि खेलते रहो। मैं तो नेट बॉलर बन गया था। सेलेक्ट हुए थे बल्लेबाज के तौर पर और बन गए थे बॉलर। एक समय ऐसा था कि ड्रेसिंग रूम से सिर्फ बूट ही उठाकर लाता था, बाकी सबकुछ पड़ा रहता था, क्योंकि पता था कि मौका तो मिलेगा नहीं। इसको उठाओ और शुरू से अंत तक बॉलिंग ही करते रहो। मुझे बॉलिंग करना अच्छा लगता था। शायद इसी कारण बॉलिंग इम्प्रूव भी हुआ। प्रैक्टिस करते गए करते गए। आइडिया होता गया।’
