केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गुरुवार को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ‘कश्मीर संकट’ के लिए जिम्मेदार ठहराया। इससे पहले मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में एक रैली को संबोधित करते हुए नेहरू पर परोक्ष रूप से निशाना साधा था। पीएम ने कहा था, सरदार पटेल ने सभी रियासतों को भारत में विलय के लिए राजी कर लिया। लेकिन ‘एक व्यक्ति’ कश्मीर के मुद्दे को हल नहीं कर सका।

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भारत की आजादी से पहले कश्मीर की स्थिति

जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का फैसला किया, तब देश 500 से अधिक रियासतों में बंटा हुआ था। कांग्रेस ने 1930 के दशक के अंत में रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत करने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी थी। सरदार पटेल और वीपी मेनन ने लॉर्ड माउंटबेटन के मार्गदर्शन में रणनीति बना, रियासतों को भारत में मिलाया था।

जम्मू और कश्मीर एक महत्वपूर्ण रियासत था। इससे दोनों देशों (भारत-पाकिस्तान) की सीमाएं मिलती थीं। मुख्य रूप से मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य पर डोगरा राजा महाराजा हरि सिंह का शासन था। उन्होंने सितंबर 1925 में सिंहासन संभाला था।

1930 के दशक में कश्मीरी राजनीतिक परिदृश्य में एक शॉल व्यापारी के बेटे शेख अब्दुल्ला का उदय हुआ। अब्दुल्ला ने विज्ञान में डिग्री के साथ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक किया था। बावजूद उन्हें सरकार नौकरी नहीं मिली। उन्होंने इसके लिए राज्य प्रशासन मुसलमानों के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया। साथ ही राज्य में बढ़ते हिंदुओं के वर्चस्व पर सवाल उठाया।

1932 में अब्दुल्ला ने राज्य के मुसलमानों के साथ शासक के विरोध में ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का गठन किया था, जो बा द में ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ बना। इसमें मुसलमानों के अलावा हिंदू और सिख शामिल थे। अब्दुल्ला ने सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर एक प्रतिनिधि सरकार की मांग की। उसी दौराब वह जवाहरलाल नेहरू के संपर्क में आए।

1940 के दशक के दौरान कश्मीर में अब्दुल्ला की लोकप्रियता बढ़ती रही। उन्होंने डोगरा वंश से कश्मीर छोड़ने की मांग की। इसके लिए उन्हें कई बार जेल भेजा गया।  1946 में जब उन्हें राजद्रोह के लिए तीन साल की कैद की सजा सुनाई गई , तो नेहरू उनके बचाव में कश्मीर रवाना हुए। लेकिन महाराजा के आदमियों ने उन्हें राज्य में प्रवेश करने से रोक दिया। 

कश्मीर का भारत में विलय

जब कश्मीर के भारत या पाकिस्तान में विलय का सवाल उठा, तो महाराजा ने स्वतंत्र रहना चुना। जब पाकिस्तान के फ्रंटियर प्रोविंस के कबाइलियों ने हमला किया तो हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। भारत विलय की शर्त पर मदद को तैयार हुआ।

विलय के बाद

कश्मीर को कबाइलियों के हमले से बचाने के लिए भारत को अगस्त से अक्टूबर तक युद्ध करना पड़ा। अभी-अभी आजाद हुए भारत के लिए यह नई मुसीबत थी। ऐसे में भारतीय नेताओं के बीच यह मंथन होने लगा कि कश्मीर पर कब्जा रखना है या छोड़ना है।

एक वक्त ऐसा भी आया जब पटेल ने पाकिस्तान के सामने हैदराबाद के बदले कश्मीर का प्रस्ताव रखा। लेकिन तब पाकिस्तानी पीएम ने कश्मीर को ‘कुछ पहाड़ियां’ कहकर प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।

वहीं दूसरी तरफ नेहरू थे, जो कश्मीर को किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहते थे क्योंकि उनके लिए ये सिर्फ भारत-पाकिस्तान के बीच का मामला नहीं था। कश्मीर एक ऐसा राज्य था जिसकी सीमाएं उस वक्त सोवियत संघ, चीन, अफगानिस्तान पाकिस्तान और भारत जैसे पांच बड़े देशों को छू रही थी।

2 नवंबर 1947 को नेहरू ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा था, कश्मीर एक ऐसा भू-भाग है, जिसकी सीमाएं बड़े देशों को छूती हैं। इसलिए वहां हो रही गतिविधियों में हमें दिलचस्पी दिखानी चाहिए। 1948 में नेहरू श्रीनगर के दौरे पर गए थे। वहां उन्होंने लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया था। इस घटना को कश्मीर को लेकर नेहरू का ऐतिहासिक संकेत माना गया।

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First published on: 13-10-2022 at 23:10 IST