हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान सीजेआई चंद्रचूड़ की पीठ आरोपी शख्‍स के ‘राइट टु बी फॉरगॉटन (Right to be Forgotten)’ से जुड़े मसले पर भी व‍िचार करने के ल‍िए राजी हुई है। शीर्ष अदालत को अब यह तय करना है कि क्या राइट टु बी फॉरगॉटन एक मौलिक अधिकार है और अगर हां तो यह भारत के संविधान में वर्णित अन्य मौलिक अधिकारों से कैसे संबंधित है?

सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ मद्रास हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई करेगी, जिसमें 27 फरवरी को पोर्टल इंडिया कानून को 2014 के बलात्कार और धोखाधड़ी मामले में एक फैसले को साइट पर से हटाने का निर्देश दिया गया था।

बरी किए गए व्यक्ति ने 2021 में मद्रास हाई कोर्ट का रुख किया था और कहा था कि उसे ऑस्ट्रेलिया की नागरिकता से वंचित कर दिया गया है क्योंकि उसका नाम उस फैसले में दिखाई देता है जो पोर्टल पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।

क्या है Right to be Forgotten?

राइट टु बी फॉरगॉटन को आर्टिकल 21 के तहत निजता के अधिकार (Right to Privacy) का एक हिस्सा माना जाता है। यह कुछ परिस्थितियों में किसी व्यक्ति की निजी जानकारी को इंटरनेट सर्च इंजन और अन्य जगहों से हटाने का अधिकार है। यह अधिकार कुछ विशेष परिस्थितियों में एक व्यक्ति को अधिकार देता है कि उसके बारे में ऐसा डेटा हटा दिया जाए जिससे उसका अपमान होता हो या नाम खराब होता हो ताकि इसे तीसरे पक्ष द्वारा, विशेष रूप से सर्च इंजनों के माध्यम से खोजा न जा सके। खासतौर पर जहां वह व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है।

मई 2014 में, यूरोपीय संघ के कानून से संबंधित मामलों में सबसे ऊंची अदालत लक्ज़मबर्ग बेस्ड कोर्ट ऑफ जस्टिस ऑफ द यूरोपियन यूनियन (CJEU) ने पुष्टि की कि ‘राइट टु बी फॉरगॉटन’ मौजूद है। ‘गूगल स्पेन केस’ में अदालत ने स्पेनिश वकील मारियो कोस्टेजा गोंजालेज की याचिका पर फैसला सुनाया, जिसमें सोशल सिक्योरिटी ऋण के कारण उनकी संपत्ति की जबरन बिक्री के संबंध में Google को जानकारी हटाने के लिए कहा गया था।

मौलिक अधिकारों पर ईयू चार्टर के आर्टिकल 7 (निजी और पारिवारिक जीवन के लिए सम्मान) और 8 (व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा) का हवाला देते हुए, सीजेईयू ने फैसला सुनाया था कि सर्च इंजनों को अपर्याप्त, अप्रासंगिक डेटा को हटाने के लिए लोगों की उन अनुरोधों को सुनना चाहिए।

भारत में क्या है ‘राइट टु बी फॉरगॉटन’ की व्याख्या?

भारत में एक ऐसा कोई सांविधिक ढांचा नहीं है जो ‘राइट टू बी फॉरगॉटन’ को बताता हो। 2017 में न्यायाधीश के एस के पुत्तास्वामी बनाम भारत संघ मामले में जब सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से गोपनीयता को एक मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकृत किया, तो उसे जीवन के अधिकार, समानता के अधिकार, और व्यक्ति की आज़ादी के एक पहलू के रूप में स्थान दिया। इससे पहले गोपनीयता के अधिकार पर भी सवाल उठते थे।

कोर्ट का ‘राइट टु बी फॉरगॉटन’ पर क्या है रुख?

न्यायाधीश एस के कौल की Puttaswamy याचिका में ‘राइट टु बी फॉरगॉटन’ पर भी बात की थी। न्यायाधीश कौल ने कहा था कि इस अधिकार का मतलब नहीं है कि पूरी तरह से पूर्व मौजूदगी को मिटा दिया जाए। इसका मतलब केवल यह होगा कि जो व्यक्ति अब अपनी व्यक्तिगत जानकारी को सेव या स्टोर नहीं रखना चाहता वह उसे वहां से हटा सके जहां उस व्यक्तिगत डेटा/जानकारी की अब आवश्यकता नहीं है।”

अलग-अलग अदालतों ने दिए अलग-अलग फैसले

कुछ विशिष्ट मामलों में अदालतों ने आदेश पास किए हैं जो अधिकार के इस्तेमाल को लेकर हैं। 1994 में राज्य तमिलनाडु बनाम राजगोपाल मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘राइट टु बी लेट अलोन’ के बारे में भी बात की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “एक नागरिक को अपनी या अपने परिवार, विवाह, प्रजनन, मातृत्व, बच्चा पैदा करने और शिक्षा आदि अन्य मुद्दों की गोपनीयता की रक्षा करने का अधिकार होता है। कोई भी उसकी सहमति के बिना उपरोक्त मुद्दों के बारे में कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकता, चाहे वह सही हो या गलत।” लेकिन, इस फैसले में विरोधाभास था।

‘जब कोई मुद्दा सार्वजनिक रिकॉर्ड में शामिल हो जाता है तो गोपनीयता का अधिकार बचा नहीं रहता’

कोर्ट की बेंच ने कहा था, “इसका कारण यह है कि एक बार जब कोई मुद्दा सार्वजनिक रिकॉर्ड में शामिल हो जाता है तो गोपनीयता का अधिकार अब बचा नहीं रहता और यह प्रेस और मीडिया द्वारा टिप्पणी के लिए एक वैध विषय बन जाता है।”

हाल ही में, कई उच्च न्यायालयों ने एक दूसरे के साथ विरोधाभासी फैसले पास किए हैं। धर्मराज भानुशंकर दवे बनाम गुजरात राज्य (2017) में प्रतिवादी ने मामले से बरी हो जाने के बाद की जानकारी हटाने के लिए गुजरात उच्च न्यायालय से प्रार्थना की थी। उन्होंने तर्क दिया था कि ऑस्ट्रेलियाई वीजा के लिए आवेदन करते समय यह उनकी बैकग्राउंड जांच के रास्ते में आया था। हालांकि, न्यायालय ने उन्हें राहत नहीं दी थी यह कहते हुए कि कोर्ट के आदेश सार्वजनिक डोमेन में होने की अनुमति है।

फैसले को सर्च इंजनों से हटाने की अनुमति

एक अन्य फैसले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 2017 में सुनिश्चित किया कि प्रतिवादी का नाम एक निरस्त्रीकरण मामले में संरक्षित रहेगा। हालांकि, अदालत ने राइट टु बी फॉरगॉटन के अधिकार पर विचार नहीं किया था लेकिन उसने कहा कि फैसला पश्चिमी देशों में चल रहे यह नीति के अनुसार है।

2021 में, दिल्ली HC ने अमेरिकी कानून के छात्र जोरावर सिंह मुंडी से जुड़े एक फैसले को सर्च इंजनों से हटाने की अनुमति दी थी। मुंडी को नशीले पदार्थों से जुड़े एक सीमा शुल्क मामले में बरी कर दिया गया था। हाई कोर्ट ने मामले का विवरण हटाने के लिए याचिकाकर्ता, उसके सामाजिक जीवन और उसके कैरियर की संभावनाओं के पर होने वाले नुकसान का हवाला दिया था।

2020 में उड़ीसा हाई कोर्ट ने एक आपराधिक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि राइट टु बी फॉरगॉटन की कानूनी संभावनाएं ऑनलाइन या ऑफलाइन व्यापक बहस की मांग करती हैं।