सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को आरक्षण से जुड़ा ऐतिहासिक फैसला दिया। इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कोटे के अंदर कोटा देने की व्यवस्था दी गई। सात-न्यायाधीशों की पीठ ने छह-एक के बहुमत से फैसला दिया कि राज्यों को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अंदर सब-क्लासिफिकेशन करने का अधिकार है, ताकि आरक्षण के जरिए अधिक से अधिक जाति-समूह के लोगों के उत्थान में मदद मिल सके। हालांकि, जस्टिस बेला त्रिवेदी ने एससी-एसटी के अंदर नए सिरे से जातीय समूह निर्धारित करने का अधिकार राज्यों को देने के पक्ष में नहीं थीं।
सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने ई वी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में शीर्ष अदालत के 2004 के फैसले को पलट दिया जिसमें कोर्ट ने माना था कि एससी/एसटी में शामिल जातियोंं की सूची में बदलाव नहीं किया जा सकता। अदालत के ताजा फैसले से पहली बार एससी-एसटी को दिए जाने वाले आरक्षण के तरीकों में बदलाव किया गया है।
समस्या क्या है
संविधान का अनुच्छेद 341 राष्ट्रपति को अधिकार देता है कि वह सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से अस्पृश्यता और अन्याय से पीड़ित जातियों, नस्लों या जनजातियों को एससी के रूप में सूचीबद्ध करें। अनुसूचित जाति समूहों को शिक्षा और रोजगार में 15% आरक्षण दिया जाता है।
समस्या यह है कि पिछले कुछ सालों में, एससी सूची में शामिल कुछ समूहों को दूसरों की तुलना में कम प्रतिनिधित्व मिला है। कुछ राज्य सरकारों ने अपनी ओर से इस समस्या का समाधान निकालने के लिए कुछ कदम उठाए, लेकिन मामला अदालतों के विचाराधीन हो गया।
क्या एससी सूची में शामिल सभी जातियों को समान रूप से ट्रीट किया जाना चाहिए?
संविधान के अनुच्छेद 341(1) में राष्ट्रपति को किसी राज्य में जातियों, जातीय समूहों या जनजातियों को निर्धारित करने की शक्ति दी गई है, जिन्हें उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में अनुसूचित जातियाँ माना जाएगा। अनुच्छेद 341(2) यह भी कहता है कि केवल संसद ही एससी की सूची से किसी भी जाति, जातीय समूह या जनजाति को शामिल या बाहर कर सकती है।
ई वी चिन्नैया मामले में अदालत ने कहा था कि एससी को समान रूप से ट्रीट किया जाना चाहिए क्योंकि संविधान ने उनके लिए समान लाभ की कल्पना की थी। हालांकि, गुरुवार के निर्णय में सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस आधार को खारिज करते हुए कहा कि राष्ट्रपति की सूची में शामिल होने का तात्पर्य यह नहीं है कि किसी जाति को और वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
क्या राज्य राष्ट्रपति की सूची के साथ ‘छेड़छाड़’ कर सकते हैं?
संविधान का अनुच्छेद 15(4) राज्यों को एससी के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करने की शक्ति देता है। अनुच्छेद 16(4) राज्यों को विशेष रूप से किसी भी उस पिछड़े वर्ग के नागरिकों को नियुक्तियों या पदों में आरक्षण प्रदान करने की शक्ति देता है जिसका राज्य की सेवाओं में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं है।

ई वी चिन्नैया मामले में अदालत ने कहा था कि इन अनुच्छेदों के तहत दी गईं शक्ति राज्य के पिछड़े वर्गों को शिक्षा और रोजगार में कोटा प्रदान करने तक सीमित थी। अदालत ने यह माना गया कि एक बार पूरी तरह से एससी को आरक्षण प्रदान कर दिया गया है जिसके बाद यह राज्य के हाथ में नहीं है कि वह पहले से ही संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त कैटेगरी को सब-कैटेगराइज्ड करे और एससी सूची के अंतर्गत पहले से ही आरक्षित कोटा दे।
वहीं, गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट बेंच ने कहा कि अनुच्छेद 15 और 16 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए राज्य पिछड़ेपन को देखते हुए विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण) प्रदान करने के लिए स्वतंत्र हैं।
क्या हैं सब-कैटेगराइजेशन के मानदंड?
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने राज्यों के लिए सब-कोटा कैसे तय करना है यह निर्धारित किया है। इसके तहत राज्यों को उस उपजाति के संरक्षण की आवश्यकता साबित करनी होगी, उसके पक्ष में प्रामाणिक साक्ष्य लाने होंगे और उप-समूहों को वर्गीकृत करने के लिए एक तर्कसंगत आधार देना होगा। साथ ही इस तर्क को अदालत में साबित करना होगा।
मुख्य न्यायाधीश ने रेखांकित किया कि सार्वजनिक सेवाओं में किसी भी प्रकार का प्रतिनिधित्व केवल संख्यात्मक प्रतिनिधित्व” नहीं होना चाहिए। राज्य को यह साबित करना होगा कि अनुसूचित जाति में बनाई गई उप-जाति अधिक वंचित है और उसका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है।
क्या ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत अनुसूचित जातियों पर लागू होता है?
जस्टिस गवई ने एससी और एसटी के लिए भी ओबीसी की तरह ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत पेश करने के लिए कहा। इस सिद्धांत में आरक्षण पात्रता पर एक आय सीमा निर्धारित की गई है, जिसमें देखा जाता है कि लाभार्थी वे हों जिन्हें समुदाय में कोटा की सबसे अधिक जरूरत हो। सात में से चार न्यायाधीशों जस्टिस विक्रम नाथ, पंकज मिथल और सतीश चंद्र शर्मा ने इस मामले पर जस्टिस गवई की राय से सहमति जताई।
एससी-एसटी आरक्षण पर राज्यों के प्रयास
1975 में पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह, 1994 में हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल और 1997 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने दलितों में सबसे वंचितों को हिस्सा देने के लिए एससी कोटा को उप-समूहों में विभाजित किया था। 2004 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह रास्ता बंद हो गया तो बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने अलग रास्ता निकाला। उन्होंने ‘महादलित’ नाम से एक अलग कैटेगरी बना ली। इसमें दुसाध को छोड़ कर लगभग सभी दलित समूहों को शामिल कर लिया गया। इन्हें आरक्षण देने का विकल्प तो था नहीं। लिहाजा नीतीश सरकार ने 2010 के विधानसभा चुनाव से पहले इन्हें मकान, छात्रवृत्ति, एजुकेशन लोन, स्कूल ड्रेस आदि सुविधाएं दीं।
पंजाब में दो समुदायों को आरक्षण में प्राथमिकता देने की अधिसूचना
1975 में पंजाब ने राज्य के सबसे पिछड़े समुदायों में से दो बाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों को एससी आरक्षण में प्राथमिकता देते हुए एक अधिसूचना जारी की थी। इसे 2004 में चुनौती दी गई थी जब शीर्ष अदालत ने आंध्र प्रदेश में ई वी चिन्नैया मामले में इसी तरह के कानून को रद्द कर दिया था।
अदालत ने माना था कि एससी सूची के भीतर भेदभाव पैदा करने का कोई भी प्रयास अनिवार्य रूप से इसके साथ छेड़छाड़ करना होगा, जिसके लिए संविधान राज्यों को अधिकार नहीं देता है। अनुच्छेद 341 केवल राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने और संसद को सूची में कुछ जोड़ने या हटाने का अधिकार देता है। अदालत ने यह भी कहा कि एससी को उप-वर्गीकृत करना अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने किया रद्द
इस फैसले के आधार पर 2006 में डॉ किशन पाल बनाम पंजाब राज्य मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 1975 की उपरोक्त अधिसूचना को रद्द कर दिया। हालांकि, उसी साल पंजाब सरकार ने फिर से पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 पारित किया, जिससे बाल्मीकि और मजहबी सिख समुदायों के लिए आरक्षण में पहली प्राथमिकता फिर से शुरू हो गई।
इस अधिनियम को गैर-बाल्मीकि, गैर-मज़हबी सिख एससी समुदाय के सदस्य दविंदर सिंह ने चुनौती दी थी। 2010 में हाई कोर्ट ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई। 2014 में, यह मामला यह निर्धारित करने के लिए पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजा गया था कि क्या ई वी चिन्नैया के फैसले पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए?
अदालत के 2004 के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत
साल 2020 में, दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने माना कि अदालत के 2004 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। फैसले में कहा गया कि अदालत और राज्य मूक दर्शक नहीं बन सकते और वास्तविकताओं से अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते।
पीठ ने माना कि वह इस बात से असहमत है कि एससी एक सजातीय समूह है। साथ ही कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची में असमानताएं हैं। चूंकि इस बेंच में, ई वी चिन्नैया की तरह, पांच जज शामिल थे इसलिए सात जजों की बेंच ने फरवरी 2024 में इस मुद्दे पर सुनवाई की।

एससी-एसटी सब-कैटेगरी पर राजनीतिक दलों का रुख
कर्नाटक अनुसूचित जाति के बीच उप-कोटा लाने की कोशिश कर रहा है और राज्य की पिछली भाजपा सरकार ने विधानसभा चुनाव से पहले इसकी घोषणा की थी।
हरियाणा में 1994 में शुरू किए गए कोटा में चमड़े का काम करने वाली जाति के अलावा अन्य समूहों के लिए एससी आरक्षण का आधा हिस्सा आरक्षित किया गया था। यह मांग पंजाब में कोटा के उपवर्गीकरण के मद्देनजर आई थी। यह उस समय की बात है जब कांग्रेस ने पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में अपना दलित वोट बैंक बसपा के हाथों खो दिया था।
आरक्षण के लिए एससी के सब-कैटेगराइजेशन पर रोक
आंध्र प्रदेश में माला जाति जिसे एससी कोटा के अधिकांश लाभ मिलते थे, कांग्रेस के साथ थी। 1997 के उप-कोटा के माध्यम से चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली टीडीपी ने एससी के भीतर चार श्रेणियां बनाकर मैडिगा लोगों तक पहुंचने की कोशिश की, जो आरक्षण के लाभ से वंचित महसूस करते थे। पर, ई वी चिन्नैया की याचिका पर शीर्ष अदालत ने आरक्षण के लिए एससी के सब-कैटेगराइजेशन पर रोक लगा दी।
भाजपा भी सब-कैटेगराइजेशन के पक्ष में
भाजपा भी सब-कैटेगराइजेशन के पक्ष में रही है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर नरेंद्र मोदी सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि राज्यों को आरक्षण के लाभों को सब तक पहुंचाने के लिए एससी कैटेगरी को सब-कैटेगराइज्ड करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
(इनपुट- अजय सिन्हा कारपुरम और विकास पाठक)