जब मैं पंजाब का कार्यभार संभाल रहा था तो उस समय कुछ ही दिन पहले पंजाब से आतंकवाद खत्म हुआ था, लेकिन भय की स्थिति यह थी कि शाम होते ही थानों में ताले बंद हो जाते थे और सड़कें सुनसान हो जाती थीं। लेकिन पुलिस हर गली नुक्कड़ पर छुपकर बैठी रहती थी और जैसे ही किसी तरह की सुगबुगाहट होती, सामने आ जाती थी। फिर आपको आवाजाही में कोई परेशानी नहीं होती थी। चूंकि हमारे अखबार का प्रेस जालंधर के फोकल प्वाइंट पर था, जो सुनसान ही पड़ा रहता था। केवल प्रेस के वहां पहुंचने से लोगों की आवाजाही बढ़ी थी, इसलिए छ‍िटपुट घटनाएं अमूमन हो जाया करती थीं। जब इसकी जानकारी शहर के तत्कालीन एसएसपी गौरव यादव (वर्तमान में डीजीपी पंजाब) को दी गई, तो उन्होंने तत्काल प्रेस के आसपास पुलिस पैट्रोलिंग बढ़ाकर हमारे साथ जुड़े सदस्यों के लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करा दिए थे। फिर मुझे जम्मू कश्मीर का भी कार्यभार संभालने का अवसर मिला।

यह सब पाठकों को बताने का उद्देश्य यह है कि अब जो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की बात, बाहर कौन कहे, संसद में भी की जाती है, उसमें सच की कमी होती है। असल में पूर्ववर्ती नेताओं द्वारा आगे के लिए एक ऐसी लकीर खींच दी गई है, ताकि नई पीढ़ी उससे इतर कुछ सोच ही न सके। उक्त दोनों राज्यों में रहते हुए सीमावर्ती इन दोनों राज्यों के लोगों को समझने का प्रयास किया तो ऐसा लगा कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार ने इन पीड़ितों के साथ कोई इंसाफ किया ही नहीं। फिर दुखी दिलों के गुबार निकालने के लिए एक कॉलम चलाया “बंटवारे का दुख”। इसमें उन पीड़ित लोगों से बात की गई जो बेघर होकर हिंदुस्तान तो आ गए, लेकिन फिर पाकिस्तान में छूट गए परिवार से कभी मिल ही नहीं पाए।

इतिहासकार इश्तियाक अहमद अपनी किताब ‘1947 में पंजाब का बंटवारा’ में लिखते हैं कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य जेबी कृपलानी ने पंजाब की एक यात्रा के बाद 28 मई को एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा कि कांग्रेस भारत के विभाजन के विरुद्ध है। मगर यह (बंटवारा) होता है तो, देश के इस तरह के विभाजन की जिम्मेदारी प्राथमिक तौर पर मुस्लिम लीग और फिर ब्रिटिश सरकार की होगी। और अगर विभाजन होना ही है तो, इसे निष्पक्ष होना चाहिए।

मुझे अपने कार्यकाल में इन दोनों सीमावर्ती राज्यों तथा हिमाचल प्रदेश में हर प्रकार के व्यक्तियों से मिलने, तथा उनके दुख-सुख को साझा करने का अवसर मिला। पंजाब के लोग निडर-निर्भीक और अपनी मेहनत के बल पर विश्व में अपना डंका बजाने वाले रहे हैं। लेकिन उनकी पीड़ा है कि सरकार उनकी मेहनत का इनाम उन्हें नहीं देती। इसलिए उन्हें अपनी मिट्टी से दूर जाकर अपने को साबित करना पड़ता है । वैसे वे जहां भी जाते हैं, वहां अपनी अलग ही पहचान बना लेते हैं ।

जम्मू-कश्मीर का भी लगभग यही हाल है। वहां पीड़ित इसलिए हैं कि यह राज्य बार बार आतंकी समस्याओं से उलझकर सदैव युद्ध के मुहाने पर ही खड़ा रहा और रोज किसी न किसी आतंकी वारदात का सामना करता रहा। वहां भारत सरकार जिस गति से उस राज्य का विकास करना चाहती है, पाकिस्तानी आतंकी बार-बार आड़े आकर भारतीय विकास के रास्ते को अवरुद्ध कर दिया करते। इन्हीं सब समस्याओं से निपटने के लिए पिछले कुछ वर्षों में राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार द्वारा कई विकासशील कदम उठाए गए। लेकिन वास्तव में वहां के आमलोगों को उसका लाभ उस प्रकार नहीं मिल सका जिसकी उम्मीद केंद्र सरकार ने की थी।

आप कश्मीर के किसी भी भाग में चले जाएं, वहां के वातावरण में ऐसा सब कुछ है जिसकी कल्पना हम-आप स्वर्ग के रूप में करते हैं। जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35ए द्वारा दिए गए विशेष दर्जे को हटाने के लिए संसद ने पांच अगस्त 2019 को मंजूरी दी। तब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसे ‘ऐतिहासिक भूल को ठीक करने वाला कदम’ कहा था।

भारत के संविधान में 17 अक्टूबर, 1949 को अनुच्छेद 370 शामिल किया गया था। यह जम्मू-कश्मीर को भारत के संविधान से अलग रखता था। इसके तहत राज्य सरकार को अधिकार था कि वह अपना संविधान स्वयं तैयार करे। साथ ही संसद को अगर राज्य में कोई कानून लाना है तो इसके लिए यहां की सरकार की मंजूरी लेनी होती थी।

जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले, भारत के भीतर एक अलग लघु राष्ट्र का आभास कराने वाले, अनुच्छेद 370 के सभी प्रावधान अब समाप्त हो चुके हैं। अनुच्छेद 35ए भी अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है। अगर आज जम्मू कश्मीर में विशेषकर कश्मीर में जगह जगह तिरंगा लहराता नजर आता है तो उसका श्रेय पांच अगस्त 2019 को भारतीय संसद में पेश किए गए जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम को ही दिया जाना चाहिए।

केंद्र सरकार के इस एक कदम ने जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान और उसके एजेंटों की राजनीति व एजेंडे को लगभग समाप्त कर दिया है। अब आजादी की बात होती है, लेकिन कश्मीर की नहीं, बल्कि ‘गुलाम जम्मू कश्मीर’ की जिसे 1947 में पाकिस्तानी फौज ने कबाइलियों की मदद से हथिया लिया था। सभी केंद्रीय कानून आज जम्मू कश्मीर में लागू हो चुके हैं। जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पर उठने वाले सभी प्रश्न समाप्त हो गए हैं। लोकतंत्र में राजशाही का आभास कराने वाली ‘दरबार मूव’ की परम्परा समाप्त हो गई।

अब एक वर्ग, विशेषकर मुस्लिम तुष्टिकरण और कश्मीर केंद्रित ऑटोनॉमी और सेल्फ रूल की सियासत नहीं बल्कि जम्मू कश्मीर के समग्र विकास की सियासत पर बात होने लगी है। आतंकियों और अलगाववादियों का तंत्र अब ताश के महल की तरह ढह चुका है। वैसे अब सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने भी लंबी बहस सुनने के बाद धारा 370 की अहमियत को नकार दिया है।

आम कश्मीरी खुली फिजा में सांस ले रहा है। फिर से जीवंत होती सिनेमा संस्कृति बता रही है कि कश्मीर कभी भी पुरातनपंथियों के साथ नहीं था। जम्मू कश्मीर के लोगों के बीच भारत से अलग होने के जो थोड़े बहुत भाव जगाए गए थे, वह समाप्त हो गए हैं।

Nishikant Thakur
निशिकांत ठाकुर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। यहां व्‍यक्‍त व‍िचार उनके न‍िजी व‍िचार हैं, जनसत्‍ता.कॉम के नहीं।)