लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद सभी राजनीतिक दलों के लिए वर्ष 2024 प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। चुनाव साम-दाम-दंड-भेद के द्वारा इस पार या उस पार की लड़ाई पर आधारित होगा। कौन दल जीतकर केंद्र में सरकार बनाएगा, इस संबंध में जो कोई भी अभी कुछ सोच रहे हैं या होंगे, उसे मात्र कयास कह सकते हैं, क्योंकि इस देश की भाग्य विधाता जनता अपना निर्णय तो आखिरी समय में लेती है।
दरअसल, कयास लगाने वाले वही होते हैं, जिनकी रोजी-रोटी इसी बात पर निर्भर करती है कि दुष्प्रचार के दम पर आम लोगों को, भोली-भाली जनता को कैसे गुमराह किया जा सकता है। सच तो यह भी है कि आज के समय में दुष्प्रचार भी एक बड़ा व्यवसाय बन गया है और इसे भी कारोबार के रूप में जाना जाने लगा है। देश के युवा बेरोजगारी से परेशान हैं। जब उन्हें अपना कोई भविष्य दिखाई नहीं देता, तो जीवन—यापन या परिवार के पालन—पोषण के लिए लोभ में आकर आमजन को गुमराह करने की इसी विधि को अपना लेते हैं। फिर जब चुनाव प्रचार का दौर खत्म होता है, तो यही युवा अपना सिर पीटते हुए सरकार के विरुद्ध आंदोलन पर उतारू होने लगते हैं। लेकिन, ये बेरोजगार युवा करें, तो क्या!
कुछ लोग तर्क देते हैं कि चुनाव में यदि गलत तरीके से धन खर्च किया जाता है, तो उससे एक तरह से समाज में उन लोगों का ही हित होता है, जिनके पास कोई रोजगार नहीं होता है। उन्हें कुछ दिन के लिए झंडा बैनर उठाने, रैली में भीड़ जुटाने का रोजगार मिल जाता है। लेकिन, सवाल यह है कि चुनाव जीतने के लिए इन राजनीतिक पार्टियों के पास इतना पैसा कहां से आता है? जनता के सामने इसी राज से पर्दा उठाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख दिखा कर एसबीआई से चुनावी बॉन्ड से जुड़ा हर डेटा सार्वजनिक करवाया। अब जब धीरे—धीरे इन पार्टियों का समाज के बीच राज खुलने लगा है, तो स्वाभाविक है, जिसकी चोरी पकड़ी जाती है, वह उसे इतनी आसानी से स्वीकार कैसे कर लेगा? बॉन्ड की यह रहस्यमय जानकारी समाज के बीच न जाने पाए, इसके लिए देश के बड़े—बड़े वकील खड़े कर दिए गए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उनकी एक भी दलील कामयाब नहीं हुई।
राज खुला तो पता चला कि धनकुबेरों से सबसे ज्यादा चंदा तो केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को ही मिला। अब उन्होंने स्वेच्छा से ‘दान’ दिया या नहीं दिया, यह जांच का अलग विषय हो गया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि चुनाव आयोग की सूची का विश्लेषण कर पत्रकारों ने जो राज खोला है, उसमें कई व्यवसायियों के लिए कहा गया है कि सरकार द्वारा पहले ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई से छापा डलवाया गया, उन्हें जेल में बंद किया गया, फिर जब उन्होंने चुनावी बॉन्ड खरीद कर सत्तारूढ़ को दिया, तो फिर बदले में ऐसे उद्योगपतियों को अरबों रुपये का ठेका दे दिया गया, उन्हें उपकृत किया गया। वैसे, देश में यह जुमला तो आम हो ही गया है कि भाजपा ऐसी वाशिंग मशीन है, जिसमें जाते ही भ्रष्टाचार के आरोपियों या भ्रष्टाचारियों के सारे दाग धुल जाते हैं।
देश के गृह मंत्री अमित शाह कहते हैं कि बीस हजार करोड़ रुपये के बॉन्ड में साढ़े छह हजार करोड़ ही भाजपा को मिले हैं। तो ऐसे में सवाल यह है कि बाकी चौदह हजार करोड़ कहां से और किसे मिले? वे कहते हैं कि इसकी परत खुली, तो कई दल मुंह नहीं दिखा पाएंगे। गृह मंत्री ने कहा कि भाजपा के प्रभाव क्षेत्र और सांसदों की संख्या तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस जैसे कई दलों को जितना मिला है, वह भाजपा के मुकाबले बहुत अधिक है। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कहते हैं कि क्या राहुल गांधी कांग्रेस को मिले चुनावी बॉन्ड लौटाएंगे? यह तो इस तरह की बात हुई कि सत्ता में रहते हुए कानून से खिलवाड़ करते हुए भाजपा ने चुनावी बॉन्ड लिए, तो यह उसका अधिकार था, लेकिन दूसरे दलों की यह हिम्मत कैसे हुई? है ना अजीब तर्क!
जब देश भाजपा के इस कृत्य से अपने को शर्मसार महसूस कर रहा है, ऐसी स्थिति में भी भाजपा खुद को बेगुनाह साबित करने में और आरोप—प्रत्यारोप से अपने को अलग नहीं कर रहा है। जब भरी अदालत में चुनावी बॉन्ड पर सरकार के तर्कों को खारिज करते हुए चुनावी बॉन्ड को असंवैघानिक करार दिया गया, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि भाजपा दागदार नहीं है?
