पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर की दिल्ली से गिरफ्तारी संकीर्णता और बदला है। एक ऐसे समाज पर दमन है जो कभी आज़ाद होने की ख्वाहिश रखता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतरराष्ट्रीय मंचों से स्वतंत्रता, शालीनता, संवैधानिक मूल्यों की बात करते हैं। ज़ुबैर गिरफ्तारी तब हुई जब पीएम म्यूनिख में भारतीय लोकतंत्र का राग अलाप रहे थे और आपातकाल की राजनीतिक समाप्ति की तारीख से आगे बढ़ रहे थे। यह दुनिया के लिए शासन को सतर्कता से देखने का एक रिमाइंडर है। शासन के बहकावे में न आते हुए यह देखना जरूरी है कि क्या कहा जा रहा है और क्या किया जा रहा है।
आइए इस कहानी के व्यापक राजनीतिक और संस्थागत संदर्भ को देखते हैं। मोहम्मद जुबैर जिस ऑल्ट न्यूज़ को चलाने में मदद करते हैं, उसने भारत के लोकतंत्र की सच्ची सेवा की है। उनका साहस एक प्रेरणा रहा है। उन्होंने हमारे ध्यान में यह तथ्य लाया कि सत्तारूढ़ भाजपा की एक उच्च पदाधिकारी नूपुर शर्मा ने पैगंबर मोहम्मद के बारे में एक ऐसी टिप्पणी की, जिसे केवल निंदनीय माना जा सकता है। उस टिप्पणी और भारत की अंतरराष्ट्रीय निंदा को लेकर सांप्रदायिक दंगे हुए। जैसा कि 8 जून को लिखे अपने लेख में बता चुका हूं कि नूपुर शर्मा के बयान की सबसे खतरनाक बात यह थी कि उसने सत्तारूढ़ दल की भावनाओं को व्यक्त किया। उन्हें राजनीतिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए था। लेकिन समाज के उदारवादियों को उनकी गिरफ्तारी और एफआईआर का विरोध करना चाहिए था, क्योंकि भविष्य में इस तरह के मुकदमे फ्री स्पीच को ही कमजोर करने का काम करते हैं।
जुबैर की गिरफ्तारी ने कई संदेश दिए। सबसे पहले तो यह हर पहलू से विशुद्ध बदला है। कुछ समय पहले ही मोदी सरकार ने अंतरराष्ट्रीय अपमान होने पर बदला लेने की राजनीति शुरू की है। दूसरा उद्देश्य अभिव्यक्ति की आज़ादी की बहस को सांप्रदायिक राजनीति का बंधक बनाकर रखना है। जुबैर को 2018 के एक ट्वीट के लिए गिरफ्तार किया गया है, जिसमें एक पुरानी हिंदी फिल्म के एक होटल के साइन बोर्ड की इमेज थी जिसका नाम ‘हनीमून होटल’ से बदलकर ‘हनुमान होटल’ कर दिया गया था। इस फिल्म को टीवी पर बहुत बार दिखाया जा चुका है। यह मामला हास्यास्पद लग सकता है। निश्चित रूप से आप कह सकते हैं कि यह मामला गंभीर नहीं हो सकता? लेकिन उस ट्वीट के जरिए पीड़ित होने का नैरेटिव गढ़ा गया। यह बताने की कोशिश हुई कि फ्री स्पीच के नाम पर हिंदू देवताओं का मजाक उड़ाया जाता है लेकिन पैगंबर का नहीं।
यह बताना मुश्किल नहीं है कि सत्ताधारी दल में अभद्र भाषा के कितने समर्थक हैं। कई तो सीधे-सीधे हिंसा भड़काने वाले हैं, जो फिलहाल आजाद घूम रहे हैं। सरकार सेलेक्टिव तरीके से आईपीसी की धारा 153 का इस्तेमाल कर लोगों को निशाना बना रही है। यह इस बात को बताता है कि बहुसंख्य सजा की चिंता किए बिना जो मर्जी वो कर सकते हैं, मंत्री परिणाम की चिंता किए बगैर हिंसा भड़का सकते हैं लेकिन जुबैर की आवाज उठाने की हिम्मत कैसे हुई? ये गिरफ्तारियां बहुसंख्यकों की उन कल्पनाओं को मजबूत करता है, जिसमें वो खुद को सजा से परे और विशेषाधिकार से लैस समझते हैं। दरअसल जुबैर का अपराध यह नहीं है कि उन्होंने हिंदू देवताओं का मजाक उड़ाया है। बल्कि वो तथ्य हैं जिसे वो अडिग होकर लगातार सरकार के सामने पेश करते रहते हैं।
इस गिरफ्तारी को मनमानी और दमन के बड़े पैटर्न के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए: अपनी राजनीति को चमकाने के लिए ईडी और सीबीआई के छापे, निर्दोष छात्रों के खिलाफ यूएपीए का इस्तेमाल, संपत्तियों को सांप्रदायिक रूप से टारगेट कर बुलडोजर से गिराना, मीडिया पर अंकुश और सभी स्वतंत्र संस्थानों को बर्बाद करने का एक हिस्सा भर है जुबैर की गिरफ्तारी। पीएम मोदी ने आपातकाल का सही और जोरदार विरोध किया। लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी की आपातकाल से यह शिकायत है कि उसमें आज की तरह की धीमी यातना और सांप्रदायिकता नहीं थी।
स्वतंत्रता के इस दमन को व्यापक समर्थन भी हासिल है। कोर्ट के पास जकिया जाफरी मामले को उसी तरह से तय करने के अपने कारण हो सकते हैं जैसे उसने किया। लेकिन गुजरात दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ने वाले याचिकाकर्ताओं का दमन, बिना किसी मुकदमा उन याचिकाकर्ताओं को दोषी ठहराना एक नई और रोमांचक मिसाल है। न्यायालय जो लाइसेंस दे रहा है वह न्याय मांगने वालों से बदला लेने के अलावा और कुछ नहीं है।
फिर महाराष्ट्र विधानसभा को लेकर तमाशा किया जा रहा है, जहां कोर्ट ने अभी-अभी दसवीं अनुसूची और दल-बदल विरोधी कानून की पूरी तरह से हत्या कर दी है। इसने अध्यक्ष की शक्तियों को विकृत कर दिया है; इसने वास्तव में भाजपा को वह दिया जो वह चाहती थी – खरीद-फरोख्त के लिए अधिक समय। लेकिन जुबैर, गुजरात के याचिकाकर्ता और महाराष्ट्र विधानसभा प्रकरण, ये तीनों मामले न्याय की अवधारणा के ठीक उलट हैं। तथ्य अपराध बन गया है, न्याय की मांग करना पाप हो गया है और लोकतंत्र की सबसे अच्छी सेवा न्यायिक मनमानी से होने लगी है।
लेकिन इन मामलों को ज्यादा सार्वजनिक प्रतिक्रिया मिलने की संभावना नहीं है। नेकनीयती लोगों में अभी भी इन मामलों को असाधारण के रूप में देखने की प्रवृत्ति है। यदि हम भाग्यशाली हैं तो कभी-कभी बहादुर न्यायाधीश जुबैर को राहत दे सकते हैं और हम सभी अपने जीवन को विवेक के साथ बिता सकते हैं, भले ही हमारे चारों ओर सिस्टम ढह जाए। लेकिन इससे भी बुरी बात है राज्य से सजा न मिलने का जश्न मानना और सांप्रदायिकता के लिए जयकार करना। 1975 का आपातकाल दमनकारी था लेकिन उसने हमारी बुद्धि को मंद नहीं किया, हमारी अंतरात्मा को कुंद नहीं किया या हमारी लड़ाई की भावना को बुझाया नहीं।