भारत के स्वतंत्रता संग्राम में आम से लेकर खास लोगों ने आहुति दी। सभी ने अपने-अपने तरीकों से देश को आजाद कराने का प्रयास किया। गांधी ने उपवास और सत्याग्रह का रास्ता अपनाया, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह सशस्त्र क्रांति के पथ पर चले, नेहरू ने राजनीति और जन जागरण को अपना हथियार बनाया, सावरकर पहले सशस्त्र क्रांति के आकांक्षी रहे, बाद के वर्षों में आजादी की लड़ाई से विमुख दिखे।
सावरकर और सशस्त्र क्रांति
युवा सावरकर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति के हिमायती थे। हथियार उन्हें आकर्षित करते थे। शायद यही वजह थी कि उन्होंने 1857 के सैनिक विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा। ‘1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ नाम से किताब लिखकर अंग्रेजों के खिलाफ बौद्धिक कार्रवाई की। वह इटली के क्रांतिकारी मैजिनी से भी बेहद प्रभावित थे। उन्होंने मैजिनी की जीवनी का मराठी में अनुवाद भी किया था। उन्हें अंडमान की सेल्यूलर जेल की सजा भी अंग्रेज अफसर जैक्सन की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने के लिए ही मिली थी।
सावरकर को इस मामले में 13 मार्च 1910 को लंदन से गिरफ्तार किया गया था। भारत में उन पर मुकदमा चलाकर 30 जनवरी 1911 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। वह 4 जुलाई 1911 को अंडमान की कुख्यात सेल्यूलर जेल पहुंचे थे। वहां वह कुल 9 साल 10 महीने रहे। इस दौरान उन्होंने छह बार माफीनामा लिखा। हालांकि इस बात को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है कि जेल पहुंचने के बाद उन्होंने अपना पहला माफीनामा कब लिखा।
दो खंडों में सावरकर की जीवनी लिखने वाले विक्रम संपत मानते हैं कि सावरकर ने पहली दया याचिका 1913 में लिखी। ‘सावरकर काला पानी और उसके बाद’ नाम से किताब लिखने वाले अशोक कुमार पाण्डेय की मानें तो सावरकर ने अपनी पहली दया याचिका अंडमान पहुंचने के छह माह बाद ही लिख दी थी। सावरकर पर विशेष शोध करने वाले निरंजन तकले के हवाले से बीबीसी ने लिखा है कि उन्होंने अपना पहला माफीनामा सेल्यूलर जेल पहुंचने के डेढ़ महीने के भीतर ही लिख दिया था।
नेहरू का भी साढ़े नौ साल जेल में कटा
दिल्ली का तीन मूर्ति भवन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का आवास था। बाद में उनकी स्मृति में इसे संग्रहालय में बदल दिया गया। अब उसे नेहरू स्मारक संग्रहालय के नाम से भी जाना जाता है। इसी संग्रहालय से प्राप्त सूचना के अनुसार, नेहरू अपने जीवन में कुल 20 बार अलग-अलग जेलों में रहे थे। उन्होंने अपने जीवन का करीब साढ़े नौ साल जेल में बिताया था। कारावास की सजा का एक बड़ा हिस्सा सश्रम रहा।
6 दिसंबर 1921 को जब पहली बार नेहरू गिरफ्तार हुए थे, तो छह माह की जेल के साथ-साथ 100 रुपये का जुर्माना भी भरना था। लेकिन नेहरू ने जुर्माना देने से इनकार कर दिया था। इसी तरह 1930 में जुर्माना न भरने की वजह से उन्हें जेल में अतिरिक्त पांच महीना बिताना पड़ा था। वह सबसे कम 12 दिन और सबसे अधिक 1,041 दिन तक जेल में रहे थे। हालांकि वह कभी भी माफी मांग कर जेल से नहीं छूटे।
भगत सिंह ने खुद को बताया युद्धबंदी
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ दिल्ली के सेंट्रल असेम्बली में बम फेंका था। इसके बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए उन्होंने तय रणनीति के तहत खुद को पुलिस के हवाले किया था। भगत सिंह करीब दो साल जेल में रहे। इस बीच उन्होंने कैदियों के अधिकार के लिए 116 दिन का भूख हड़ताल भी किया। 23 मार्च 1931 को तय वक्त से 12 घंटे पहले अंग्रेजी शासन ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी थी।
भगत सिंह ने जेल से निकलने या फांसी से बचने के लिए कभी मांफी नहीं मांगी। उल्टा वह फांसी से भी बदतर सजा की मांग कर रहे थे। 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को लिखे एक खत में वह अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं कि उनके साथ युद्धबंदी जैसा सलूक किया जाए और फांसी की जगह गोली से उड़ा दिया जाए।