कांग्रेस एक बार फिर नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला रही है। संसद में प्रस्ताव पर बहस के लिए तैयार चल रही है। ऐसे समय में अगस्त 1963 में जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव और उस पर हुई बहस को याद करना उचित होगा। वह स्वतंत्र भारत का पहला अविश्वास प्रस्ताव था।

1962 के भारत-चीन युद्ध में हार के बाद नेहरू और कांग्रेस के लिए राजनीतिक हालात तेजी से बदल रहे थे। सरकार को विपक्षी दलों के नेताओं जैसे- डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी और दीन दयाल उपाध्याय समेत अन्य की तीखी आलोचना का सामना करना पड़ रहा था। नेहरू के लिए उनका गिरता स्वास्थ्य और पार्टी के भीतर से मिल रही चुनौती भी एक बड़ी समस्या साबित हो रही थी।

फरवरी 1962 में हुए तीसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 494 में से 361 सीटें जीती थीं। नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाले हुए 16 महीने से अधिक समय हो गया था। लेकिन चीन के खिलाफ युद्ध से सरकार को झटका लगा था।

कांग्रेस को कुछ और झटके आम चुनाव के बाद जुलाई 1963 तक हुए 10 उप-चुनावों में भी लगे। कांग्रेस केवल चार में जीत हासिल कर सकी, जो 1962 में जीते गए आठ से कम थे। फर्रुखाबाद से लोहिया और अमरोहा से कृपलानी बड़े विजेताओं में से थे।

इस पृष्ठभूमि में सरकार को अगस्त 1963 में संसद के मानसून सत्र में अपने पहले अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। स्पीकर हुकुम सिंह को एक नहीं, बल्कि कई अविश्वास प्रस्ताव प्राप्त हुए थे।

स्वतंत्र भारत का पहला अविश्वास प्रस्ताव

पहला नोटिस प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के आचार्य जेबी कृपलानी की ओर से था। दूसरे नंबर पर थे भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के सदस्य उमाशंकर त्रिवेदी (मंदसौर) और रामचंद्र बड़े (खरगोन)। लेकिन दोनों ने कृपलानी के पक्ष में अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। एक अन्य प्रस्ताव सीपीआई सांसद रेनू चक्रवर्ती और एसएम बनर्जी द्वारा लाया गया था, लेकिन इसे अपनाया नहीं जा सका क्योंकि केवल 36 सांसदों ने इसका समर्थन किया था – अध्यक्ष को इसे स्वीकार करने के लिए प्रस्ताव का समर्थन करने वाले कम से कम 50 सदस्यों की आवश्यकता होती है।

कुछ और नेताओं ने भी प्रस्ताव दिया था, जैसे सोशलिस्ट पार्टी के सांसद राम सेवक यादव (बाराबंकी) और मनीराम बागरी (हिसार), हिंदू महासभा के सांसद बिशन चंद्र सेठ (एटा), और पीएसपी सांसद सुरेंद्र नाथ द्विवेदी (केंद्रपाड़ा) लेकिन इन सब ने भी कृपलानी के पक्ष में अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। अध्यक्ष अंततः कृपलानी के प्रस्ताव को सदन के समक्ष लाए, जिसे 72 सांसदों का समर्थन प्राप्त था और 19 अगस्त को बहस शुरू हुई।

‘राजा मर चुका है, राजा अमर रहे’

बहस की शुरुआत करते हुए कृपलानी ने न केवल चीन की पराजय को लेकर बल्कि कथित भ्रष्टाचार को लेकर नेहरू सरकार पर निशाना साधा। कृपलानी ने कहा, “एक फ़ारसी कहावत है कि जब किसी देश का शासक बिना भुगतान के एक चुटकी नमक लेता है, तो उसके अधिकारी पूरे देश को लूट लेते हैं। यदि कोई मंत्री यह सोचता है कि वह जो कुछ भी गुप्त रूप से करता है, उसके बारे में उसके कर्मचारियों को पता नहीं चलता है, तो वह मूर्खों के स्वर्ग में रह रहा है… सरकार अपनी विदेश नीति में विफल रही है; यह अपनी गृह नीति में भी विफल रही है। देश अवसाद में है।”

सरकार को यह याद दिलाते हुए कि उन्हें विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त है, कृपलानी ने कहा, “यह मत समझिए कि मैं इस सदन के केवल 73 सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए यहां खड़ा हूं। पिछले चुनाव में कांग्रेस को केवल 45.27 प्रतिशत वोट मिले थे; विपक्ष के पास 54.76 प्रतिशत था… यह आवश्यक नहीं है कि इस सदन में किसी एक दल के पास पर्याप्त ताकत हो। अगर अलग-अलग पार्टियां होंगी तो भी वे एकजुट हो सकती हैं, जैसे इस बार हम एकजुट हुए हैं। जहां तक देश की सरकार का सवाल है, वहां कोई शून्यता नहीं हो सकती।” अपने भाषण में कृपलानी ने एक जुमला भी उछाला, “राजा मर चुका है। राजा अमर रहें।”

योजना आयोग को खत्म करने की उठी थी मांग

विपक्ष ने यह भी मांग रखी थी कि योजना आयोग को समाप्त कर दिया जाए। 50 साल बाद, 2014 में, मोदी सरकार ने योजना आयोग को नीति आयोग से बदल दिया। भारतीय जनसंघ सांसद त्रिवेदी ने अपने भाषण में कहा था, “योजना आयोग को खत्म करने देना चाहिए। इससे किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई… प्लान के साथ आगे बढ़ें, देश को समृद्ध बनाएं और अधिक विकसित करें। ऐसा होता है तो हम सभी खुश होंगे।”

लोहिया ने योजना आयोग की ही एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि 60 प्रतिशत परिवार केवल 25 रुपये प्रति माह से जीवनयापन कर रहा है, इससे पहले उन्होंने आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर प्रतिदिन 3 रुपये खर्च होता है। हालांकि, नेहरू ने इन आंकड़ों का खंडन किया था।

नेहरू ने क्या दिया जवाब?

मोरारजी देसाई, सुभद्रा जोशी और भागवत झा आजाद जैसे नेताओं ने सत्ता पक्ष से बात रखी थी। जब नेहरू की बारी आई तो उन्होंने कहा, “मैं इस प्रस्ताव और इस बहस का स्वागत करता हूं। मैंने महसूस किया है कि अगर हम समय-समय पर इस तरह के टेस्ट करते रहें तो यह अच्छी बात होगी।”

विपक्षी एकता और अपनी सरकार के खिलाफ लगाए गए आरोपों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि आखिर किन बातों ने अलग-अलग सदस्यों को एक साथ ला दिया है? यह केवल सरकार के प्रति नापसंदगी का मामला नहीं है। मुझे ऐसा कहते हुए अच्छा नहीं लग रहा लेकिन यह सरकार से अधिक सरकार के नेता के रूप में मेरे खिलाफ व्यक्तिगत मामला अधिक है। हालांकि इससे मेरा मतलब यह नहीं है कि हर कोई ऐसा ही महसूस करता है। निश्चित रूप से यह एक नकारात्मक मामला है जो उन्हें एक साथ लाया है।”

अविश्वास प्रस्ताव से कांग्रेस में क्या बदला?

हालांकि जैसा कि अपेक्षित था, प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि इसके पक्ष में कोई बहुमत नहीं था। लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव ने पहली बार विपक्ष को एक ही मंच पर एक साथ ला दिया था।

इस ऐतिहासिक अविश्वास प्रस्ताव के कुछ ही महीने बाद कांग्रेस के भीतर नेहरू के घटते दबदबे का संकेत मिलना लगा। सितंबर 1963 के अंत में मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री के कामराज के सुझाव पर नेहरू ने सभी केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का इस्तीफा मांगा। यह कदम, जिसे ‘कामराज योजना’ कहा जाता है, वरिष्ठ नेताओं को उनके पदों से हटाकर खुद को संगठन के लिए समर्पित करके कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने के प्रयास के रूप में प्रस्तावित किया गया था।

कामराज योजना के बाद केवल कुछ नेता जैसे, कामराज (अक्टूबर 1963 में, वह कांग्रेस अध्यक्ष बने), जगजीवन राम और लाल बहादुर शास्त्री अपनी पुरानी स्थिति पाने में सक्षम थे। जबकि अन्य ने धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो दी।

नेहरू स्वयं असुरक्षित दिख रहे थे क्योंकि उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था। महीनों बाद, 27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हो गया। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस उन कुछ असफलताओं में से एक थी, जिनका सामना नेहरू ने अपने राजनीतिक जीवन में किया था। यह प्रस्ताव विपक्षी एकता के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।

1967 में हुए अगले चुनाव में कांग्रेस केंद्र की सत्ता में तो वापस आ गई। लेकिन पार्टी को कई राज्यों में दलबदल का सामना करना पड़ा। कई राज्यों में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, इनमें से यूपी, बिहार, हरियाणा और पंजाब थे।