आजादी के मात्र 10 साल बाद 1957 में नेहरू और कांग्रेस को पहली चुनौती मिली थी, सिर्फ एक साल पहले बने राज्य केरल से। वहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के नेतृत्व में देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। मुख्यमंत्री बने एलमकुलम मनक्कल शंकरन नंबूदरीपाद यानी EMS नंबूदरीपाद। आज ही के दिन 1909 में ई.एम.एस का जन्म नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। एक युवा के रूप में उन्होंने जाति के खिलाफ समाज सुधार का प्रभावी आंदोलन चलाया था।
1957 में बनी नंबूदरीपाद की सरकार न सिर्फ भारत की पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी, बल्कि पूरे विश्व की दूसरी वामपंथी सरकार थी जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आयी थी। उस वक्त केरल की नंबूदरीपाद सरकार के अलावा दुनिया में केवल रिपब्लिक ऑफ सान मैरिनो में लोकतांत्रिक तरीके निर्वाचित वामपंथी सरकार थी। जाहिर है शीत युद्ध के उस दौर में इस खबर ने अमेरिका से लेकर कांग्रेस तक अलर्ट कर दिया।
सत्ता संभालते ही केरल की वामपंथी सरकार ने एक के बाद एक सुधार कानून लाना शुरू किया। मजदूरों की मजदूरी बढ़ायी, राज्य भर में सस्ते गल्ले की दुकानें खोली। राशन वितरण प्रणाली को दुरुस्त किया। सरप्लस जमीन के बंटवारे के लिए कानून बनाया। प्रति व्यक्ति के लिए जमीन की लिमिट तय की। छोटे किसानों को जमीन से बेदखल करने पर रोक लगाया। इन सुधार का घूंट केरल का उच्च वर्ग किसी तरह पी रहा था, तभी नंबूदरीपाद सरकार ने अपने तरकश का सबसे मारक तीर निकाला। सरकार ने शिक्षा सुधार संबंधि बिल लाकर प्राइवेट स्कूल के मालिकों को बताया कि अगर प्रबंधन में गड़बड़ी पायी गयी तो सरकार स्कूल का प्रबंधन खुद करने लगेगी। शिक्षा को कमाई का जरिया बना चुका केरल के एक वर्ग ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसमें नायर सर्विस सोसायटी, कैथोलिक चर्च और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग शामिल थे। आन्दोलन तेज हुआ तो पुलिसिया कार्रवाई में 20 लोगों की जान गई।
कांग्रेस पर आरोप है उसने केरल में फैली अशांति को हवा दी। अपनी प्रमुख विशेषता ‘धर्मनिरपेक्षता’ को ताक पर रखकर कांग्रेस ने मुस्लिम लीग जैसे धर्म आधारित दल के साथ साझेदारी की। जबकि सुप्रीम कोर्ट तक ने बिल पर रोक लगाने से मना कर नम्बूदरीपाद सरकार के समर्थन में फैसला दिया था। लेकिन इंदिरा की हनक और कांग्रेस के भविष्य को लेकर नेहरू की चिंता ने ऐसे फैसले का रूप लिया, जिसे आज भारत के फेडरल सिस्टम पर कलंक की तरह देखा जाता है।
इंदिराः सख्त और निरंकुश नेता की पहली झलक
30 जुलाई, 1959 को नेहरू नंबूदरीपाद के नाम एक खत लिखते हैं और इसके साथ ही देश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार गिराकर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता है। वजह बताई जाती है राज्य में लॉ एण्ड ऑर्डर की समस्या। हालांकि इस फैसले की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। 2 फरवरी 1959 को इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल की शुरूआत करती हैं। तब द स्टेट्समैन ने ‘द यंगेस्ट वुमन टू बी पार्टी चीफ’ लिखकर इंदिरा को संबोधित किया था।
इसी दौरान केरल में नंबूदरीपाद की वामपंथी सरकार चल रही थी। वहां की कक्षाओं में गांधी के अलावा मार्क्स और स्टालिन भी नजर आने लगे थे। खुद को नेपथ्य में जाता देख कांग्रेस में असुरक्षा की भावना पैदा हुई। इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने वालों में कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता केरल को लेकर चिंतित थे। ऐसे नेताओं में गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत और केरल के गवर्नर रामकृष्ण राव का नाम लिया जाता है। तभी शिक्षा सुधार बिल को लेकर राज्य में हंगामा शुरू हुआ और कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में इंदिरा ने जोर लगा दिया कि मुस्लिमों और ईसाई समुदाय के हितों का नुकसान होने के बिना पर सरकार को बर्खास्त किया जाए। उस दौरान केरल में भाषण देते हुए इंदिरा ने वामपंथियों को चीन का एजेंट तक करार दे दिया था।
नेहरू ने खुद केरल का दौरा कर नंबूदरीपाद को इस्तीफा देने की बात कही। लेकिन वो नहीं माने। इस बीच कांग्रेस इंदिरा के नेतृत्व में कट्टर धार्मिक संगठनों के साथ मिलकर राज्य में आन्दोलन चलाता रहा। जब नेहरू को इसकी खबर हुई तो उन्होंने इस बाबत इंदिरा से सवाल किया लेकिन इंदिरा ने किसी की एक न सुनी। इधर कांग्रेस की इन हरकतों का फिरोज गांधी मुखर मुख़ालिफ़ करते रहे। केरल के मामले ने एक तरह से इंदिरा और फिरोज के आपसी कलह को सार्वजनिक कर दिया। तमाम विरोध और आलोचनाओं के बावजूद केरल की सरकार गिरा दी गई।
तब स्वीडिश पत्रकार बरटिल फॉक ने लिखा, ”इंदिरा ने नई दिल्ली में अपने वाफादार कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मार्फत साम्प्रदायिक हिन्दुओं और मुस्लिम लीग के साथ अशांति को हवा दी। उन्होंने यह दिखा दिया कि वे सख्त और निरंकुश नेता बन सकती हैं और इसका फायदा मिला।”
हालांकि इंदिरा केरल सरकार की बर्खास्तगी में अपनी भूमिका को नकारती रहीं। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सागरिका घोष अपनी किताब ‘इंदिराः भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ में इंदिरा के इनकारनामे की झलक मिलती है। किताब में इंदिरा के हवाले से लिखा है, ”मार्क्सवादी हमेशा मुझ पर अपनी सरकार गिराने का दोष मढ़ते रहे हैं। लेकिन केंद्र के राजी हुए बिना यह कभी नहीं हो पाता। अकेले मेरी राय से हालात नहीं बदलने वाले थे। मेरे पिता और फिरोज़ इससे खुश नहीं थे। लेकिन पंत जी, ऐसा चाहते थे। मेरी भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी बतलाई गई”
जब फिरोज़ ने इंदिरा को कहा ‘फासीवादी’
फिरोज अपनी पत्नी इंदिरा की योजना (केलर की सरकार गिराने की) को अलोकतांत्रिक बता रहे थे। वो मंत्रियों और नेताओं को लागातार समाझा रहे थे कि सरकार की बर्खास्तगी मूर्खता है। सागरिका घोष ने अपनी किताब में स्वीडिश पत्रकार फॉक के हवाले से एक किस्से का जिक्र किया है। फॉक को ये घटना पत्रकार जनार्दन ने बताई थी। तीन मूर्ति भवन में नाश्ते के दौरान केरल मामले को लेकर नेहरू-गांधी परिवार में चर्चा हो रही थी। बातों बातों में बात बढ़ गई और फिरोज ने इंदिरा से कहा, ”ये कतई उचित नहीं है। तुम लोगों को घमका रही हो। तुम फासीवादी हो”