हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और

जाहिर है उर्दू अदब के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब भी जानते थे कि उनके कहे की बात ही कुछ और है। फक्कड़पन में जिंदगी बिता देने वाले ग़ालिब अपनी मौत के बाद भी कोई शोशा (आडंबर) नहीं चाहते थे।

लोहारू और फिरोजपुर झिरका के पहले नवाब की भतीजी से शादी के बाद ग़ालिब 13 साल की उम्र में दिल्ली आए थे, फिर यही के होकर रह गए। बीतते समय के साथ बड़े महान शायर बने ग़ालिब। मुगलिया सल्तनत में बहुत सम्मान हासिल किया। बादशाहों के साथ उठना-बैठना रहा। अंग्रेजों से भी दोस्ती रही।

लेकिन ताउम्र घर नहीं खरीदा। किराए के मकानों में जिंदगी गुजार दी। ठिकाने को लेकर इतनी बेरुखी कि कभी पुरानी दिल्ली के गली कासिम जान या उसके आसपास के इलाकों से बाहर किराए का मकान भी नहीं देखा।

15 फरवरी, 1869 को जिस हवेली में आखिरी सांस ली, वह भी उनके एक फैन का दिया हुआ था, जो पेशे से हकीम था। ग़ालिब की मौत के ठीक एक साल बाद 15 फरवरी, 1870 को उनकी पत्नी का भी निधन हो गया था।

अपनी कब्र नहीं चाहते थे ग़ालिब

ग़ालिब को लोहारू के नवाब के तत्कालीन पारिवारिक कब्रिस्तान, निज़ामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया है; उनकी पत्नी को उनके बगल में दफनाया गया है। कुछ मीटर की दूरी पर 13वीं सदी के सूफी संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है, जो हमेशा अनुयायियों की भीड़ से गुलजार रहती है। इसके अलावा दरगाह परिसर में 13वीं सदी के सूफी संगीतकार और कवि अमीर खुसरो की कब्र भी है, जिन्हें ग़ालिब ने सबसे महान फारसी कवि बताया था।

मजार-ए-मिर्जा या ग़ालिब की कब्र कोई स्मारक नहीं है, लेकिन दूर-दूर से ग़ालिब के प्रशंसक कवि को अपना सम्मान देने के लिए आते रहते हैं। हालांकि, वह चाहते थे कि पृथ्वी पर कहीं भी उनकी कब्र न हो:

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता

रेख्ता पर ग़ालिब के इस मशहूर अशआर का मानी बताया गया है- मेरे मरने के बाद मेरा जनाज़ा उठा। फिर मेरी क़ब्र बन गई और इस तरह से मैं बेइज़्ज़त हो गया। कितना अच्छा था कि अगर मैं दरिया में डूब के मर जाता, न मेरी लाश मिलती, न मेरा जनाज़ा उठता और न मेरी क़ब्र ही बनती।

दिल्ली की बर्बादी और ग़ालिब की हाजिरजवाबी

दिल्ली में रहते हुए ग़ालिब ने अपने प्रिय शहर की सड़कों पर पागलपन और तबाही देखी, जीवन की घेराबंदी और कत्लेआम देखा। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से ग़ालिब पूरी तरह टूट गये थे, जो दिल्ली और ग़ालिब दोनों के लिए एक निर्णायक मोड़ था।

अपनी फ़ारसी डायरी में उन्होंने विद्रोह को बड़े विस्तार से दर्ज किया है। विद्रोह के बाद ग़ालिब ने अपने छोटे भाई और कई दोस्तों को खो दिया था। वह डायरी में राजघाट से चांदनी चौक तक बिछी लाशों के बारे में और अपनी पांडुलिपियों के नष्ट होने के बारे में लिखते हैं।

हालांकि, अपने जीवन में कई त्रासदियों के बावजूद, उन्होंने खुद पर हँसने की कला में महारत हासिल कर ली। वह अपनी हाजिरजवाबी व्यवहार के लिए जाने जाते थे। विद्रोह के बाद, जब अंग्रेज मुगल साम्राज्य से जुड़े मुसलमानों को घेर रहे थे, ग़ालिब को गिरफ्तार कर लिया गया और सेना के पीठासीन अधिकारी के सामने लाया गया।

जब उन्होंने गालिब से पूछा कि क्या वह मुस्लिम हैं, तो गालिब ने जवाब दिया: “जी, आधा मुसलमान हूं।” कर्नल ने पूछा: “इसका क्या मतलब है?” गालिब ने उत्तर दिया: “शराब पीता हूं, सूअर का गोश्त नहीं खाता”