लोकसभा चुनाव 2024 में 48 सांसद भेजने वाला महाराष्ट्र उन राज्‍यों में शुमार है ज‍िन पर सबसे ज्‍यादा नजर है। पिछले दो चुनावों में, राज्य ने भाजपा और शिवसेना का पूर्ण दबदबा देखा। दोनों दलों ने मिलकर 2014 में 48 प्रतिशत वोट हासिल किए और 2019 में 50 फीसदी का आंकड़ा पार कर लिया।

इस दबदबे ने राज्य में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के ढांचे को बदल दिया होगा, लेकिन लोकसभा की जीत ने दोनों दलों की राज्य-स्तरीय महत्वाकांक्षाओं को भी सामने ला दिया। 1995 में राज्य में सत्ता का शुरुआती स्वाद मिलने के बाद, भाजपा और शिवसेना दोनों को इस बात का अफसोस था कि 1999 के बाद महाराष्ट्र विधानसभा में उनसे सत्ता छूट गई। लेकिन जब 2014 में अवसर आया (और फिर 2019 में), दोनों दल एक-दूसरे की कीमत पर अवसर को भुनाना चाहते थे।

शिवसेना और बीजेपी का ब्रेक-अप

भाजपा के लिए, राज्य की पार्टियां अक्सर पथ-प्रदर्शक रही हैं और 2014 में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद, नई-नवेली, आक्रामक भाजपा राज्‍य में दूसरे नंबर की साझीदार की भूमिका निभाने के मूड में नहीं थी।

दूसरी ओर, दोनों संसदीय चुनावों में अपने प्रदर्शन में सुधार से शिवसेना को विश्वास हो गया कि उसे भाजपा को हावी होने देने के बजाय राज्य का नेतृत्व करने का अधिकार है। 2019 के उनके ब्रेक-अप ने सुर्खियां बटोरीं, लेकिन दोनों दलों के बीच 2014 की लोकसभा जीत के बाद से कभी भी सहज संबंध नहीं रहे। उन्होंने 2014 के विधानसभा चुनाव में अलग-अलग रास्ते अपनाए, पर चुनाव के बाद गठजोड़ कर ल‍िया।

2014 में महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा प्रमुख खिलाड़ी बनकर उभरी

इस प्रकार, महाराष्ट्र में प्रतिस्पर्धी राजनीति के ढांचे की अस्थिरता 2014 में राज्य की राजनीति में भाजपा के प्रमुख खिलाड़ी के रूप में अचानक उदय के साथ शुरू हुई। यह प्रक्रिया 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद भी जारी रही। शिवसेना और एनसीपी में विभाजन के परिणामस्वरूप “स्मार्ट राजनीति” ने फडणवीस और भाजपा को वापसी करने में मदद की। 

प्रश्न यह है: राज्य में एक मात्र प्रमुख दल बनने की अपनी महत्‍वाकांक्षी यात्रा  में इन घटनाओं ने भाजपा को कैसे प्रभावित किया है? वह 2022-23 की साज़िशों के बाद भी मुख्यमंत्री पद हासिल नहीं कर पाई है। लेकिन इसके समर्थक इस तथ्य से संतुष्टि पा सकते हैं कि भाजपा वर्तमान में महाराष्ट्र पर शासन करने वाले “महायुति” के पीछे की वास्तविक ताकत थी और है। इसमें कोई शक नहीं कि एक डिप्टी सीएम वास्तव में सुपर सीएम हैं। 

राज्य में एनसीपी और शिवसेना दोनों कमजोर

भाजपा के लिए दूसरा लाभ यह रहा कि दो राज्‍य की दो मजबूत पार्ट‍ियों में विभाजन के साथ, अब उसके ल‍िए ज्‍यादा व‍िस्‍तार‍ित राजनीत‍िक जगह उपलब्‍ध है। विभाजन के बाद, एनसीपी और शिवसेना दोनों गुट कमजोर हैं, मूल पार्टी के दूसरे गुट से आगे निकलने की प्रतिद्वंद्विता में अधिक उलझे हुए हैं और भाजपा के लिए खतरा पैदा करने में असमर्थ हैं।

एक तरह से, यह राज्य-स्तरीय पार्ट‍ियों के कब्जे वाले सभी राजनीतिक स्थानों पर कब्जा करने के भाजपा के उद्देश्य के साथ अच्छी तरह से फिट बैठता है। फिर भी, यह तथाकथित राजनीतिक चतुराई भाजपा की मदद नहीं कर सकती है, कम से कम जहां तक मौजूदा लोकसभा चुनावों का संबंध है।

राज्य सरकार में भाजपा की सीमित हिस्सेदारी

पहले से ही, राज्य सरकार के भीतर, भाजपा को सीमित हिस्सेदारी से संतुष्ट रहना पड़ रहा है और सत्ता साझा करने के लिए अपने कई मंत्री पद के उम्मीदवारों को मंत्रिपरिषद से बाहर रखने के लिए मजबूर किया गया है। अब, दो साथी पार्ट‍ियों को संतुष्‍ट रखने के क्रम में भाजपा को कई वफादार और पुराने उम्मीदवारों को निराश करने का जोखिम भी उठाना पड़ रहा है।

300 पार की तैयारी में जुटी भाजपा

महायुति के भीतर सीट बंटवारे की बेहद जटिल प्रक्रिया चल रही है। ऐसा लगता है कि भाजपा अधिकतम 30 सीटों पर चुनाव लड़ पाएगी – पिछली बार से पांच अधिक। क्या यह पार्टी को पिछली बार की 23 सीटों से अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने में मदद करेगा? या, इस त्रिपक्षीय गठबंधन और उसके दबावों के परिणामस्वरूप कम प्रभावशाली प्रदर्शन होगा? ये सवाल भाजपा के लिए इसलिए जरूरी हैं क्योंकि जब तक वह महाराष्ट्र (और बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना) में अपना प्रदर्शन नहीं सुधारती, तब तक पार्टी अपनी 300 से अधिक की ताकत बरकरार नहीं रख पाएगी, उसमें इजाफा करना तो दूर की बात है।

भाजपा के लिए महाराष्ट्र महत्वपूर्ण

यहीं पर भाजपा के लिए महाराष्ट्र महत्वपूर्ण बना हुआ है। भाजपा एक के बाद एक दो दलों को तोड़ने में अपनी चालाकी का दावा कर सकती है; वह यह भी मान सकती है कि इसकी सफलता का रास्ता राज्य में प्रतिस्पर्धा के पहले से मौजूद पैटर्न के विघटन से होकर गुजरता है, लेकिन महाराष्ट्र में हालिया घटनाओं ने वास्तव में राज्य को एक सामाजिक और राजनीतिक जोख‍िम में डाल दिया है।

राजनीतिक रूप से, वर्तमान क्षण एक पहेली है: विभिन्न क्षेत्रों में या विभिन्न समुदायों के बीच प्रत्येक पार्टी की ताकत के बारे में पारंपरिक चुनावी गणना अब प्रासंगिक नहीं है। जबकि भाजपा कांग्रेस और एनसीपी के खिलाफ अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने के कारण अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद कर सकती है, लेक‍िन इस बारे में कोई निश्चितता नहीं है कि कौन सी सामाजिक ताकतें किस पार्टी का समर्थन कर सकती हैं।

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उधर, स्थिर पैटर्न को तोड़ने की तथाकथित स्मार्ट राजनीति के तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं जो इस चुनाव से परे राज्य की राजनीति को प्रभावित करते रहेंगे, और वास्तव में चुनावी राजनीति से परे, राजनीतिक अर्थव्यवस्था और सामाजिक संबंधों में फैल जाएंगे। एक, पुलिस सहित राज्य की नौकरशाही का स्पष्ट राजनीतिकरण और मनोबल गिराना। दो, नीतिगत दृष्टिकोण से निर्णय लेने की प्रक्रिया को पूरी तरह से अलग करना। और तीन, सामाजिक ताने-बाने को अस्थिर करना।

सामाजिक क्षेत्र का सांप्रदायीकरण खतरनाक रूप से सामने आ रहा है, जिस तरह से भाजपा और उसके मौजूदा सहयोगियों ने मराठा मुद्दे से न‍िपटा है, मराठों को धोखा देना और ओबीसी को परेशान करना, सामाजिक ताने-बाने को अलग करने की क्षमता रखता है।

राजनीतिक लाभ के लिए सामाजिक और राजनीतिक कीमत चुकाना उचित?

महाराष्ट्र में सवाल यह है कि क्या यह सामाजिक और राजनीतिक कीमत चुकाना उचित है, भले ही इससे कुछ राजनीतिक लाभ हों? विभिन्न दल और गुट, अपने पैर जमाए रखने के लिए होड़ कर रहे हैं, केवल इस गंदगी को बढ़ाने और राजनीति करने के नाम पर राजनीति के पतन में योगदान करने के खेल में घसीटे जा रहे हैं। महाराष्ट्र का हालिया अनुभव बताता है कि जरूरी नहीं क‍ि शात‍िर राजनीति स्वस्थ प्रतिस्पर्धा या सामाजिक सद्भाव के लिए अच्छी हो।

(लेखक राजनीति विज्ञान पढ़ाते थे और आजकल पुणे में रहते हैं। यहां व्‍यक्‍त व‍िचार उनके न‍िजी हैं।)