लोकसभा चुनाव 2024 के लिए मतदान की तारीख नजदीक है। जैसे-जैसे हम चुनावों के करीब आ रहे हैं, एक सवाल बार-बार पूछा जा रहा है कि एक लोकतंत्र के रूप में हम कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं? उत्तर इस पर निर्भर करता है कि आप किससे पूछते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसका जवाब अलग-अलग हो सकता है।
एक टैक्सी ड्राइवर, एक कॉलेज स्टूडेंट या उसके रिटायर्ड पिता इस पर अलग-अलग उत्तर देंगे कि लोकतंत्र क्या है और वो इससे क्या उम्मीद करते हैं? हालांकि, अधिकांश भारतीयों के लिए इसकी तीन प्रमुख विशेषताएं हैं- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, एक इलेक्टेड बॉडी जो मार्गदर्शन करता है और कानून बनाता है और एक राज्य जो उन्हें लागू करता है। इन तीन मोर्चों पर हमें लगभग पासिंग मार्क्स ही मिलते हैं।
अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां अब हमें ‘चुनावी लोकतांत्रिक राष्ट्र’ कहती हैं
दूसरी ओर, कुछ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां अब हमें ‘चुनावी लोकतांत्रिक राष्ट्र’ कहती हैं। द इकोनॉमिस्ट हमें एक त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र कहता है और हमें मलेशिया और पोलैंड के बीच 41वें स्थान पर रखता है। ये एजेंसियां एडिशनल इंडिकेटर्स का इस्तेमाल करती हैं जैसे लेख प्रकाशित करने की स्वतंत्रता, संगठन बनाना, किसी के धर्म का पालन करना और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार। हमारे अपने उदारवादी संवैधानिक मूल्यों और संस्थानों के ह्रास पर शोक व्यक्त करते हैं- उनमें नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता, सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग शामिल हैं। पर ये मुद्दे हमारे अधिकांश लोगों को परेशान नहीं करते तो सवाल यह है कि लोकतंत्र का गठन क्या होता है और इससे लोगों को क्या मिलना चाहिए?
आईआईटी बॉम्बे में एक प्रोफेसर के रूप में हमारे युवाओं के एक विशिष्ट वर्ग के साथ दिन-प्रतिदिन संपर्क में रहने के कारण, मैं इसे एक महत्वपूर्ण सवाल के रूप में देखता हूं। वास्तव में, कई मुद्दे जो हमारे युवाओं और उनकी संभावनाओं को प्रभावित करते हैं, वे इस पर निर्भर करते हैं कि हम इसका उत्तर कैसे चुनते हैं।
क्या है चुनावी लोकतंत्र?
एक फंक्शनल दृष्टिकोण लोकतंत्र को लोगों के लिए विकल्प और सामूहिक प्रयास के माध्यम से भौतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से प्रगति करने के साधन के रूप में देखना है। चुनावी लोकतंत्र इसी महान उद्देश्य का कार्यान्वयन मात्र है। कई देशों में सड़कों की स्थितियों, रोजगार, पानी की उपलब्धता, विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता और यहां तक कि प्रकाशित पुस्तकों की संख्या इत्यादि पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर रिपोर्ट तैयार की जाती है। कनाडा के ओंटारियो राज्य की 132 पेज की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट लें। इससे हवा, पानी, जलवायु और प्राकृतिक आवास के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।
ऐसी रिपोर्ट तैयार करना और चर्चा के लिए मंच प्रदान करना देश के विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक एजेंसियों के लिए एक महत्वपूर्ण एजेंडा है। ये समस्या क्षेत्रों, विभिन्न दृष्टिकोणों और संभावित समाधानों की पहचान करने में मदद करते हैं। इससे गैजेट और प्रक्रियाओं की नई मांग भी पैदा होती है और इससे नई नौकरियां भी पैदा होती हैं। इसका रास्ता अक्सर विज्ञान की ओर जाता है। वास्तव में, किसी समाज के अध्ययन में लगभग 5 प्रतिशत वर्कफोर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है और कुछ कुशल युवा ग्रेजुएट्स को रोजगार मिल सकता है।
लोकतंत्र के सूचकांक महत्वपूर्ण
ब्यूरोक्रेसी भी समय-समय पर विभिन्न इंडिकेटर्स की स्थिति पर रिपोर्ट पेश करती है और संभावित विकल्पों के बारे में लोगों और कानून बनाने वाले दोनों को सूचित करती है। कनाडा की वार्षिक आवास रिपोर्ट 170 पन्नों का एक दस्तावेज है जो विभिन्न ऋण योजनाओं और उनके प्रदर्शन के आंकड़े और विश्लेषण देता है।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कनाडा अधिकांश लोकतांत्रिक और पर्यावरणीय इंडिकेटर्स में बहुत ऊंचे स्थान पर है और यहां के लोगों को सबसे खुशहाल लोगों में से एक माना जाता है। इस तरह, ज्ञान और सूचना चक्र लोकतंत्र की परिभाषा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, यह कुछ ऐसा है जो समृद्धि लाता है। जानने का अधिकार, बहस करने की आज़ादी और नागरिकों के रूप में ब्यूरोक्रेट और वैज्ञानिकों के साथ आम लोगों की समानता, यह सभी समृद्धि की आधारशिला हैं और इसलिए ही लोकतंत्र के सूचकांक महत्वपूर्ण हैं।
चुनाव में नहीं उठाए जाते ये मुद्दे
अफसोस की बात है कि भारतीय समाज में इसका ज्यादातर भाग अनुपस्थित है। आइए महाराष्ट्र के 30 लाख की औसत आबादी वाले एक जिले पर नजर डालें। इसमें एक शहर, कुछ छोटे तालुका और सैकड़ों गांव हैं। पानी की आपूर्ति अनियमित और खराब क्वालिटी की है लेकिन इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं है। कोई मानचित्र नहीं हैं। जिला अस्पताल में डॉक्टरों और स्कूल-कॉलेजों में शिक्षकों की कमी है। कृषि उत्पादन काफी हद तक मानसून और औद्योगिक उत्पादन सरकारी नीतियों पर निर्भर करता है। छिटपुट रूप से कृषि को छोड़कर इनमें से कोई भी मुद्दा चुनाव में नहीं आता है।
जिले के प्रशासन का नेतृत्व जिला कलेक्टर करता है, जो भारत में सबसे शक्तिशाली पदों में से एक है। यहां लगभग 50 कॉलेज और शायद एक विश्वविद्यालय है, साथ ही उनके पास युवा स्नातकों की बड़ी संख्या है। विभिन्न विभागों द्वारा किए गए वैज्ञानिक अध्ययन और रिपोर्टों के मुताबिक, उनमें से 2000 से अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सकता है, जिससे उनका खर्च निकल सकता है। हमारी विविधता को देखते हुए ये रिपोर्टें समस्या के विभिन्न दृष्टिकोण और बारीकियां पेश करेंगी लेकिन इसके लिए सामुदायिक विज्ञान और सामूहिक सोच की जरूरत है, जो नदारद है। आईएएस और हमारे वैज्ञानिकों और प्रोफेसरों के पास लोकतंत्र की इस क्रिएटिव एक्सरसाइज में हिस्सा लेने के लिए न तो प्रशिक्षण है और न ही रुचि।
शोरगुल में खो गया जवाब
यही कहानी राष्ट्रीय स्तर पर दोहराई जाती है। हालिया रिपोर्टों के अनुसार, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद, भारत की हवा दुनिया की सबसे प्रदूषित हवा है। फिर भी, सार्वजनिक परिवहन कम होने के बावजूद वाहनों के उत्सर्जन में वृद्धि जारी है। ऐसे मुद्दों की स्वास्थ्य संबंधी भारी लागत होती है लेकिन वे बड़े पैमाने पर हमारे चिंतन से बाहर रहते हैं। इनमें से कोई भी सवाल चुनाव में भी नहीं उठता।
इससे भी अधिक चिंता की बात शिक्षा की गुणवत्ता है। ASER की रिपोर्ट है कि 14-18 साल की उम्र के लगभग 50 प्रतिशत युवा ही 3-अंकीय संख्या को सिंगल डिजिट नंबर से डिवाइड कर सकते हैं या समय और लंबाई की सही गणना कर सकते हैं। यह एक गहरी समस्या की ओर इशारा करता है। सही विकल्प चुनना तो दूर की बात है, क्या हमारे लोग रिपोर्ट भी पढ़ सकते हैं और उन समस्याओं को समझ सकते हैं जो हमें परेशान करती हैं? क्या हम एक फंक्शनल डेमोक्रेसी हैं या एक ऐसा राष्ट्र हैं जहां नियमित रूप से चुनाव होते हैं? अफसोस की बात है कि इस सवाल का जवाब शोरगुल में खो गया है।
(लेखक मिलिंद सोहोनी आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर हैं)