लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तर प्रदेश के कई चर्चित बाहुबली नदारद हैं। यूपी के पहले माफिया कहे जाने वाले हरिशंकर तिवारी की मौत हो चुकी है। रमाकांत और उमाकांत यादव का अब जेल में हैं। अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी की भी मौत हो चुकी है। धनंजय सिंह खुद जेल में हैं लेकिन पत्नी श्रीकला रेड्डी बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। कैसरगंज से बृजभूषण शरण सिंह को भाजपा ने अब तक टिकट नहीं दिया, हालांकि वह क्षेत्र में सक्रिय है।
कभी इन बाहुबलियों का चुनाव में दबदबा हुआ करता था। मुख्तार अंसारी तो जेल में रहते हुए तीन बार चुनाव जीत गए थे। उनका ग़ाज़ीपुर, वाराणसी, चंदौली, मऊ, आज़मगढ़ और बलिया जिलों के मुस्लिम बहुल इलाकों में जबरदस्त प्रभाव था, जो इन जिलों की अधिकांश विधानसभा और लोकसभा सीटों के चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यही मुख्य कारण था कि यूपी की दो प्रमुख पार्टियों- समाजवादी पार्टी और बसपा ने मुख्तार के साथ हाथ मिलाने में कभी संकोच नहीं किया।
घोसी सीट पर अंसारी का रहा दबदबा
मुख्तार ने 1996 का लोकसभा चुनाव बसपा के टिकट मऊ जिले की घोसी सीट से कांग्रेस के दिग्गज कल्पनाथ राय के खिलाफ लड़ा था। वह चुनाव हार गए, लेकिन बसपा ने उन्हें उसी वर्ष मऊ सदर से विधानसभा चुनाव में दोहराया, जहां उन्होंने जीत हासिल की। इसके बाद उन्होंने लगातार चार बार 2002, 2007, 2012 और 2017 में यह सीट जीती।
हालांकि, उन्होंने 2022 का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा, और इस सीट को अपने बड़े बेटे अब्बास को “ट्रांसफर” कर दिया। इस सीट पर मुख्तार की पकड़ का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने सलाखों के पीछे से तीन बार यहां से जीत हासिल की।

उन्होंने 1996 और 2017 में बसपा के टिकट पर सीट जीती। 2002 और 2007 में निर्दलीय के रूप में और 2012 में अपने संगठन कौमी एकता दल के मंच से यह सीट जीती। मुख्तार ने 2009 में बसपा के टिकट पर भाजपा के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी के खिलाफ लड़ा था और 3 लाख से अधिक वोट हासिल करके उपविजेता रहे थे।
उनके भाई अफ़ज़ल, जिन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा उम्मीदवार के रूप में ग़ाज़ीपुर सीट जीती थी, इस बार उसी सीट से सपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं।
जेल से साम्राज्य चलाते थे अतीक अंसारी
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के भूपेन्द्र पांडे ने अपनी रिपोर्ट में मुख्तार के रसूख की ओर इशारा करते हैं। 1997-2010 के दौरान लखनऊ, ग़ाज़ीपुर और आगरा जेलों में बंद रहने के दौरान, मुख्तार ने सलाखों के पीछे से अपना साम्राज्य अपनी शर्तों पर चलाया। वह जेल के एक कमरे में बैठते थे जहां ग़ाज़ीपुर, मऊ, लखनऊ और कुछ अन्य जिलों के लोग भूमि और पारिवारिक विवादों या जिला प्रशासन और बिजली, राजस्व के कार्यालयों में लंबित कार्यों को सुलझाने में उनकी मदद लेने आते थे। वह इन मामलों के त्वरित समाधान के लिए जिला और यहां तक कि जोन और रेंज स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों को भी फोन करते थे।
मुख्तार के प्रभाव की सबसे बड़ी घटना 2003 में मुख्यमंत्री के रूप में मायावती के अल्प कार्यकाल के दौरान सामने आई जब वह लखनऊ जेल में बंद थे। फिर, वह अक्सर जिला अदालत में आते थे और अदालत में अपनी उपस्थिति के बाद न्यायिक हिरासत में होने के बावजूद एसयूवी के अपने बेड़े के साथ लखनऊ में पुलिस मुख्यालय सहित विभिन्न सरकारी कार्यालयों का दौरा करते थे।
मुख्तार की ये मुलाक़ातें एक दिन ख़त्म हो गईं जब वह अदालत में हाज़िरी के बाद फिर से डीजीपी कार्यालय पहुंचे। जब वह आईजी रैंक के एक अधिकारी से मिलने के लिए अपनी कार से उतर रहे थे, तो एक प्रमुख हिंदी दैनिक के पत्रकार ने उनकी तस्वीरें खींच लीं। इससे डॉन और उसके गुर्गे क्रोधित हो गए, जिन्होंने न केवल कैमरा छीन लिया और उसे जमीन पर फेंक दिया, बल्कि डीजीपी कार्यालय परिसर के अंदर फोटोग्राफर के साथ मारपीट भी की, जहां डीजीपी खुद मौजूद थे। यह घटना सभी अखबारों में छपी, जिससे मजबूर होकर मायावती को उन्हें लखनऊ से तिहाड़ जेल में स्थानांतरित करने का आदेश देना पड़ा।
मुख्तार का राजनीतिक दबदबा 2012-17 के दौरान सपा शासनकाल में देखा गया था, जब वह तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच दरार का कारण बन गए, जो बाद में पारिवारिक झगड़े में बदल गया।
सम्मानित परिवार का माफिया लड़का
मुख्तार अंसारी के दादा डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी भारत के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। इसके अलावा वह जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक सदस्यों में भी रहे। मुख्तार अंसारी के नाना मोहम्मद उस्मान भारतीय सेना में ब्रिगेडियर के पद पर थे, उन्होंने आजादी के ठीक बाद पाकिस्तान से युद्ध में अपनी जान गंवा दी थी। उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें:
