अपने पूर्ववर्ती जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की तरह ही इंदिरा गांधी भी मरते दम तक प्रधानमंत्री रहीं। 31 अक्टूबर, 1984 को उनके दो अंगरक्षकों, बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने उन्हें पॉइंट ब्लैंक रेंज गोली मारी थी। इंदिरा गांधी पर 30 से अधिक गोलियां चली थीं। दोनों हमलावर सिख थे। दोनों उसी वर्ष जून में केंद्र सरकार द्वारा अमृतसर में चलाए गए ऑपरेशन ब्लू स्टार से नाराज थे। उनका मानना था कि ऑपरेशन से सिखों और स्वर्ण मंदिर का अपमान हुआ है।

ऑपरेशन ब्लू स्टार की तरह ही इंदिरा गांधी का एक अन्य विवादित फैसला देश में आपातकाल लागू करना था। तत्कालीन प्रधानमंत्री के उस फैसले की आज तक आलोचना होती है। आपातकाल का दौर देखने वालों की भाषा में अभी भी उस समय के लिए निराशा झलकती है। किसी भारतीय हाईकोर्ट की पहली चीफ जस्टिस बनने वालीं लीला सेठ, उस दौरान दिल्ली में ही थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘घर और अदालत’ में इमरजेंसी पर एक चैप्टर लिखा है।

आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक, 21 महीने चला था। लीला सेठ ने 1972 से 1978 तक दिल्ली स्थित हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही अदालतों में वकालत की थी।

मनमाने तरीके से जजों का तबादला कर रही थीं इंदिरा गांधी

संविधान के अनुच्छेद 222 में जजों के तबादले का प्रावधान है। लेकिन तब तबादले बहुत कम होते थे। 1950 से लेकर 1975 तक करीब 25 जजों का ही तबादला किया गया था। लीला सेठ की मानें तो 25 जजों के तबादले में कोई ऐसा मामला नहीं था, जिसमें चीफ जस्टिस और संबंधित जज की सहमति न ली गई हो।

सेठ इसे परंपरा का नाम देती हैं। वह कहती हैं कि “1963 में कानून मंत्री ने संसद को भरोसा दिलाया था कि यह परंपरा जारी रहेगी। 1974 में सभी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के जजों के संयुक्त वार्षिक सम्मेलन में भी इस परंपरा को बनाए रखने पर सहमति बनी थी।”

हालांकि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने इस कथित परंपरा को तोड़ते हुए अचानक मई और जून 1976 में हाई कोर्ट के 16 जजों का स्थानांतरण कर दिया। प्रधानमंत्री ने इस तबादले के पीछे राष्ट्रीय एकता का हवाला दिया। लेकिन लीला सेठ ने ल‍िखा है कि तबादला मनमाने ढंग से किया गया था और लिस्ट प्रधानमंत्री और उनके बेटे संजय गांधी ने मिलकर तैयार की थी।

सेठ लिखती हैं, “मनमाने ढंग से किए गए इन तबादलों के बाद से कुछ जज कुछ खास मामलों की सुनवाई करने में हिचकिचाने लगे, क्योंकि उन्हें बदले की भावना से कार्रवाई किए जाने का डर सताने लगा था। ऐसा माना जा रहा था कि सरकार इन सोलह जजों के अलावा और भी कई जजों के तबादले करना चाहती थी। ऐसे जजों की संख्या 56 से 70 के बीच बताई जा रही थी। साफ था कि बदले जाने वाले जजों की सूची श्रीमती गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने तैयार की थी और उसे गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय को विचार के लिए भेजा गया था। वहां से सूची को चीफ जस्टिस के पास भेजा गया और उनके पास दो ही विकल्प थे या तो सूची पर हस्ताक्षर कर दें या पद छोड़ दें।”

एक जज ने दी थी तबादले को चुनौती

सरकार के फैसले के सामने ज्यादातर जज तो चुप रहे, लेकिन गुजरात हाईकोर्ट के एक जज ने साहस दिखाया। गुजरात उच्च न्यायालय के जस्टिस संकलचंद शेठ ने अपने स्थानांतरण अधिसूचना को अदालत में चुनौती दे डाली। जाने माने वकील एच. एम. सीरवाई ने कोर्ट में जस्टिस शेठ का केस लड़ा।

जस्टिस शेठ ने अपनी याचिका में सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि तबादला जनहित में किया जाना चाहिए न कि जज को दंडित करने या उनसे बदला लेने या दबाव बनाने के लिए।

याचिका में सरकार की कार्रवाई को संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ बताते हुए कहा गया था संबंधित जज की सहमति के स्थानांतरण करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। गुजरात हाई कोर्ट ने शेठ की दलील को सही पाया और अपने आदेश में सरकार को तबादले पर अमल नहीं करने को कहा। हालांकि सरकार नहीं मानी और सुप्रीम कोर्ट में में अपील कर दिया।

‘लग रहा खत्म नहीं होगा ये दौर’

लीला सेठ की आत्मकथा को पढ़कर लगता है कि वह इमरजेंसी के दौर में गहरी निराशा से घिर गई थीं। वह एक जगह लिखती हैं, ऐसा लगता था कि इमरजेंसी कभी खत्म नहीं होगी और न ही हालात कभी सामान्य होंगे। मैं बहुत निराश हो गई थी। कुछ वकीलों ने मुझसे कहा कि इंतजार करिए और देखते जाइए, आज़ादी हमें फिर मिलेगी और हमें हमारे सारे अधिकार भी दोबारा मिलेंगे। उस समय यह किसी सपने जैसा लग रहा था।”

इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल मार्च 1978 तक बढ़ा दिया था। लेकिन फिर अचानक उन्होंने 18 जनवरी, 1977 को चुनाव कराने की घोषणा कर दी। जेल में बंद विपक्षी नेता बाहर आ गए। चुनाव हुए और कांग्रेस की बुरी हार हुई। इंदिरा गांधी खुद अपनी सीट से हार गईं। यह भारत के इतिहास में पहली बार था, जब कोई सीटिंग प्रधानमंत्री अपनी सीट से चुनाव हार जाए। 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हो गया और केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसका नेतृत्व मोरारजी देसाई ने किया था।

लीला सेठ कांग्रेस और इंदिरा गांधी की हारे के पीछे उनके आस-पास के लोगों को जिम्मेदार ठहराती हैं। वह लिखती हैं, “इंदिरा गांधी को यकीन था कि चुनाव में उन्हें जीत मिलेगी। वह देशवासियों में व्याप्त नफरत, कड़वाहट और नाराजगी की भावना को समझने में विफल रही थीं। उन्होंने अपने आसपास ऐसे लोगों को जमा कर लिया था जो उन्हें हकीकत तक पहुंचने नहीं देते थे और इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा।”